उद्बोधन (kavita)

October 1965

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जागृत करें सत्य, संयम, दम, शुचिता और विवेक।

आओ चलें करें अपनी नव-संस्कृति का अभिषेक॥

आत्म-भावना का जन-जन में करें पुण्य विस्तार।

हर मनुष्य का हर मनुष्य से बढ़े प्रेम-व्यवहार॥

ममता बढ़े, पवित्र बनें नर, करें सभी शुभ कर्म।

लक्ष्य ही एक हो जीवन का और एक ही धर्म॥

भेद रहे मानव-मानव में ऐसी भी क्या बात।

क्यों न सजायें फिर नव-युग का बन्धन मुक्त प्रभात॥

पर कुरीतियाँ बहुत अधिक फैली हम सबके बीच।

यह विकास की बाधायें ही रहे पतन का सींच॥

यह सच है न किसी से हमको लेना है प्रतिशोध।

दुष्प्रवृत्तियों का करना ही होगा किन्तु विरोध॥

सबके प्रति सम्मान भावना हो सबका साभार।

पर यह भी हो ध्यान किसी का लुटे नहीं अधिकार॥

नारी रहे अभिन्न पुरुष से बढ़े परस्पर प्रीति॥

सुख दुःख के साथी बन निबहें टूटे नहीं प्रतीति॥

पाँव-पाँव, मन-मन, अन्तर से हो पावन सम्बन्ध।

विषय वासनाओं से हों वह दूर और निर्बन्ध॥

बँधे एक विश्वास रज्जु में करें आत्म-कल्याण।

विलग न कर पायें पथ में हों शूल या कि पाषाण॥

व्रतधारी, साधना-निष्ठ हों सभी, राष्ट्र के लोग।

सुख-संपत्ति का न्याय भाव के साथ करें उपभोग॥

विद्यावान् गुणी सुशील सम्भ्रान्त बनें सब साथ।

शक्ति-शौर्य से रहे अलंकृत, उन्नत अपना माथ॥

करके फिर साकार दिखादें ऋषियों की अभिव्यक्ति।

एक हाथ में दीप हमारे एक हाथ में शक्ति॥

--बलरामसिंह परिहार

*समाप्त*


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