राघवेन्द्र स्वामी

October 1965

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पुत्र के निर्माण में माता-पिता की भावनायें एक विशेष महत्व रखती हैं। माता-पिता की भावनायें ही सन्तान में संस्कार बनकर आत्मानुसार उसके आचरण की रचना करती हैं।

जिन अभिभावकों को राष्ट्र से प्रेम और समाज से स्नेह होता है, जो यह चाहते हैं कि उनका राष्ट्र संसार में मस्तक ऊँचा करके खड़ा हो, राष्ट्र का हर घटक अपने में एक पूर्ण मनुष्य बने, वे देश को अच्छे नागरिक देने के अपने कर्तव्य को बड़ी जागरुकता से निभाते हुये सन्तान का निर्माण किया करते हैं।

देश को एक होनहार नागरिक प्रदान करना बहुत बड़ी राष्ट्र-सेवा है। यदि देश के सारे माता-पिता समाज को उपयुक्त नागरिक देने के अपने उत्तरदायित्व को समझने लगे तो कुछ अन्य प्रयत्न किये बिना शीघ्र ही देश व समाज का कल्याण हो जाये।

राघवेन्द्र स्वामी के पिता श्री तिम्मण्ण भट्ट एक ऐसे ही उत्तरदायी व्यक्ति थे। समाज का वे जो कुछ थोड़ा- बहुत हित कर सकते थे, वह तो उन्होंने अपनी परिस्थितियों के अनुसार किया ही, साथ ही देश को एक महान नागरिक देने के लिये कुछ कम प्रयत्न नहीं किया।

पुत्र की कामना सबको होती है। किन्तु उनकी यह कामना केवल अपने स्वार्थ तथा हर्ष के लिये ही होती है। ऐसे कितने बुद्धिमान होते हैं, जो पुत्र की कामना इसलिये करते हों कि वे एक ऐसे मनुष्य, एक ऐसे नागरिक का निर्माण कर देश को प्रदान करने के अपने राष्ट्रीय-कर्तव्य को पूरा कर सकें, जो कि युग-आवश्यकता को पूर्ण करने में अपना तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर कर दे। अपने स्वार्थ-साधन को न देख कर पुत्र को समाज सेवा के लिये प्रदान कर देना एक महान तपोपूर्ण त्याग ही है।

तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में महात्मा माध्वाचार्य जी द्वारा भक्ति का उद्धार करने के लिये जिस वैष्णव मत की स्थापना की गई थी, वह लगभग तीन सौ वर्ष की यात्रा करके सोलहवीं शताब्दी में आकर लड़खड़ाने लगी। श्री माध्वाचार्य का यह वैष्णव भक्ति मार्ग कोई साधारण उपासना प्रणाली मात्र ही नहीं था, बल्कि यह उन माँगलिक साधनों में से एक था, जिसने यवन बादशाहों के अत्याचार पूर्ण प्रयत्नों द्वारा तीव्रता से बढ़ते हुये इस्लामी प्रभाव से शिखा-सूत्र की रक्षा की थी। यह मत एक धार्मिक धरोहर थी, जिसे हिन्दुत्व में चिर जीवन फूँकने के लिये सुरक्षित रखना आवश्यक था।

भक्ति-प्राण तिम्मण्ण भट्ट ने वैष्णव मत की जीर्णता को पहचान लिया और उनकी आत्मा उसकी रक्षा के लिये छटपटा उठी। किन्तु वे आयु, पारिवारिक परिस्थिति, योग्यता एवं समय की कमी के कारण इच्छा होते हुये भी उतना कुछ नहीं कर पाते थे, जितना कि सम्प्रदाय की रक्षा के लिये करना आवश्यक था।

श्री तिम्मण्ण भट्ट के कोई पुत्र नहीं था, और न उन्हें पुत्र की कोई कामना ही थी। वे निरन्तर भगवत्-भजन में लीन रहने से निस्पृह, निष्काम तथा एषणाओं से रहित हो चुके थे। किन्तु, जिस भक्ति का फल वे आत्मानन्द के रूप में भोगते हुये संसार के दुःख द्वन्द्वों से दूर हो चुके थे, उसी सर्व सुख सम्पन्न वैष्णव भक्ति का तिरोधान होते देख कर विचलित हो उठे और एक ऐसे पुत्र की कामना करने लगे, जो समाज के कल्याण और उनकी आत्म-शान्ति के लिये उक्त भक्ति मार्ग को पुनरुज्जीवित कर सके।

निष्काम भक्त ने पुत्र की कामना से आराधना प्रारम्भ की और अपनी परमार्थपूर्ण इच्छा की प्रबलता से अपने विश्वासानुसार भगवान वेंकटेश से इस वरदान के साथ पुत्र रत्न प्राप्त कर ही लिया-कि उनका पुत्र संसार के विषय वासनाओं से विरक्त रहकर अपने कर्तृत्वों द्वारा देश और धर्म का उद्धार करे।

