युद्ध-विराम से सुरक्षा-कार्य शिथिल न हों।

October 1965

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राष्ट्र की शक्ति बढ़ाने के लिए हम प्राण-प्रण से प्रयत्न करते रहें

परिस्थितियों ने पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध-विराम करा दिया। गोली चलना 23 सितम्बर से बन्द होने की दोनों ओर से घोषणा हो गई। राष्ट्र-संघ के प्रस्ताव का वह अंश दोनों पक्षों ने मान लिया जिसके अंतर्गत गोली चलाना बन्द करने का आदेश दिया गया था। इस प्रकार प्रत्यक्ष रक्तपात बन्द हो गया और लड़ाई की जो गर्मी, बेचैनी वातावरण में छा रही थी, वह हल्की हो गई। खून खराबी का बन्द होना अच्छी बात है,जब भी, जहाँ भी, जितने दिन के लिए भी वह बन्द हो जाये, वह स्वागत के योग्य है, उस पर प्रसन्नता ही व्यक्त की जा सकती है।

किन्तु इतने मात्र से यह न समझ लेना चाहिए कि युद्ध समाप्त हो गया। विराम हुआ है, समाप्ति नहीं। स्थायी समाप्ति के लिए जो आधार होना चाहिए, वह अभी नहीं है। पाकिस्तान के शासकों की भारत के प्रति जो द्वेष, घृणा और शत्रुता की भावना आरम्भ से ही रही और जिसके कारण वे आरम्भ से ही दुरभि-संधियाँ करते रहे हैं, वह मनोवृत्ति ज्यों की त्यों है। हृदय परिवर्तन जैसी चीज अभी दूर है। घृणा और द्वेष विद्यमान् हो तो अवसर मिलते ही ठण्डी या गरम लड़ाई उठ खड़ी होती है। फिर अभी मूल समस्या जहाँ की तहाँ बनी हुई हैं। कश्मीर के बारे में भारत और पाकिस्तान के बीच में इतनी बड़ी खाई है कि मतभेदों को सुलझाना अभी काफी कठिन है। युद्ध विराम के बाद जो समस्यायें सामने आवेंगी, उनका हल होना सरल नहीं है।

फिर चीन भी तो चैन से बैठने देने वाला नहीं है। सन् 62 के आक्रमण में वह लाभ उठा चुका है, वैसे ही वह और लाभ उठाने की घात में है। अगले दिनों उसकी गति-विधियाँ भारत के प्रतिकूल ही रहेंगी। हमें पाकिस्तान और चीन दोनों से कड़े शीत युद्ध में देर तक जूझना पड़ेगा, कह नहीं सकते कि कब फिर यह रस्साकशी उग्र रूप धारण कर ले और कब दुबारा फिर आग भड़क उठे।

वर्तमान युद्ध विराम के साथ वे आशाएं और सम्भावनाएं प्रकट नहीं हुई हैं, जिनके आधार पर सोचा जाये कि अब शान्ति की घड़ी निकट आई। लड़ाई के दाव घातों में शीत युद्ध और गरम युद्ध के उतार चढ़ाव आते रहते हैं। वर्तमान युद्ध विराम वैसा ही उतार चढ़ाव है। आक्रमणकारियों के इरादों में कोई अन्तर नहीं आया है। बीच-बचाव करने वालों ने आड़े आकर दोनों को प्रत्यक्ष हाथापाई से हटा दिया है, पर आक्रामकों की द्वेषाग्नि अभी भी पहले की तरह ही जल रही है। ऐसी दशा में वह दिन दूर ही है जब कि शान्ति का स्थायी वातावरण उत्पन्न होगा।

वर्तमान परिस्थितियों में सुरक्षात्मक कार्यों में तनिक भी शिथिलता आने देना भयानक भूल होगी। चीन की बन्दूकें तनी हुई हैं, न जाने वे कब बारूद उगलने लगे। पाकिस्तानी घुसपैठिये न जाने कब क्या करने लगें। हमें स्वल्प सन्तोषी नहीं, दूरदर्शी होना चाहिए। इस विराम से झूठा आत्म-सन्तोष नहीं करना चाहिए। अभी शान्ति और सन्तोष करने योग्य प्रकाश की एक भी किरण कहीं से प्रस्फुटित नहीं हुई है।

हमें अपनी शक्ति और समर्थता बढ़ाने के लिए दिन दूना रात चौगुना प्रयत्न करना चाहिए। सैन्य सज्जा का उत्तरदायित्त्व सरकार का है। सैन्य बल से हम दुर्बल न रहें, उसकी तैयारी सरकार करेगी, उसमें हमें पूरा-पूरा सहयोग देना चाहिये और आँतरिक शान्ति बनाये रहने के लिए वह सब कुछ करना चाहिए, जिससे सरकार पूरा ध्यान और समस्त साधन सुरक्षा कार्यों में लगा सके। अधिक उत्पादन, देश-द्रोहियों की गतिविधियों की देखभाल, वस्तुओं की कीमतें न बढ़ने देना, नागरिक रक्षा-दलों का गठन, जैसे कार्य बराबर जारी रहने चाहिए ताकि किसी भी क्षण आ उपस्थित होने वाले खतरे का मुकाबला भली प्रकार किया जा सके।

