जिन्होंने साहसपूर्वक अपने को बदला-वे स्वामी श्रद्धानन्द

October 1965

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मुन्शीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बनने वाले के यदि सम्पूर्ण जीवन की समीक्षा की जावे तो पता चलेगा कि मनुष्य मूल रूप से बुरा नहीं होता। वह अपने आस-पास के विकृत वातावरण से ही बुराइयों को ग्रहण करता है। संगति, परिस्थिति अथवा वातावरण के अवाँछनीय तत्व ग्रहण कर लेने पर भी यदि व्यक्ति में अच्छाई का एक भी बीज शेष है, उसकी बुद्धि पूर्ण रूप से भ्रष्ट नहीं हो गई है तो अवश्य ही उसके जीवन में एक ऐसा सशक्त मोड़ आ सकता है, जो उसके सम्पूर्ण जीवन को ही बदल कर रख दे।

जिसमें मानवता के अंकुर शेष है, जिसके अर्ध-चेतन अथवा अवचेतन में भी धर्म के प्रति जिज्ञासा और अच्छाई के प्रति अनुभूति है, तो एक दिन किसी घटना अथवा आत्मानुभूति से उसके जीवन में एक क्राँतिकारी परिवर्तन आ सकता है।

स्वामी श्रद्धानन्द का पूर्वनाम मुँशीराम था और वे तालवन (जालन्धर) नामक गाँव के एक धनी मानी परिवार के पुत्र थे। उनके पिता उस समय के ब्रिटिश राज्य के कोतवाल थे। पैसे अथवा साधनों की कमी नहीं थी। निदान पैसे की बहुतायत से परिवार की संतानों पर प्रायः जो कुछ प्रभाव पड़ने की सम्भावना रहती है, मुँशीराम उससे अछूते न रह सके। उनकी संगत बिगड़ गई। निकम्मे और आदर्शहीन मित्र उन्हें घेरे रहने लगे, जिसके फलस्वरूप वे शराब तक पीने लगे और माँस से भी परहेज करना छोड़ दिया।

यद्यपि मुँशीराम का आचरण खराब होता जा रहा था, तथापि उनके आस्तिक माता-पिता को पूरा विश्वास था कि उनका पुत्र एक न एक दिन ठीक रास्ते पर अवश्य आयेगा। मुँशीराम के माता-पिता का विश्वास किसी काल्पनिक आधार पर नहीं था। उनका यह विश्वास धर्म की उस अखण्ड निष्ठा पर आधारित था, जिसका निर्वाह वे हर परिस्थिति में किया करते थे। उनकी माता तो धर्म निष्ठ थी ही, उनके पिता कोतवाल का पद सँभालते हुए भी ईश्वर में लवलीन होकर बहुत देर तक पूजा किया करते थे। अपनी पूजा के अवसर पर वे अपने पुत्र के सुधार की प्रार्थना भी किया करते थे।

इधर पिता पुत्र की कल्याण कामना किया करते थे और उधर मुँशीराम की विचार धारा बिगड़ते-बिगड़ते नास्तिकता की सीमा तक पहुँच गई। यह परिवार में एक प्रकार से सत्य और असत्य, अच्छाई और बुराई तथा आस्तिकता तथा नास्तिकता की लड़ाई छिड़ गई थी। जहाँ मुँशीराम को जीवन के किसी आदर्श में विश्वास न था वहाँ उनके पिता को अच्छाई की जीत और सत्य की विजय में पूर्ण विश्वास था। पिता-पुत्र के बीच यह भावना-संघर्ष कुछ समय तक चलता रहा और आखिर सत्य की आस्तिकता की ओर एक निष्ठ विश्वास की विजय हुई और मुँशीराम के जीवन में परिवर्तन प्रारम्भ हो गया।

