पतिव्रत धर्म की महान् महत्ता

October 1965

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महर्षि दयानन्द कहा करते थे “हिन्दू धर्म यहाँ की स्त्रियों के कारण जीवित है। यहाँ की नारियाँ शील और सद्धर्म पालन में अग्रणी न रही होतीं तो आर्य जाति का गौरव कभी का विलुप्त हो गया होता।”

शास्त्रीय इतिहास नारियों के पतिव्रत धर्म और उनके जाज्वल्यमान चरित्र से भरा पड़ा है। ऐसी अनेक कथायें हैं, जब स्त्रियों की अलौकिक शील निष्ठा के समक्ष बड़े-बड़े देवताओं को भी नत हो जाना पड़ा। स्त्रियों के कर्त्तव्य धर्म का विवेचन करते हुये शास्त्रकार ने बताया है कि पति-परायण नारी योगी-यती, सन्त-संन्यासियों से भी उत्तम गति को प्राप्त करती हैं।

मन्त्रदृष्टा अपाला ने अपनी शक्ति से मरुद्गणों का आवाहन कर सोम रस पान किया, सती अनुसुइया के आँगन में ब्रह्मा, विष्णु, महेश बालक बनकर खेले, सावित्री यम से लड़ी, शाण्डिली ने सूर्य देव का रथ रोक दिया, सुकन्या की पति निष्ठा से संतुष्ट होकर अश्विनीकुमारों को धरती में उतर कर च्यवन ऋषि की वृद्धावस्था को यौवन में बदलना पड़ा।

महासती सीता भगवान राम के साथ वन-वन घूमीं, दमयन्ती ने वन की कठोर यातनायें सहीं, पर नल से वियुक्त होना स्वीकार न किया। पति को अन्धा न देख सकने वाली गान्धारी ने आजीवन आँखों में पट्टी बाँधकर रखी। यह है भारतीय नारियों का आदर्श चरित्र। यहाँ की मातृ शक्ति के सामने पुरुषत्व ने अनेक बार घुटने टेके और उनकी स्तुति की।

मातायें ऐसी शीलवान न होतीं तो भरत, अर्जुन, ध्रुव, प्रह्लाद, अभिमन्यु, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, विवेकानन्द, महाराणाप्रताप, शिवाजी, रणजीतसिंह आदि महान सन्तानों को कौन जन्म देता? सिंहनियाँ सिंह ही जनती हैं, उनकी कोख से शृंगाल नहीं आते। स्त्रियाँ चरित्रवान थीं, इसलिये यहाँ के पुरुषों के जीवन भी बड़े उदात्त और चरित्र निष्ठा से ओत-प्रोत रहे हैं।

दीपक की ज्योति मन्द हुई है, किन्तु उसका प्रकाश अभी भी घर-घर मौजूद है। आज भारत में नारियों की स्थिति भोंड़ी हो चली है, किन्तु अपनी माताओं के प्रताप से अभी भी वह चिनगारी बुझी नहीं, जो सहस्रों वर्ष पूर्व उन सन्नारियों ने जागृत की थी, जिनके इतिहास से भारतीय संस्कृति का इतिहास विश्व के आकाश पर उज्ज्वल नक्षत्र की भाँति चमक रहा है।

चिता में जीवित जलने का मर्मान्तक कष्ट सहकर भी भावनाओं को ऊँचा उठाये रहने का श्रेय नारी जाति ने प्राप्त किया। जौहर की ज्वाला में जीवित आत्म-समर्पण कर देने वाली पद्मिनियों का इतिहास जब भी खोला जायगा तो यहाँ के पुरुषों को दैवी प्रेरणा और प्रकाश दिये बिना न रहेगा। भारतीय नारी ने आदर्शवाद के लिये जो कष्ट सहे हैं, वे व्यर्थ नहीं जा सकते, उनका प्रभाव बहुत काल तक इस संसार में रहेगा।

स्त्रियाँ सच्चरित्र और पतिपरायणा हों, इस बात की आवश्यकता पहले भी थी और आज भी है। समाज को एक शिष्य के रूप में देखा जाय तो नारी ही उसका गुरु होगी। स्त्री, पुरुष को दीक्षा देती है। प्राण, संकल्प, बल और विचार देती है। वह जिस साँचे में चाहे पुरुष को ढाल दे। समाज की वह निर्मात्री है, पर इस निर्माण कार्य में प्रमुख वस्तु उसका चरित्र है। चरित्रवान नारियाँ ही गुरु के रूप में अपने समाज-शिष्य का सही मार्गदर्शन तथा निर्माण कर सकती है।

पतिव्रत धर्म एक प्रकार की उच्च स्तरीय भाव-साधना है, जिससे स्त्री का आत्म-बल उद्दीप्त होता है, आध्यात्मिक गुणों का आविर्भाव होता और कर्त्तव्यपालन की दृढ़ता आती है। इन विशिष्टताओं को धारण करके ही नारी समाज के दीक्षा-कर्म को उत्तम रीति से निभा सकती है।

यह साधना किसी योग से कम नहीं। पुरुष, परमात्मा का स्नेह और साहचर्य प्राप्त करने के लिये आत्म-समर्पण करता है, अपनी सारी कामनायें परमेश्वर को सौंपकर केवल कर्त्तव्यपालन में सुख अनुभव करता है। नारी पुरुष को देवता मानकर इसी आत्म-समर्पण की भावना का विस्तार करती है तो परमात्मा की उपासना के सत्परिणाम उसके जीवन में उतरते हैं। आत्मिक सुख, सन्तोष और शान्ति की उसे तुरन्त प्राप्ति होती है, यही सद्गति के आधार है और इन्हीं से समाज निर्माण के कार्य भली भाँति चल पाते हैं।

