तटस्थ रहिए- दुःख मत हूजिये

October 1965

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“संसार-दुख-सागर है,”-ऐसी मान्यता रखने वाले प्रायः वे ही लोग हुआ करते हैं, जो अपनी दुर्बलताओं के कारण संसार में सुख दर्शन नहीं कर पाते। उनकी यह मान्यता ही बतलाती है कि वे कितने दुखी रहने वाले व्यक्ति होंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये संसार की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रत्येक परिस्थिति तथा घटना दुःखदायी ही होती है-और होनी भी चाहिये। जिसका विश्वास बन चुका है कि संसार दुःख-सागर है, उसे इस दुनिया में सिवाय दुःख के और क्या हाथ आ सकता है? ऐसी निराशापूर्ण भावना बना लेने वाला जीवन भर रोने, झींकने, चिढ़ाने और कुढ़ाने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? दूसरे को हँसते, खेलते, खाते-पीते, बोलते, बात करते और प्रसन्न रहते देख कर ईर्ष्या करता और मन ही मन जलता रहता है। ऐसे व्यक्ति को औरों का हँसना, बोलना अपने पर व्यंग मालूम होता है, अपना उपहास-सा प्रतीत होता है। हँसना, बोलना ही नहीं दूसरों का रोना धोना भी उसे अच्छा नहीं लगता। किसी का हँसना प्रसन्न होना तो ईर्ष्या के कारण नहीं भाता और खुद के दुःख को उत्तेजित करने के कारण किसी के रोने-धोने में भी बुरा मानता है। निःसन्देह, ऐसे दुःख-प्रवण व्यक्तियों का जीवन एक भयंकर अभिशाप बन जाता है।

दुःखों के कारणों में दुर्भावनायें भी बहुत बड़े कारण हैं। दुर्भावनायें एक भयंकर रोग की तरह हैं। जिसको लग जाती हैं, जिसके हृदय में बस जाती हैं, उसे कहीं का नहीं रखती हैं। दुर्भावना वाले व्यक्ति का जीवन प्रतिक्षण दुःखी रहता है।

दुर्भावनाओं में अधिकतर दूसरों का अहित करने का ही भाव निहित रहता है। दुर्भावनाओं वाला व्यक्ति किसी का थोड़ा सा भी अभ्युदय नहीं देख सकता। किसी के अभ्युदय से अपनी कोई हानि न होने पर भी ऐसा व्यक्ति यही प्रयत्न करता है कि अमुक व्यक्ति की उन्नति न हो, विकास न हो, उसे कोई सफलता न मिले। किन्तु जो प्रयत्नशील है, परिश्रम कर रहा है, उसकी उन्नति तो होती है। ऐसी दशा में रोड़े अटकाने, कोसने अथवा चाहने पर भी जब किसी की उन्नति नहीं रोक पाता तो दुर्भावी व्यक्ति के लिये जलने, कुढ़ने तथा दुःखी होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। इस प्रकार दुर्भावना रखने वाला व्यक्ति दुहरा दुःख पाता है- एक तो किसी का अहित चाहने पर भी उसकी असफलता तथा आत्म-प्रताड़ना दण्डित करती है। दूसरे, जिस का उसने अहित चाहा, उसकी उन्नति उसे दिन-रात चैन न लेने देगी।

दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति अपने निजी सुख के लिये कुछ ऐसे काम भी करने की कामना कर सकता है, जो शासन तथा रामाजडडडड की दृष्टि में अवाँछनीय हों। दुर्भावनायें प्रायः होती ही समाज विरोधिनी हैं। ऐसी दशा है, जब वह दण्ड के भय से उन्हें नहीं कर पाता तो मन ही मन दुःखी होता रहता है और उसके पाले हुये अविचारों के अतृप्त प्रेत उसे प्रति क्षण पीड़ा देते रहते हैं। अविचारी का अपना कोई मित्र नहीं होता। सारा मानव समाज ऐसे व्यक्ति से घृणा किया करता है और ऐसी दशा में किसी का दुःखी न होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?

