अवन्तिका की विशाल जन-सभा समाप्त हो गई थी, थोड़े से बौद्ध भिक्षु और श्रेष्ठि, सामन्त जन शेष रहे थे। यह विचारवान वर्ग था। सब अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान तथागत से करा रहे थे। एक बालक जो अति जिज्ञासु दिखाई देता था, वहीं समीप ही खड़ा था। अवसर मिलते ही उसने पूछा-’भगवन्! संसार में सबसे छोटा कौन है?’ बालक की प्रतिभा देखकर भगवान बुद्ध कुछ गम्भीर हुये और बोले-
“जो केवल अपनी बात सोचता है, अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानता है।”
इन शब्दों में भिक्षुराज ने व्यवहारिक अध्यात्म की रूपरेखा थोड़े और सरल शब्दों में समझा दी है। आत्म-निर्माण का उद्देश्य यह है कि मनुष्य की इच्छायें, लालसायें और मनोवृत्तियाँ उसके निजी सुख और उपभोग तक ही सीमित न रहें, वरन् उनका विस्तार हो। लेने-लेने में ही सब आनन्द नहीं है। जब तक केवल पाने की अभिलाषा रहती है, तब तक मनुष्य बिलकुल छोटा, दीन, असहाय, अकाम और बेकार-सा लगता है। किन्तु जैसे ही उसके शरीर, मन, बुद्धि और सम्पूर्ण साधनों की दिशा चतुर्मुखी होने लगती है, चारों ओर फैलने लगती है, वैसे ही वैसे उसकी महानता भी निखरने लगती है और वह अपने जीवन-लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगता है।
मनुष्य में यह एक बहुत बड़ी कमजोरी है कि वह भाषा, प्रान्त, वर्ण और राष्ट्रीयता के भेद-भाव के साथ अपने आपको शेष समाज से अलग रखने का प्रयत्न करता है। जहाँ पाने की बात आती है, वहाँ नीति धर्म आदर्श और सदाचार की बात रखने में सभी बल देते हैं, किन्तु देने के नाम पर हाथ सिकोड़ते हुये न लज्जा आती है, न संकोच। अपने बच्चों की चोंच में दाना डालने का कार्य तो साधारण पक्षी भी कर लेते हैं, अपनी ही भूख तो हर पशु मिटा लेता है। ऐसी ही धारणायें मनुष्य में भी रहें तो अन्य प्राणियों के सामने उसकी विशेषता कहाँ रही? एक जाति के पक्षी जिस डाल पर बैठे होते हैं, उस पर कोई दूसरी जाति वाला बैठ जाय तो उसकी खैर नहीं होती। कुत्ते अपने सजातीय को खाते हुये फूटी आँखों नहीं देख सकता और उस पर झपटकर बलपूर्वक उसके मुख का टुकड़ा छीनकर खुद खा जाता है। ऐसा ही क्षुद्रतम प्रवृत्तियाँ, बुद्धिधारी मनुष्य की भी हों तो उसे इन पशुओं की कोटि का ही समझना चाहिये। मनुष्य के अन्तःकरण में परमात्मा ने जो विचार पैदा किया है, बुद्धि दी है, ज्ञान दिया है, तार्किक कुशलता दी है, वे सब इसलिये हैं, कि इस श्रेणी पर पहुँचकर अपनी स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के अनौचित्य को समझे और उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी करें।
अपने से दूसरों के साथ सम्बन्ध जोड़े बिना हमारा काम नहीं चल सकता। पेट में भोजन पहुँचता है तो उसका लाभ सारे शरीर को मिलता है। कोई एक अंग ही पोषण पाता रहे और अन्य अंग जीवन तत्व से वंचित रहे तो शरीर का नष्ट हो जाना निश्चित है। परिवार में कमाई करने वाले परिजन होते हैं, वह उस कमाई का अधिकाँश अपने आश्रितों पर व्यय करते हैं। इसमें आत्मिक-विकास की पहली अवस्था का भेदन होता है, यह न हो तो पारिवारिक जीवन में अशान्ति तथा विद्रोह उत्पन्न हो जाय। शरीर और परिवार की तरह समाज, राष्ट्र और विश्व के प्राणी-मात्र हमारी उस आत्मीयता के अधिकारी हैं जैसी हम औरों से चाहा करते हैं। अपनी वर्तमान दुर्गति का कारण यही है कि लोगों की व्यवहारिक गतिविधियाँ स्वार्थपूर्ण हैं। औरों से बहुत चाहते हैं, पर स्वयं कुछ नहीं देना चाहते। इस तरह सामाजिक व्यवस्था में ताल-मेल नहीं बैठता और अव्यवस्था फैल जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये दूसरों को कुछ देना ही होगा। पा भी वही सकता है, जो देता है। मनुष्य जीवित भी इसीलिये है कि वह सदैव से ही देता आया है। सब लोग अपनी-अपनी सम्पत्ति, शक्ति और सामर्थ्यों को चुपचाप दाबते गये होते तो यह जो विस्तार निरन्तर बढ़ता जा रहा है, वह कहीं दिखाई न देता। तब न कोई सभ्यता होती, न संस्कृति। अन्य वन्य-पशुओं की भाँति मनुष्य भटकता फिर रहा होता। धर्म, दर्शन, ज्ञान और आध्यात्मिकता को हम निरन्तर बाँटते चले आते हैं, इसीलिये मनुष्य जाति दिनों-दिन विकास की ओर अग्रसर होती चली जा रही है।