ये सामयिक कार्य हैं, जो वर्तमान तनावपूर्ण स्थिति में पूरे उत्साह के साथ किये जाते रहने चाहिए। रक्त, धन, सैनिक जो भी सुरक्षात्मक कार्यों के लिए आवश्यक हो, वह समुचित मात्रा में समय पर उपलब्ध रहे, ऐसी तैयारी करते रहना, देशभक्त नागरिकों का आवश्यक कर्तव्य है। उसमें शिथिलता दिखाना आत्मघातक ही होगा।

साथ ही राष्ट्र की स्थायी समर्थता बढ़ाने वाले कार्यों को हमें युद्ध प्रयत्नों से भी अधिक तत्परता के साथ करने के लिए तत्पर होना चाहिए। कोई राष्ट्र केवल सेना के बलबूते ही विजयी नहीं होता, वरन् उसके पीछे नागरिकों की दृढ़ता, मनस्विता, देशभक्ति एवं शारीरिक मानसिक समर्थता का बल भी होना चाहिए। एकता और संगठन में भी न्यूनता न रहनी चाहिए। समर्थ नागरिकों से ही कोई राष्ट्र समर्थ बनता है और यह समर्थता ही किसी देश या जाति को हर खतरे से जूझते हुए भी अपना अस्तित्व अक्षुण्य बनाये रहने की सामर्थ्य प्रदान करती है। पिछले दिनों जिन आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण हमें लम्बे समय तक पराधीन रहना पड़ा, उनका एक कारण भी अब हमारे भीतर शेष न रहना चाहिए। किसी देश को बाहरी शत्रुओं से उतना खतरा नहीं होता, जितना अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं से। जापान, जर्मनी आदि गत युद्ध में हारे हुए देश अपनी आन्तरिक दृढ़ता के कारण थोड़े ही दिनों में फिर समर्थ एवं स्वतन्त्र देशों की पंक्ति में खड़े हो गये। आन्तरिक दुर्बलता से ग्रसित अनेकों एशियाई और अफ्रीकी देश स्वतन्त्र कहलाते हुए भी पराधीनों से गई गुजरी स्थिति में हैं। युग की माँग एक ही है-समर्थता, समर्थता, समर्थता। इसके बिना उद्धार का और कोई मार्ग नहीं। भगवान् की सहायता भी समर्थता के अनुरूप ही मिलती है, इस तथ्य को हमें भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए।

राष्ट्र की आन्तरिक समर्थता बढ़ाने के लिए युग निर्माण योजना का विशाल कार्यक्रम अपने परिवार द्वारा चल रहा है। राष्ट्र के हर व्यक्ति को शारीरिक मानसिक, आत्मिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सबल बनाया जाना आवश्यक है। एक लौह पुरुष हजार पैटन टैंकों से अधिक शक्तिशाली होता है। हमें भारत के हर बच्चे को लौह पुरुषों के रूप में हर घर-घर को एक लौह दुर्ग के रूप में परिणत करना होगा। इसका उपाय एक ही है कि जनमानस में घुसी हुई संकीर्णता, स्वार्थपरता, मूढ़ता, रूढ़िवादिता, दीनता, जैसी प्रवृत्तियों को हटाने के लिए प्राण-प्रण से प्रयत्न किया जाये और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाये जिनमें जनसाधारण को चरित्रवान, देशभक्त, दूरदर्शी, साहसी, विवेकवान् सद्गुणी एवं त्याग बलिदान की भावनाओं से ओत-प्रोत बनने का अवसर मिले। युगनिर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों में से प्रत्येक इसी दृष्टि से है।

सरकारी प्रयास सुरक्षात्मक कार्यों एवं कूटनीतिक गति विधियों में संलग्न रहेंगे। यह प्रथम मोर्चा है। दूसरा मोर्चा गैर सरकारी लोगों को खोलना है। युद्ध सामग्री फैक्ट्रियों में तैयार होती है, सेना की ट्रेनिंग छावनियों में दी जाती है। नागरिकों को समर्थ बनाने का महान् अभियान हम धार्मिक एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। जन-जन से संपर्क स्थापित करना चाहिए, रचनात्मक कार्यक्रमों का सुसंगठित योजनाबद्ध ऐसा प्रयास करना चाहिए कि हर भारतीय नागरिक अपनी वैयक्तिक दुर्बलता छोड़ने और महान् राष्ट्र के महान् नागरिक जैसी समर्थता से परिपूर्ण होने की स्थिति तक पहुँच सके।

इस दृष्टि से हमें इन दिनों अपने शतसूत्री रचनात्मक कार्यों पर अत्यधिक बल देना चाहिए और पूरी तत्परता के साथ उन्हें सफल बनाने में जुट जाना चाहिए। ‘क्लीं’ शक्ति का उपासनात्मक जो कार्यक्रम शरद पूर्णिमा से आरम्भ किया जाना है, उसके लिये अखंड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को भाग लेना चाहिए। रचनात्मक कार्यक्रमों की भाँति यह आध्यात्मिक कार्यक्रम नितान्त आवश्यक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे राष्ट्र में शक्ति एवं समर्थता का वातावरण उत्पन्न होगा। शीत ऋतु का हमारा दौरा वहीं होगा जहाँ अनिवार्य आवश्यकता समझी जायगी । 100 से अधिक स्थानों में जाने का जो कार्यक्रम बनाया था वह इस वर्ष नहीं हो सकेगा। इस साल तो दूसरे मोर्चे को सफल बनाने के लिए शतसूत्री कार्यक्रमों की, देश-व्यापी योजना बनाने की, व्यवस्था चलाने में हमें प्राण-प्रण से तन्मय रहना है। पाठक भी वही करें।


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