इसके विपरीत जो व्यक्ति सद्भावना पूर्ण है, जिसके हृदय में दूसरों के लिये हितकर भाव है, जो सबको अपना समझता है, सबके हित में अपना हित मानता है, वह डाह, ईर्ष्या तथा द्वेष से सर्वथा मुक्त रहता है। जिसका हृदय स्वच्छ है, निर्मल है, उसके हृदय में मलीनताजन्य कीटाणु उत्पन्न ही न होंगे। निर्विकार हृदय व्यक्ति को न ईर्ष्या के सर्प डसते हैं और न डाह के बिच्छू डंक मारते हैं। यह सदा सुखी तथा प्रसन्न रहता है।

सबके प्रति सद्भावना रखने वाला बदले में सद्भावना ही पता है, जो उसे सब प्रकार से शीतल और शाँत रखती है। सब के हित में अपना हित देखने वाला प्रत्येक के अभ्युदय से प्रसन्न ही होता है। दूसरों की उन्नति में सहायता करता है और बदले में सहयोग पाकर सुखी व सन्तुष्ट होता है। दुर्भावना तथा सद्भावना रखने वाले दो व्यक्तियों की स्थिति में वही अन्तर रहता है, जो विष से मरणासन्न और अमृत से परितृप्त तथा प्रसन्न व्यक्ति में।

सुख की अत्यधिक चाह भी दुःख का एक कारण है। हर समय, हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिये लालायित रहना एक निकृष्ट हीन भावना है। इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वन्द्वात्मक संसार में हर समय सुख कहाँ? जो सम्भव नहीं उसकी कामना करना असंगत ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है। दुःख उठा कर ही सुख पाया जा सकता है। साथ ही, दुःख के अत्यन्ताभाव में सुख का कोई मूल्य महत्व भी नहीं है। विश्राँति के बाद ही विश्राम का मूल्य है। भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है।

जिस प्रकार आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहा जाता है, इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते है, वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है, वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती है, उस पर पानी चढ़ाती है। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव हो कर एक मृतक तुल्य ही बन कर रह जाये।

सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना, हर्षित होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियाँ सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सी भी कारण उपस्थिति होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले, तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नतापूर्ण वातावरण में किया हुआ अभ्यास अधिक सफल होता है। प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है, वह जल्दी सीखा जा सकता है।

हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इस लिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय गलत बात भी ठीक लगने लगती है और विषाद के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।

किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का एक विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनकमिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो, किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते है, भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।

भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहाँ तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु, भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपना कर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है, किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।

महान कर्मयोगी-

भगवान बाल गंगाधर तिलक

लोकमान्य तिलक का निर्माण जिस पवित्र मिट्टी से हुआ था, वह मानवता के महान तत्वों से बनी थी। अध्ययन, अव्यवसाय, आत्म-विश्वास, अदम्यता और अभय उनके प्रमुख गुण थे। भगवान तिलक के सम्पूर्ण जीवन में एक दिन भी ऐसा न आया, जिसमें उन्होंने लोक सेवा का कार्य छोड़कर कोई अन्य कार्य किया हो अथवा अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये, प्रयत्न के लिये, किसी प्रयत्न में लगे हों। वे लोक सेवा और जनहित के साकार रूप थे। उन्होंने आदि से लेकर अन्त तक विद्या, बुद्धि, बल, वैभव, ओज, तेज, तप और त्याग आदि की जो भी क्षमताएँ उनमें थीं, सबकी सब उन्होंने एक मात्र भारतीय स्वाधीनता तथा लोकोपयोगी कार्यों में ही लगा दीं। भारत-भक्ति और उसकी स्वाधीनता की अभिलाषा उनके जीवन की श्वास-प्रश्वास बन गई थी। वे देश के लिये ही उत्पन्न हुये, देश के लिये ही जिये और उसी के लिये मरे।