यही विचार प्रत्येक व्यक्ति के लिये उचित है कि आत्मोत्सर्ग की पुण्यता में किसी से पीछे न रहे। हम औरों को दें और विनियम में जो मिले उसे स्वीकार करें, इसी सिद्धान्त पर मानवता विकसित होती चली आती है और आगे भी इसी प्रक्रिया पर विकास का मार्ग प्रशस्त बना रह सकता है। जिन्हें अपनी बुद्धि पर बड़ा अभिमान होता है, जो छल, कपट, मिलावट, बनावट तथा ढोंगपूर्वक केवल अपनी प्रभु-सत्ता बढ़ाना चाहेंगे, उनका मानसिक सन्तुलन कभी भी ठीक न रहेगा। उन्हें कभी किसी की सच्ची आत्मीयता न मिलेगी, कोई प्यार न करेगा, सहायता न देगा, सहानुभूति न प्रदर्शित करेगा। विपुल सम्पत्ति का स्वामी बनकर भी वह अभागा असन्तुष्ट ही बना पड़ा रहेगा। भय, आशंका और आपत्तियों में फँसते वही देखे जाते हैं, जो लेवता होते हैं, देने के सिद्धान्त पर जिन्हें विश्वास नहीं होता।
आत्म-विस्तार सुखी जीवन की पूर्ण मनोवैज्ञानिक पद्धति है। यह तय है कि सुख और शान्ति बाह्योपचारों में नहीं है। सुख मनुष्य की ऊर्ध्वगामी भावनाओं तथा विचारणाओं में पाया जाता है। सद्गुणों के विकास से ही सच्ची शान्ति मिलती है। उनके भाग्य का क्या कहना-जिन्हें इस जगत में औरों का प्यार मिला है, स्नेह प्राप्त हुआ है, सहयोग और ममत्व उपलब्ध हुआ है। उन्हें जरा भी कष्ट होता है तो लोग दौड़े-दौड़े चले आते हैं, मानो यह कष्ट उन्हें ही हुआ हो। सद्गुणशील व्यक्ति के लिये प्रत्येक व्यक्ति की सेवायें स्वतः समर्पित होती हैं। जिन्हें ऐसी आत्मीयता प्राप्त हो, उन्हें भला भौतिक समृद्धियों की क्या कमी रहेगी? साँसारिक लालसाओं से प्रयोजन भी क्या रहेगा?
समाज और संसार तो सदैव ही आपके स्वागत के लिए तैयार है, किन्तु अपनी आत्मा को विस्तृत तो होने दें। उसे खोलिए, चौड़ा करिए, ताकि प्रत्येक मनुष्य उसमें समा जाय। सभी आपके हृदय में अपना स्वरूप देखें। आपका मन औरों की भलाई की भावनाओं से भरा रहना चाहिये। दूसरों के कष्ट को देखकर आपकी आँखें छलक उठें तो विश्वास कीजिये, ऐसी कोई आँख न होगी, जिस में आपकी छाया न बस रही हो। सब आपके कल्याण-कामना के लिये विनीत होंगे। सब आपका सान्निध्य सुख प्राप्त करने के लिये परमात्मा से विनती कर रहे होंगे।
ऐसा न कहिए कि आज तो सारा संसार ही स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों में रत है, फिर हम भी क्यों न वैसा ही करें। यह बात ठीक नहीं है। सामने वाला अन्धा है, इसलिये हम भी अन्धे हो जायें, यह कोई तर्क नहीं है। दूसरे का अनुकरण करना सभ्यता या उन्नति का लक्षण नहीं है। सिंह की खाल ओढ़ लेने से गधा सिंह नहीं हो सकता। कायरतापूर्ण अनुकरण कभी उन्नति की बात नहीं हो सकती। इस से आत्म-विश्वास नष्ट होता है। अपने से ही घृणा होने लगती है। अपना ही अधःपतन होता है। बुराइयों का अनुकरण कभी हितकर नहीं होता, उनसे तो मनुष्य उलटे जंजाल में ही उलझकर अपना स्वत्व खो बैठता है।
मनुष्य का जीवन काल बहुत थोड़ा होता है, किन्तु कामनाओं की कोई सीमा नहीं। इच्छायें कभी पूर्ण नहीं होतीं। भोगों से आज तक कभी आत्म-सन्तुष्टि नहीं मिली, फिर इन्हीं तक अपने जीवन को संकुचित कर डालना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। मनुष्य जीवन मिलता है, देश के लिये, धर्म, जाति और संस्कृति के लिये। बहुत बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिये यह शरीर मिला है। हमें यह बात खूब देर तक विचारनी चाहिये और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिये तपने की, गलने की, विस्तृत होने की परम्परा डालनी चाहिये। आत्म-विस्तार के द्वारा ही मनुष्य वह स्थिति प्राप्त कर सकता है, जिसके लिये मनुष्य जीवन जैसा अलभ्य अवसर मिलता है।