जहाँ पैतृक संस्कारों में शुभ का निवास है, जहाँ घर का वातावरण कलह रहित सात्विकता से परि-पूर्ण है, वहाँ संगतिवश बिगड़ गयी संतान का सुधार न हो, यह असंभव है। निदान एक दिन संस्कार जागरण का क्षण आया और मुँशीराम ने एक कसाई के सिर पर कटे पशुओं की लटकती टाँगे और टपकता रक्त देख लिया। बस फिर क्या था, सात्विक विवेक ने ललकारा-देखते हो मनुष्य-तुम स्वाद और वह भी पैशाचिक स्वाद के वशीभूत हो कर क्या खाते हो? मुँशीराम के मानव-विवेक ने आंखें खोलीं और अपने माँसभोजी स्वरूप की तस्वीर देख कर खाने और उसका विरोध करने की शपथ ले ली।

यह कोई अलौकिकता से पूर्ण घटना नहीं थी। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य था। मनुष्य का विवेक और उसकी अन्तरात्मा सदैव ही उसे गलत रास्ते पर जाने से रोकती रहती है। मनुष्य उसकी आवाज को दबा कर ही किसी बुराई को अपनाता है। यदि उसने अपनी आत्मा को बिल्कुल नष्ट नहीं कर डाला, विवेक को पूर्णतया बहिष्कृत नहीं कर दिया है तो कोई कारण नहीं कि अवसर पाकर उसकी अन्तरात्मा उसे एक दिन सावधान कर के ठीक रास्ते पर न लावे। बुराई में फँसा होने पर भी जो व्यक्ति उसे अन्तरात्मा से स्वीकार नहीं करता, अपने विवेक को उसके प्रति समर्पण नहीं कर देता, एक दिन उसका सुधार अवश्य होता है।

एक बुराई से विरत होते ही मुँशीराम की विकृत वृत्तियों का संगठन टूट गया, सद्वृत्तियाँ बलवती हो उठीं और धीरे-धीरे सारी बुराइयाँ दूर होने लगी। माँस खाना छोड़ देने पर भी मुँशीराम शराब पीना न छोड़ सके। किन्तु इस बुरे व्यसन की खबर एक दिन उनकी पत्नी की सात्विक सेवा भावना ने ली और एक रात में ही मद्य पान की आदत को पति से लाख कोस दूर भगा दिया।

काफी रात गये मुँशीराम अपने स्वभावानुसार एक दिन नशे में बेहोश होने पर आये। घर आते ही वे गिर पड़े और उल्टी करने लगे। नियमानुसार प्रतीक्षा में जागती हुई पत्नी ने उन्हें सँभाला, हाथ पैर और मुँह धुलाया। कपड़े बदल कर आराम से लिटाया और धीरे-धीरे सिर में मालिश करने लगी। ब्रह्म मुहूर्त में मुँशीराम को होश आया और उन्होंने बिना कुछ खाये पिये अपनी पतिव्रता को सेवा में जागते हुये देखा तो उन्होंने कहा, पता चलता है कि तुमने अभी तक भोजन नहीं किया और योंही मेरा सिर दबाते हुये रात भर जागती रही हो।

पत्नी ने प्रेम पूर्वक मुस्कराते हुये उत्तर दिया, आप तो जानते ही हैं कि आपको भोजन कराये बिना मैं कभी भोजन नहीं करती और जब तक आप होश में न आ जाते, मेरे सोने का प्रश्न ही नहीं उठता। मुँशी राम का ‘मनुष्य’ मरा नहीं था, केवल दुर्व्यसनों के विष से मूर्छित हो गया था, सो पतिव्रता पत्नी की निश्छल प्रेम भरो मुस्कान का पियूष पाकर सचेत हो उठा। उन्हें अपने पर बड़ा क्षोभ हुआ और तत्काल पत्नी के सम्मुख हर बुराई को त्याग देने और अपने जीवन को आमूल बदल देने की प्रतिज्ञा कर के उसी मंगल प्रभात में सारी बुराइयों से सदा के लिये छुट्टी पाई।