अपनी समस्त मंगल कामनाओं के साथ मन-मार्ग द्वारा अपने पुत्र में समाहित होकर श्री तिम्मण्ण भट्ट इस प्रसन्नता के साथ शीघ्र ही अंतर्हित हो गये कि यदि भगवान वेंकटेश की इच्छा धर्मोद्धार की न होती तो वे मुझे इस उतरती आयु में माँगने पर पुत्ररत्न प्रदान न करते।

भगवान वेंकटेश के नाम पर अभिधानित पितृहीन वेंकटनाथ के लालन-पालन का भार उनकी विधवा माता पर आ पड़ा। पति को पुत्र रूप में पाकर गोपा देवी ने अपने वैधव्य पर रोते रहना अयोग्य समझकर पति की भावनाओं को पुत्र में निष्ठापूर्ण कर्तव्य के रूप में रच देना ही पतिव्रत के अनुरूप समझा।

भक्त के पास विभूति का क्या काम? वेंकटनाथ के पिता ने अपने पीछे कोई सम्पत्ति तो छोड़ी न थी, अतएव उनकी माता ने अपने परिश्रम के बल पर जीविका की व्यवस्था करके संतोषपूर्वक पुत्र का पालन प्रारम्भ कर दिया। उनके पुत्र-पालन का अर्थ था, अवस्थानुसार विविध उपायों द्वारा पुत्र के मनोविकास के साथ उसमें पति की भावनाओं की स्थापना करना। यद्यपि वे कुछ पढ़ी-लिखी न थीं, तथापि पुत्र को स्वयं ही प्रारम्भिक शिक्षा देने के मन्तव्य से थोड़ा-बहुत पढ़ाना-लिखाना शुरू कर दिया और जब पुत्र वर्णमाल की आयु में पहुँचा तो वे उसके हृदय में विद्या की आधार शिला रखने की योग्यता प्राप्त कर चुकी थीं।

प्रारम्भिक शिक्षा देकर गोपा देवी ने अपने मोह को दबाकर पुत्र को उच्च शिक्षा के लिए अपने विद्वान दामाद पं0 लक्ष्मी नरसिंहाचार्य के पास भेज दिया। किसी महान मन्तव्य के लिए सुरक्षित की हुई पति की धरोहर को आत्म-सन्तोष के लिए अपने तक सीमित रखने का अधिकार गोपा देवी को नहीं था। इस बात को वे अच्छी तरह जानती थीं और इसीलिए अपने भविष्य की चिन्ता छोड़कर उन्होंने पुत्र को उसी मार्ग पर अग्रसर किया जिस पर चलकर वह अपने स्वर्गीय पिता की इच्छा पूर्ण करके कुल को उज्ज्वल करे। गोपा देवी अच्छी तरह जानती थीं कि उन्होंने पुत्र में जिन संस्कारों का जागरण किया है और जिस मार्ग पर उसे अग्रसर किया है, उससे वापस आकर वह उन्हें पुनः प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु देश-धर्म की धरोहर उसे सौंपकर उन्होंने सन्तोष ही पाया।

माता द्वारा निर्मित मनोभूमि की उर्वरता मस्तिष्क की प्रखरता तथा पिता की इच्छा के प्रतिनिधित्व भाव ने मिल कर वेंकटनाथ में एक ऐसी लगन उत्पन्न कर दी, जिससे वह आगामी कर्तव्यों के योग्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए विद्यावारिधि में आमूल निमग्न हो गया। शीघ्र ही उसने धर्म के सारे अंगों-उपाँगों के साथ साहित्य, व्याकरण, न्याय, वेदान्त आदि में निपुणता प्राप्त कर ली।

विद्या विदग्ध होने के साथ-साथ तरुण होकर आए, अपने पुत्र को देखकर गोपा देवी के हृदय में हर्ष के साथ मोह की भी पुनरावृत्ति हो उठी और वे कम से कम पुत्र को विवाह बन्धन में बाँधकर उसको सपत्नीक देखने की अपनी इच्छा को न रोक सकीं। कोई इच्छा अथवा आवश्यकता न होने पर भी ज्ञान-गरिमा के पुण्य-प्रभाव से वीतराग हुए वेंकटनाथ ने माता की प्रथमान्त इच्छा को पूर्ण करना अपना धर्म-कर्तव्य की समझा।

अपनी सहधर्मिणी के रूप में विद्वान वेंकटनाथ ने जिस सरस्वती नामक कन्या का चुनाव किया, वह देखने में सुन्दर तो नहीं थी, किन्तु विद्या, बुद्धि और पति-परायणता में हजार सुन्दरियों से बढ़कर थी। वेंकटनाथ के इस चुनाव की जब लोग चर्चा करते तो वे एक ही उत्तर देते थे कि ‘मुझे अपने चुनाव-चातुर्य पर न केवल सन्तोष ही है, अपितु गर्व भी है। जो व्यक्ति नारी के आन्तरिक सौंदर्य की अपेक्षा बाह्य सौंदर्य को अधिक महत्व देते हैं, वे अधिक बुद्धिमान नहीं कहे जा सकते। नारी का वास्तविक सौंदर्य तो उसके गुण हैं, बाह्य सौंदर्य अचिर-जीवी विभ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।’