“स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का उद्घोष ऊँचा करने वाले लोकमान्य तिलक का सम्पूर्ण जीवन कष्ट तथा सहिष्णुता की एक अविच्छिन्न शृंखला है। उनका परिवार महाराष्ट्र के एक सम्पन्न परिवारों में से था। उसके पास न केवल धन ही था, अपितु अतुलनीय सम्मान भी था। तिलक परिवार के पास अपनी इतनी जमीन जायदाद थी कि उसका हर सदस्य उसके सहारे सुखपूर्वक जीवन-यापन कर सकता था। भगवान तिलक को भी वह सम्पन्न उत्तराधिकार में मिली थी। इसके साथ उनकी स्वयं की प्रतिभा भी इतनी प्रखर, उनका पाँडित्य इतना पूर्ण तथा प्रभाव इतना प्रसारित था कि यदि वे चाहते तो अनन्त धन राशि उपार्जित कर आनन्द और उल्लासपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते थे। उनके लिये यह कोई बड़ी बात न थी कि वे उस समय की अंग्रेज सरकार में ऊँचे से ऊँचा पद पा सकते थे।

किन्तु जो धर्मात्मा मनुष्य की आँखों से मानवता का दुःख देख लेते हैं, उनके जीवन-कोश से विश्राम एवं विलास के शब्द उठ जाते हैं और उनके स्थान पर अविश्राँति तथा बलिदान के शब्द लिख जाया करते हैं।

विश्व-साहित्य की महान कृति के रूप में गीता रहस्य लिखने वाले बाल गंगाधर तिलक ने स्वयं एक स्थान पर कहा है कि उनकी प्रमुख इच्छा जीवन में कवि बनने की थी। किन्तु देश की करुण पुकार ने उनके कवि बनने की इच्छा के अरुणोदय को कर्म तथा कर्मठता के कठोर मध्याह्न में बदल दिया। धर्म की छाया में पली हुई उनकी महान आत्मा ने यह स्वीकार न किया कि जहाँ कि एक ओर अत्याचार से पीड़ित जनता का चीत्कार उठ रहा है, वहाँ दूसरी ओर वे उसके प्रति कान मूँदकर कल्पना के मनोरम उपवन में बिहार करते रहें। जनता के चीत्कार और आत्मा की पुकार पर उन्होंने अपने कवित्व-कामी जीवन को कर्म के महाकाव्य में बदल दिया और देश-भक्ति पूर्ण लोक सेवा के क्रियात्मक गीत गाने प्रारम्भ कर दिये।

उन्होंने देश सेवा के क्षेत्र में जो सबसे पहला काम किया, वह था जन-जागरण के लिये ‘केसरी’ का प्रकाशन। ‘केसरी’ के माध्यम से उन्होंने अपनी ओजस्वी विचार धारा को जन-मानस में पहुँचाना प्रारम्भ किया, जिसने देश की सोती हुई जनता में एक ज्वलन्त जागरण ला दिया। ‘केसरी’ की तीखी टिप्पणियों तथा क्राँतिकारी लेखों से जहाँ एक ओर जन-जागरण हुआ, वहाँ दूसरी ओर अंग्रेज शासन को भय की अनुभूति हुई। और उसके अधिकारियों ने उसके प्रकाशन तथा मुद्रण पर प्रतिबन्ध लगा दिया। किन्तु क्या सरकार का यह अनुचित प्रतिबन्ध लोकमान्य तिलक के उस अमोघ अस्त्र की कुँठित कर सका? छपने-छपाने की कठिनाई हो जाने पर लगन के सच्चे धनी भगवान तिलक ने केसरी की हस्तलिखित प्रतियों को प्रसारित करना प्रारम्भ कर दिया। अपने जनोपयोगी पत्र ‘केसरी’ की जीवन रक्षा में लोकमान्य ने अपने जीवन को कठोर से कठोर कठिनाइयों में भी डालने में संकोच नहीं किया। उन्होंने अनेकों बार उसके लिये सहस्रों रुपयों का द्रव्य दिया और अनेक बार जेल की यातनायें सहीं। जनता के लिए सच्चा लोक सेवक अपने जीवन के हजार दिन भी बलिदान कर देने में लाभ ही देखता है।