व्यसन-विकारों से छुट्टी पाते ही मुँशीराम में उद्दात्त भावनाओं का उद्रेक हुआ और उनका ध्यान समाज सेवा की ओर घूम गया। ऐसा होना स्वाभाविक ही था। पतन के गर्त से उठने वाला मनुष्य देवत्व की ओर ही जाता है। मुँशीराम में ज्ञान पिपासा जाग उठी और वे ज्ञान पूर्ण पुस्तकों के लिये विद्वानों तथा पुस्तकालयों की धूल छानने लगे। उन्होंने ढूंढ़कर धर्म विषयक पुस्तकें पढ़ डाली, किन्तु ज्ञान पिपासा शान्त न हुई। अन्त में जब उन्होंने स्वामी दयानन्द का लिखा हुआ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ा तो उसमें युग धर्म का सत्य देख कर उनकी आत्मा तृप्त हो गई। फलतः उनका झुकाव आर्यसमाज की ओर हो गया। इसी बीच उन्हें बरेली में स्वामी दयानन्द के दर्शन करने तथा उनका ओजस्वी भाषण सुनने का अवसर मिला, जिसने उनके जीवन में आमूल परिवर्तन ही कर दिया। मनुष्य की मनोभूमि जब कोई अच्छी बात सहन करने के लिए तैयार होती है तो ज्ञान की एक छोटी बात भी फल फूल कर विस्तृत हो जाती है और मनुष्य की अपनी मौलिक विचार धारा मिलकर उसे बहुत महत्वपूर्ण बना देती है। निर्विकार मनो-दर्पणकर प्रतिबिम्बित हुई ज्ञान की एक छोटी-सी किरण भी जीवन में अनन्त आलोक भर देती है।

ईश्वर ने पिता की प्रार्थना सुनी और पुत्र ठीक रास्ते पर आ गया। निदान उन्होंने प्रयत्न करके मुँशीराम को तहसीलदारी का पद दिला दिया। उस समय तहसीलदारी का पद कोई साधारण बात न थी, किन्तु मुँशीराम की जिस आत्मा का उत्थान हो चुका था, जो जीवन के प्रज्ज्वलित सत्य के दर्शन कर चुका था, वह जहाँ जायेगा, जिस स्थान पर रहेगा, सत्य का समर्थन करेगा, न्याय की रक्षा करेगा।

बरेली से कुछ दूर अंग्रेजी सेना ने पड़ाव डाला, उसकी रसद के प्रबन्ध का उत्तरदायित्व के क्षेत्र के तहसीलदार मुँशीराम पर आया। मुँशीराम ने अपने प्रभाव से रसद का ही प्रबन्ध नहीं किया, बल्कि एक पूरे बाजार की व्यवस्था कर दी। अंग्रेज कर्नल ने उनका प्रभाव और प्रबन्ध कुशलता देख कर बड़ी प्रशंसा की। इसी बीच मुँशीराम को पता चला कि कुछ गोरे सैनिकों ने एक गरीब अण्डे वाले के सब अण्डे छीन लिये और पैसों के नाम पर उसे डरा धमका कर भगा दिया।

महानता की परिधि में पहुँचे हुये मुँशीराम को भला वह अन्याय पूर्ण अत्याचार किस प्रकार सहन हो सकता था। निदान वे कर्नल के पास गये और स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि या तो अंडे वाले का मूल्य दिलाया जाय अथवा वे सारे दुकानदारों को वापिस कर देंगे।

एक काले तहसीलदार की चुनौती सुनकर अंग्रेज कर्नल भौचक्का रह गया। किसी प्रकार भी उसकी यह समझ में न आ सका कि हिन्दुस्तानी तहसीलदार एक अंग्रेज कर्नल के सामने इस प्रकार की बात करने का साहस किस प्रकार कर सका? उस बेचारे को क्या पता था कि उस समय मुँशी राम के रूप में न कोई काला बोल रहा था और न गोरा बल्कि उनकी वाणी के माध्यम से एक निर्विकार सत्य बोल रहा था, एक न्याय घोषणा कर रहा था। कर्नल बहुत कुछ गुर्राया, किन्तु सत्य-सिंह के सम्मुख वह गीदड़-भवकी कोई काम न कर सकी। महान मुँशीराम ने दुकानदारों को वापस कर दिया और अन्यायी अंग्रेज सरकार की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। जिस पद की रक्षा में गरीब प्रजा को लूटने और शोषण करने में अन्यायियों का सहयोग करना पड़े, उस पर लानत भेज कर मुँशीराम को सन्तोष हुआ।