योग साधना के प्रथम चरण में भक्त अपने गुरु पर अपनी भावनाएं आरोपित कर उन्हें भगवान के रूप में पूजता है तो उसे ईश्वर उपासना के पूर्ण लाभ प्राप्त होते हैं। किसी देव प्रतिमा, पीपल या तुलसी की उपासना और अर्घ्यदान की अपेक्षा यदि स्त्रियाँ अपने पतियों को उस भाव से देखा करें तो इससे जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, उससे पारस्परिक आनन्द, बाल-निर्माण और समाज की सुव्यवस्था का वातावरण भी बनता है।

पतिव्रत धर्म यौन-सदाचार तक ही सीमित नहीं है, वह तो उसका एक अत्यावश्यक अंग है, पर व्यवहारिक रूप से नारियों के पतिव्रत का अर्थ जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं पर आधार बनकर रहना है। जिस रूप में उन्हें लगा दिया जाय, जैसी पति की स्थिति हो, उसी के अनुरूप अपने आपको ढाल देना और उसी में सुख अनुभव करना ही उद्देश्य है। वस्तुतः यह साधना ही पतिव्रत का मुख्य अंग है और इसी के कारण चरित्र निष्ठा की गम्भीरता बढ़ती है। केवल ‘यौन-सदाचार’ स्थिर रखकर ही इस मर्यादा की पूर्णता नहीं हो जाती, वरन् वह सामूहिक विकास के आधार रूप में जीवन-भर चलती है। इसलिये इसका महत्व ही बहुत बड़ा है और तभी इसे योग साधना का रूप भी माना गया है।

पश्चिम की स्थिति का अध्ययन इस सम्बन्ध में गम्भीर बातें प्रकट करती हैं। वहाँ स्त्रियाँ पतियों की अवहेलना तथा आलोचना करने के लिये स्वतन्त्र हैं। इस लिये वे विवाह के बाद से ही एक-दूसरे को शंकास्पद दृष्टि से देखना प्रारम्भ करते हैं। संघर्ष के लिये इतना ही काफी है। पुरुष स्वाभिमानवश झुके नहीं और राजनैतिक सहयोग स्त्रियों को झुकने न देता हो तो फिर समझौते की कोई संभावना नहीं शेष रहती। यही कारण है कि उनके जीवन तलाक से भरे पड़े हैं और वहाँ का दाम्पत्य-जीवन बड़ा क्लेशपूर्ण पाया जाता है।

इस देश में पति-पत्नी का सम्बन्ध आत्मा-आत्मा का सम्बन्ध माना गया है। और उसकी परिपूर्णता के लिये सौंदर्य, धन, लक्ष्मी, भोग आदि को गौण स्थान दिया गया है, इसलिये यहाँ के दाम्पत्य जीवन में सौष्ठव पाया जाता है, भावनायें पाई जाती हैं। इन्हीं के सहारे पतिव्रत धर्म का निर्वाह भी सुख रूप हो गया है और उसमें भौतिक कारण प्रतिबन्ध नहीं डाल पाते।

पश्चिम और मध्यकालीन दासता के प्रभाव यद्यपि अब भारतीय जीवन को भी दूषित करने लगे हैं और हमारी बेटियाँ पति निष्ठा के एकाँगी स्वरूप अर्थात् काम-सदाचार को ही मानने लगी हैं, दूसरा व्यवहारिक पहलू अब उपेक्षित-सा हो चला है, इसलिये यहाँ भी दाम्पत्य-जीवन में कष्ट, कलह और क्लेश बढ़ने लगा है। पूर्व नारियों जैसी दृढ़ता अब उनमें नहीं रही। कुछ शिक्षा का अभाव और कुछ रूढ़िवादिता के फलस्वरूप भी पति-पत्नी के बीच भेद-भाव की स्थिति पैदा होने लगी है।

पतिव्रत धर्म का पालन सुसन्तति को जन्म देने की दृष्टि से भी परमावश्यक है। वर्ण संकर सन्तान से सब प्रकार की क्षति पर प्रकाश डालते हुये गीता में कहा गया है-

दोषैरेतैः कुलघ्नानाँ, वर्णसंकर कारकैः। उत्साद्यन्ते जाति धर्माः कुलधर्माञ्च शाश्वताः॥ उत्पन्नकुल धर्माणाँ मनुष्याणाँ जनार्दन। नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥

गीता । 2। 43। 44।

अर्थात्- इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म (आचार-विचार) और जाति धर्म (व्यवहार) नष्ट हो जाते हैं और इस तरह जिन सन्तानों का आचरण और विचार भ्रष्ट हो जाता है, उनके पितर अनन्तकाल तक नरक में निवास करते हैं।”

हिन्दू धर्म में नारियों का बड़ा पूज्य स्थान है। उनके बिना लोक परलोक कुछ भी नहीं सधता। स्त्रियाँ लौकिक सुख तथा आत्म-विकास दोनों में समान रूप से सहायक होती हैं। इस दिशा में अब तक उनका जो आदर्श रहा है, उसे आगे भी यथावत चलना चाहिये, तभी हमारा आत्म-गौरव, हमारी संस्कृति की रक्षा और हमारे धर्म का प्राण जीवित बना रह सकता है।


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