भगवान तिलक, एकनिष्ठ कर्तृत्व के कितने बड़े उपासक थे, इसका प्रमाण उनके जीवन की अनेक ऐसी हृदयद्रावक घटनाओं में मिल सकता है, जिनके बीच कोई भी मनुष्य अपना धैर्य खोये बिना नहीं रह सकता। एक बार वे केसरी के लिये लेख लिख रहे थे, तभी डाकिये ने आकर उन्हें एक तार दिया, जिसे पढ़कर उन्होंने नौकर को भीतर दे आने के लिये दे दिया और फिर अपने लेख में लग गये। लेख पूरा होने पर उन्हें पता चला कि भीतर घर में रोना-धोना मचा हुआ है। पूछने पर पता चला कि जो तार उन्होंने भीतर भेजा था, उसमें उनके पुत्र की मृत्यु का समाचार था। धन्य है उस एकाग्रता एवं कार्यरतता को जिसके कारण धैर्य-धुरीण तिलक तार में पुत्र मृत्यु का समाचार पढ़ कर भी विचारों की तल्लीनता में इतने खोये रहे कि उन्हें याद ही न रहा कि अभी तार में उन्होंने क्या समाचार पढ़ा था। जन-हित के विचारों से परिपूर्ण उनके हृदय को मानों अपने कर्तव्य के अतिरिक्त संसार की किसी भी साधारण, असाधारण घटना से कोई सम्बन्ध ही न हो। इसी प्रकार प्लेग की भेंट चढ़े अपने एक पुत्र को चिता पर रख कर आने के तुरन्त बाद वे बिना किसी अतिरिक्त भाव के केसरी के लिये लिखने बैठ गये। शोक-संवेदन के लिये आये हुये उनके मित्रों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा कि क्या आपको पुत्र-मृत्यु का जरा भी शोक नहीं हुआ। धृति धर्म के धनी तिलक ने सहज भाव से उत्तर दिया- महामारी की जिस होलिका में हजारों माता-पिताओं के लाल ईंधन बनते जा रहे हैं, वहाँ मैं भी उसमें एक लकड़ी डालकर चला आया, इसमें शोक की क्या बात थी? मेरे जिस हृदय ने देश की दुर्दशा की पीड़ा अनुभव कर ली है, उसमें अब और किसी पीड़ा के लिये स्थान शेष नहीं है।

मित्रता क्या होती है, सहृदयता किसे कहते हैं और कृतज्ञता का क्या मूल्य है, यदि कोई इसको जानना चाहे तो वह तिलक के उस समय के त्यागपूर्ण साहस को देख ले, जो उन्होंने सरकार की कोपाग्नि से अपने एक सहयोगी को बचाने के लिये दिखाया था। केसरी में प्रकाशित एक लेख के कारण सरकार ने लेखक पर मुकदमा चलाया। यद्यपि वह लेख तिलक का लिखा हुआ न था, तथापि उसे उन्होंने अपना बताकर अभियोग अपने ऊपर ले लिया, जिसके फल-स्वरूप उन्हें छः वर्ष के कठोर कारागार का दण्ड दिया गया। देश के लिये उनकी उपयोगिता देखते हुये, जब उनके हितैषी मित्रों ने उनसे वैसा न करने के लिये अनुरोध किया, तब उन्होंने कहा- जिन्होंने मेरी विचारधारा में योग दिया, ‘केसरी’ में सहयोग किया, उन्हें आपत्ति में फँसा देना कहाँ की मनुष्यता है?