ध्येय-धर्म की तैयारी करके और माता को तोष देकर श्री वेंकटनाथ अपने कर्तव्य मार्ग पर चल पड़े। इसके पहले कि वे जनता में धर्म प्रचार का कार्य आरम्भ करते, उन्होंने अपने गुरु श्री सुधीन्द्रतीर्थ जी का आशीर्वाद ले लेना आवश्यक समझा। गुरु ने वेंकटनाथ का उद्देश्य सुनकर तथा उस पर गहराई से विचार करके उन्हें अपने पास रोक लिया और शास्त्रों की पुनरावृत्ति का परामर्श दिया। यद्यपि वेंकटनाथ को अपने शास्त्रीय ज्ञान में कोई सन्देह न था, तथापि वे गुरु की आज्ञा में किसी महान मंगल का समावेश समझकर रुक गये और शास्त्रों के पुनर्मन्थन के साथ गुरु की सेवा में तल्लीन हो गये।

गुरु आश्रम में रहकर उन्होंने न केवल अपने ज्ञान को ही परिपुष्ट किया, अपितु वक्तव्य-विकास के लिये अनेक शिष्यों को भी बढ़ाया। विद्या और वाणी पर समान रूप से अधिकार पाकर वेंकटनाथ ने गुरु से पुनः धर्माभियान की अनुमति माँगी। गुरु ने आश्वस्त होकर न केवल अनुमति ही दी, अपितु अपने विश्वस्त शिष्य को स्वयं साथ लेकर पुण्य-पर्यटन पर चल पड़े।

सबसे पहले वेंकटनाथ अपने गुरु के साथ धर्म-जिज्ञासुओं के सम्मेलन तथा व्यवसायिक धर्म-प्रचारकों के केन्द्र स्थल तीर्थों पर अन्धविश्वास तथा भ्राँतियों को दूर करने के लिये गये। यद्यपि तीर्थों पर उन्हें धन्धकों के विकट विरोध का सामना करना पड़ा, तथापि उन्होंने अपने साहस, आत्म-विश्वास तथा विद्या के बल पर पुण्य स्थलों को मायावियों से मुक्त कर दिया। उन्होंने वर्षानुवर्ष सच्चे वैष्णव धर्म का प्रतिपादन करके भजन-कीर्तन तथा पूजा-पाठ के रूप में अपना सत्य सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचा दिया। उनकी ख्याति से उत्तेजित होकर अनेक धर्माधिकारियों तथा सम्प्रदायवादियों ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। चुनौती स्वीकार करके उन्होंने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और अपने अमोघ वक्तव्यों द्वारा विरोधियों के न केवल मुँह ही बन्द कर दिये, बल्कि उन्हें वैष्णव मत का प्रचारक बना दिया।

श्री वेंकटनाथ की अविचल निष्ठा, अनवरत प्रयत्न एवं अप्रतिम प्रतिभा ने तात्कालिक धार्मिक क्षेत्र में एक क्राँति उपस्थित कर दी, जिसकी हलचल ने भ्राँतिपूर्ण विश्वासों को भागने पर विवश कर दिया। ध्येय के प्रति अर्पितात्मा वेंकटनाथ की धाक सारे देश में बैठ गई और वे वैष्णव मत के पुनरुद्धारक के रूप में पूजे जाने लगे।

धार्मिक क्षेत्र में वाँछित परिवर्तन लाकर श्री वेंकटनाथ ने संन्यास ले लिया और कृतकृत्यता के सन्तोष के साथ राघवेन्द्र स्वामी के नाम से गुरु आश्रम में रह कर शान्ति पूर्वक लोक शिक्षण की व्यवस्था करने लगे।

सेवा धर्म अपना कर आत्म साक्षात्कार तक पहुँचे हुये श्री राघवेन्द्र स्वामी ने लोक शिक्षा के लिये अन्तिम दिन तक आश्रम के नियमों का निर्वाह किया। वे नित्य ब्रह्ममुहूर्त में उठते, कावेरी में स्नान करके गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों का प्रवचन करते। शिष्यों को पढ़ाते तथा कीर्तन-भजन के लिये पदों की रचना करते।

वैष्णव मत की रक्षा करके और अनेक भविष्य-रक्षकों का निर्माण करने के बाद श्री राघवेन्द्र स्वामी ने संसार में आगे अपनी आवश्यकता न समझकर तुँगभद्रा के तट पर मंचाली ग्राम में वृन्दावन नामक स्वरचित समाधि-संधि के बीच निर्धारित समय पर भजन करते हुये ब्रह्म समाधि प्राप्त की। उनके शिष्यों ने गुरु के आदेशानुसार बारह सौ शालिग्रामों से उन्हें ढक दिया और समाधि-संधि बन्द करके पत्थर पर-”यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत...” का भगवद्-वाक्य अंकित कर दिया। स्वामी जी धर्म की स्थापना के लिये अवतरित हुये थे, उस कर्तव्य को अन्तिम श्वांस चलने तक वे पूरा करते रहे।


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