निकृष्ट स्वार्थ के विषधर से बचे रहिए

October 1965

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हम जो कुछ जैसा चाहें, वैसा ही हमारे सामने आये, ऐसा सोचना हमारी दम्भपूर्ण मूर्खता तथा स्वार्थपूर्ण भावना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परिस्थितियाँ किसी की गुलाम नहीं, सम्भावनाएँ किसी की अनुचरी नहीं। संयोग किसी के हाथ बिके नहीं हैं। और आकस्मिकतायें किसी के पास बन्धक नहीं हैं। फिर भला हमारा यह सोचना, कि हम जिस प्रकार की परिस्थितियाँ चाहें, वैसी ही हमारे सामने आवें, उपहासास्पद मूर्खता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?

समाज में असंख्यों व्यक्ति रहते हैं। उनकी असंख्य प्रकार की कामनाएँ हो सकती हैं। मनुष्यों की वे कामनाएँ एक दूसरे की विरोधी हो सकती हैं। एक बात जो हमारे लिये अनुकूल हो सकती है, वह दूसरों के लिये प्रतिकूल भी हो सकती है। संसार के सभी व्यक्ति अपनी-अपनी तरह से सुख सुविधाओं की कामना कर सकते हैं। मानिए एक व्यक्ति को एक ऐसे स्थान पर मकान बनाने में सुविधा है, जहाँ से किसी दूसरे की बेपरदगी या असुविधा होती है, तो क्या उसकी वह कामना उचित मानी जायेगी? ऐसी अनुचित कामना के लिए कहना किसी प्रकार भी बुद्धिमानी नहीं है। यदि किसी एक मनुष्य की मनचाही कल्पनाएँ पूरी हो जायँ तो वह किसी दूसरे को सुख सुविधापूर्वक रहने ही न दे। हर काम को अपने अनुकूल कर के दूसरों के लिये जीना ही दूभर कर दे।

अपनी कामनाओं के दर्पण में मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप की झाँकी स्पष्ट रूप से देख सकता है। जिस प्रकार की कामनाएँ किसी मनुष्य की होती हैं, ठीक उसी प्रकार का उसका आचरण होता है। भले ही कोई चतुर व्यक्ति अपनी कामनाओं के विपरीत आचरण दिखा कर अपने चरित्र को तब्दीली के साथ समाज के सम्मुख रक्खे, किन्तु वस्तुतः वह वैसा नहीं होता। यह कृत्रिम आचरण कुछ समय तक तो चल सकता है, किन्तु शीघ्र ही ऐसा दिन आ जाता है, जब कामनायें मनुष्य का सच्चा रूप प्रकट कर देती है। अस्तु मनुष्य को अपनी कामनाओं की विवेचना करके अपने को समझ लेना चाहिये। यदि वास्तव में वह अपने को दोष-पूर्ण पाता है तो उसे सबसे पहले अपना सुधार करना चाहिये। सुधरे हुये व्यक्ति की कामनायें नियन्त्रित रहती है, जिसके फलस्वरूप उसे कम दुःख, परेशानी होती है।

स्वार्थ की अधिकता दुःख का बहुत बड़ा कारण है। यह संसार सबके लिये समान रूप से है। अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार इसके साधनों का उपयोग करने का सब को अधिकार है। जो स्वार्थी है, पहले तो वह हर वस्तु को केवल अपने लिये चाहता है, फिर अधिक से अधिक साधन उचित अनुचित हर उपाय से संचित कर लेता है। इसके बाद भी जब वह अन्य व्यक्तियों को साँसारिक साधनों का उपयोग करता देखता है तो बुरा मानता है, ईर्ष्या करता है। स्वार्थी व्यक्ति को दुनिया की पराई चीज अपनी दीखती है और जब किसी दूसरे को उसका उपयोग करते देखता है तो ऐसा अनुभव करता है, मानो वह व्यक्ति उसकी चीज छीन रहा हो, उसे लूट रहा हो।

स्वार्थी व्यक्ति सबसे बड़ा असहयोगी होता है। एक बार अवसर आने पर कोई शत्रु तो सहयोग कर सकता है, किन्तु स्वार्थी सहयोग करने से अवश्य मुँह फेर जाएगा। इसका स्पष्ट कारण यह है कि स्वार्थी व्यक्ति अत्यधिक संकीर्ण होता है। शत्रुता एक प्रतिक्रिया है, किन्तु स्वार्थ एक संकीर्ण मनोवृत्ति है, एक स्वभाव है, एक संस्कार है। प्रतिक्रिया का वेग शिथिल पड़ सकता है, किन्तु संस्कार अपना प्रभाव नहीं त्यागता, स्वभाव बदलता नहीं और वृत्ति बहुत स्थायी होती है।

इसके विपरीत स्वयं असहयोगी होने पर भी स्वार्थी व्यक्ति संसार में हर व्यक्ति से सहयोग की अपेक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति से अपना काम निकालने की ताक में रहता है। इसके लिये वह अपने स्वाभिमान को बलिदान देकर बेशर्मी तक करता रहता है। उचित, अनुचित, अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े हर तरह के व्यक्ति के सम्मुख दाँत निकालता, गिड़गिड़ाता, खुशामद करता, हाथ जोड़ता और पाँव पड़ता है। स्वार्थी बार-बार धक्के खा कर भी उस द्वार पर नाक रगड़ता है, जहाँ से उसका कोई कुछ स्वार्थ सिद्ध हो सकता है। मतलब के लिये गधे को बाप बनाने वाली लोकोक्ति इसी प्रकार के स्वार्थी व्यक्तियों के लिए ही बनी है।