लोकमान्य तिलक जन्मजात धार्मिक थे। इसका कारण उनके घर का धार्मिक वातावरण ही था। इनके पिता गंगाधर तिलक पूर्ण धर्मात्मा, संस्कृत के अखण्ड विद्वान तथा वेद शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन्होंने अपने पुत्र की शिक्षा दीक्षा अपने कुलीन ब्राह्मण वंश के अनुसार ही अपने तत्वावधान में कराई, जिसके फलस्वरूप लोकमान्य तिलक के हृदय में सनातन हिन्दू धर्म की जड़ें बहुत गहराई तक पहुँच गई थीं। धर्म की पवित्रता ने उनकी आत्मा को इतना

परिष्कृत और हृदय को इतना उदार बना दिया था कि सनातन धर्मानुयायी होते हुये भी अछूतों से लेकर मुसलमानों व ईसाइयों के प्रति भी उनके मन में कोई हीन भावना नहीं थी। यही कारण था कि अनेक ईसाई व मुसलमान भी उनके अनुयायी थे। वे अपने विपक्षियों की आलोचना करते हुये भी उनके प्रति द्वेष की भावना न रखते थे।

1880 में विश्व विद्यालय की उच्च शिक्षा पूर्ण करने पर जहाँ लोकमान्य के लिये अपनी व्यक्तिगत उन्नति के अनेक मार्ग खुल गये थे, वहाँ वे निस्वार्थ भाव से देश की सेवा करने के मन्तव्य से उस समय के महान विद्वान, निःस्वार्थ लोक-सेवक और अदम्य पत्रकार श्री विष्णु शास्त्री चिपलुणकर के पास पूना चले गये, और बताया कि वे भोग-विलास और ऐशो-आराम का जीवन बिताने के स्थान पर आजीवन निर्धन रहकर देश-समाज की सेवा करना चाहते हैं। श्री विष्णु शास्त्री ने उनकी भावनाओं का स्वागत किया और उन्हें त्याग तपस्यापूर्ण लोक-सेवा का मार्ग दिखलाया, जिस पर आजीवन चलकर उन्होंने अपने मानव-जीवन को धन्य बनाया।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के राजनीतिक जीवन के कार्यों की यदि गणना न भी कि जाये, तब भी उन्होंने राष्ट्र एवं सामाजिक हित के लिये जो स्थापनाएं कीं, वे ही उनके व्यक्तित्व को महान ही नहीं महानतम बनाने के लिये पर्याप्त हैं।

पूना के हाईस्कूल, डेक्कन एजुकेशनल सोसाइटी, फर्ग्युसन कॉलेज और होमरुल लीग की स्थापना का श्रेय लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को ही है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पड़े अकाल और प्लेग के प्रकोप के समय उन्होंने आपत्ति पीड़ित जनता की जो सेवा की थी, उससे प्रभावित होकर उनकी प्राण-शत्रु ब्रिटिश सरकार ने भी उनकी सराहना की और अनेक सहायक संस्थाओं का भार उन्हें सौंपा।

उन्होंने उस समय भी सरकार की अनुचित अथवा स्वार्थी नीति की आलोचना करना न छोड़ा और स्वयं गाँव-गाँव जाकर प्लेग पीड़ितों की सेवा एवं सहायता की तथा डॉक्टर मित्रों के सहयोग से एक अस्पताल की स्थापना की।

महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश के ‘रत्नागिरि’ नामक नगर तथा 23 जुलाई 1856 के दिन को अपने जन्म से धन्य करने वाले, “स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है,” का नारा देने वाले और भारत ही क्या संसार की ‘गीता रहस्य’ के रूप में गीता के कर्मयोग का रहस्य बतलाने वाले भगवान तिलक ने 1 अगस्त 1920 को संसार से विदा लेकर भारतीय जन-मानस का साम्राज्य प्राप्त किया।


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