अन्दर बाहर दोनों प्रकार से निर्द्वन्द्व होकर महात्मा मुँशीराम ने समाज सुधार के लिये आर्य-समाज और स्वतन्त्रता संग्राम के लिये काँग्रेस में प्रवेश किया। इन संस्थाओं में कुछ काम करने के बाद 1927 में संन्यास ले लिया, जिससे उनके जीवन में ओजस्विता एवं प्रखरता आ गई। संन्यास लेते समय उन्होंने हृदय प्रधान होने वाले श्रद्धानन्द के नाम से अपना नया नाम संस्करण किया।

1919 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह में दिल्ली क्षेत्र का उत्तरदायित्व स्वामी श्रद्धानन्द जी ने संभाला। स्वामी जी के दिल्ली पहुँचते ही अंग्रेज सरकार काँप उठी, न “जाने क्या हो जाये” की शंका से राजधानी में गोरी फौज लगा दी। अपने निःस्वार्थ सेवा भावना और निर्भीक देश भक्ति के तेज से देदीप्यमान स्वामीजी अंग्रेज हुकूमत को केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक पूरी विजय वाहिनी दिखलाई दिये, जिसका सामना करने के लिये उसने गन मशीनों तक का प्रबन्ध किया। धन्य मनुष्य के उस आत्म-बल को जिसे एक अकेला व्यक्ति हजारों लाखों की संख्या में सन्नद्ध अन्यायियों तथा अत्याचारियों को एक पूरी सेना जैसा दीखने लगता है।

दिल्ली में हड़ताल हुई और लगभग पचास हजार जनता का शान्त जुलूस स्वामी जी के पीछे चला। आगे संगीन ताने हुए गोरी टुकड़ी ने रोका ओर कहा यदि एक कदम आगे बढ़ने का प्रयत्न किया तो गोली सीने से पार हो जायेगी। देश का निर्भीक सेनानी मुस्कुराया और तनी हुई संगीन से छाती अड़ाकर बोला, यद्यपि इस अन्यायी सरकार की गोलियाँ लोगों की छाती को चीर सकती है, पर न्याय की पुकार को कोई मान नहीं सकता। भारत की आत्मा ऐसी लाखों गोलियों से भी नहीं चीरी जा सकेगी। गोरे फौजी नायक के हाथ काँप उठे और संगीन स्वयं नीची हो गई। तभी नगर रक्षक अफसर आया और जुलूस का रास्ता दिला कर परिस्थिति सँभाली।

काँग्रेस के एक सम्मानित एवं लोकप्रिय नेता होते हुये भी उन्हें काँग्रेस से त्यागपत्र देते देर न लगी, जब धर्म की उपेक्षा के विषय में उससे उनका मतभेद हो गया। जिस धार्मिक भावना ने मुँशीराम को पतन के गहरे गर्त से निकाल कर लोक रंजन के उन्नत शिखर पर बैठा दिया, नेतृत्व के लोभ में उस धर्म का तिरस्कार सह सकना स्वामी श्रद्धानन्द के वश की बात न थी।

काँग्रेस से हटकर वे आर्यसमाज के माध्यम से धर्म रक्षा में लग गये और अछूतोद्धार तथा शुद्धि के कार्यक्रमों का सम्पादन करते हुए बलिदान हो गये।

अन्य देश सेवाओं के साथ स्वामी श्रद्धानन्द ने जन सेवा का जो सबसे बड़ा काम किया, वह था गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना, जिसका निर्माण उन्होंने जनता से एक-एक पैसा माँग कर किया था। गुरुकुल काँगड़ी के रूप में मूर्तिमती हुई स्वामी श्रद्धानन्द की उज्ज्वल भावनाएँ स्नातक और ब्रह्मचारियों के वेश में अवतार लेती हुई युग-युग देश और समाज की सेवा करती रहेंगी और उनकी ही तरह प्रत्येक व्यक्ति को एक निर्भीक मनुष्य बनने की प्रेरणा देती रहेगी।

आजीवन कर्मव्रती-


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