स्वार्थान्ध व्यक्ति का न तो कोई आदर्श होता है और न नैतिक चरित्र। आज जिससे उसका स्वार्थ अटका है, उसके तलवों की धूल सिर पर चढ़ायेगा। और काम निकल जाने पर ऐसे आँख फेर लेगा, मानो उसे कभी देखा ही न हो। स्वार्थी न केवल स्वयं भ्रष्टाचारी होता है, बल्कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला पापी भी होता है। अपना काम निकालने के लिये रिश्वत देना, भेट चढ़ाना, दावत देना, सैर कराना, स्वार्थी व्यक्ति के बाँये हाथ का खेल है। इससे वह समाज में लोभ लालच का प्रचार करता है, भ्रष्टाचार बढ़ाता है और उस पर लज्जित होने के स्थान पर इसको अपनी व्यवहार नीति समझ कर प्रसन्न होता है।

एक स्वाभिमानी नागरिक के लिये अपने सामान्य अधिकार की रक्षा के लिये भ्रष्टाचार का सहारा लेने से बढ़ कर कोई कष्ट नहीं होता। अपने नैतिक पतन न करने और राष्ट्र के प्रति विश्वासघात न करने के इच्छुक नागरिक के लिये केवल एक ही विकल्प रह जाता है। वह अपने काम को बिगाड़े और अधिकार का त्याग करे। यही कारण है कि समाज में आज धूर्त, मक्कार और भ्रष्टाचारी तो सुख, सुविधाओं में देखे जाते हैं और स्वाभिमानी एवं सच्चे नागरिक कष्ट और परेशानियाँ उठा रहे हैं।

स्वार्थपरता न केवल एक नैतिक अपराध है, अपितु वह एक अध्यात्मिक पाप भी है। स्वार्थी व्यक्ति का लोभ अपनी सीमा पार कर जाता है। वह पाप-पुण्य अथवा लोक परलोक की बावत कुछ सोच ही नहीं पाता। निरन्तर स्वार्थ सिद्ध की दिशा में सोचते-सोचते उसकी आत्मा जड़ या मृत जैसी हो जाती है। उसकी ईश्वरी चेतना पर लोभ का पर्दा पड़ जाता है। स्वार्थी व्यक्ति अपने स्वार्थ साधन में माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री किसी को भी धोखा दे सकता है। मित्रों से विश्वासघात कर सकता है और निर्बलों को सता सकता है। सता सकता ही नहीं, वह दिन-रात ऐसा किया करता है।

बूढ़े माता-पिता को भार समझना, भाई-बहन को भागीदार शत्रु मानना, पत्नी और पुत्र को सेवक मानना और मित्रों को मूर्ख बनाना, उसका स्वभाव बन जाता है। स्वार्थी व्यक्ति की वृत्ति चोर जैसी हो जाती है। वह अपनी सिद्धियों को अपने निकटतम व्यक्तियों से छिपाता है, उन्हें गलत सूचनाएं देता है। साधनों को किसी को मालूम न होने देने के लिये छिपाये रहता है। जो कुछ खाता-पीता अथवा खर्च करता है, वह मित्र तथा परिजनों से छिप कर करता है। सब कुछ होते हुये भी उसका लाभ किसी को भी उठाने नहीं देता।

निरन्तर स्वार्थ साधन के लिये उचित अनुचित उपाय करते रहने से दूषित संस्कारों के रूप में उसके मनो-दर्पण पर ढेरों मैल इकट्ठा हो जाता है, जिनसे वह अन्दर ही अन्दर अशाँत और दुःखी रहता है, और अन्त में जब उसका समय आता है, तब तड़प-तड़प कर इस संसार से विदा होता है। अन्तिम समय में सबकी तरह उसका भी विवेक जागता है और वह उसे विविध प्रश्न कर के उसे अपने किये की याद दिलाता है। विवेक पूछता है, क्या तुमने स्वार्थ साधन के लिये अमुक अनुचित कार्य किया? स्वार्थी की अपराधी आत्मा स्वीकार करती है और पश्चाताप की आग में छटपटाती है। विवेक उसे याद दिलाता है कि क्या तुमने अपने छोटे से स्वार्थ के लिये अमुक विश्वासी मित्र के साथ विश्वासघात नहीं किया? स्वार्थी स्वीकार करता है और ग्लानि की भयंकर आग में जलता है। इसी प्रकार स्वार्थी का विवेक अन्तिम समय में उसको एक एक करके कि ये हुये पापों की याद दिलाता है। जिससे वह घोरतम वेदना, पीड़ा और पश्चाताप के बीच प्राण छोड़ता है। ग्लानि और पश्चाताप ले कर परलोक यात्रा करने वाले को भावनानुसार नरक मिलता ही है। स्वार्थ का पाप मनुष्य को न तो लोक में शुभ काम करने देता और न परलोक में शुभ गति पाने देता है। हर बुद्धिमान व्यक्ति को स्वार्थ के इस भयानक विषधर से अपनी रक्षा करते रहना चाहिये।

धर्मोद्धारक-


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