मौत और बीमारी की सुरक्षा

February 1962

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अभी इसी दिसम्बर 61 में ही उत्तर−प्रदेश और बिहार में शीत की लहर आई उसमें समाचार पत्रों में प्रकाशित सूचना के अनुसार लगभग हजार मनुष्य मर गये। सोचता रहा ऐसा क्यों हुआ। ठंड तो जरूर पड़ी थी पर इतनी नहीं थी की इतने अधिक व्यक्ति यों ही बैठे−बैठे लुढ़क जाएँ। मरने वालों की जो संख्या छपी है वस्तुतः वह कम ही होगी क्योंकि छपने लायक सूचनाऐं तो शहर या कस्बों से ही प्राप्त होती हैं। बेचारे अशिक्षित देहाती जो अखबारों की पहुँच से बहुत दूर हैं, ठंड से मरने जैसी मामूली बात को छपने क्यों भेजेंगे। शहर में सम्पन्नता और साधन सामग्री भी अधिक है देहात में गरीबी के साथ−साथ चिकित्सा आदि के साधनों का भी अभाव है ऐसी दशा में उन क्षेत्रों में छपी रिपोर्टों से कहीं अधिक व्यक्ति और भी मरने की संभावना है। इतने हजार व्यक्ति बात की बात में चार−पाँच दिन की ठंड में ठिठुर कर मर गये। इस समाचार से किसी भी विचारशील व्यक्ति को धक्का लगना स्वाभाविक है।

संसार के अत्यन्त ठंडे हिमाच्छादित प्रदेशों में मनुष्य रहते हैं और हँसते−खेलते जीवन धारण किये रहते हैं। उत्तरी ध्रुव सदा बर्फ में ढका रहता है, वहाँ बर्फीली आँधियाँ चलती रहती हैं फिर भी वहाँ के निवासी ‘एक्सिमो’ आनन्दपूर्वक जीवन यापन करते हैं। यूरोप के अनेकों देशों में ठंड बहुत रहती है। रूस का साइबेरिया कितना ठंडा है इसे सब जानते हैं। हिमालय में गंगा के उद्गम गंगोत्री जैसे प्रदेश में तेरह फुट तक बर्फ पड़ जाने पर भी कितने ही व्यक्ति वहाँ निवास करते रहते हैं। फिर ऐसा क्या हुआ कि जरा सी शीत की लहर इतने लोगों को इस प्रकार लुढ़का गई जिस प्रकार फूँक से दीपक बुझ जाता है? चवालीस करोड़ की आबादी के देश में दस हजार मनुष्यों का मरना यों जनसंख्या की दृष्टि से कुछ महत्व नहीं रखता। पर ऐसे मच्छरों की तरह मर जाना तो हमारी शारीरिक दुर्बलता का ही परिचायक है। हमारा सामूहिक स्वास्थ्य कितना दुर्बल हो चला है इसका कुछ पता इस शीत से मरने वालों की घटना को देखकर लगता है। जब इतने मरे हैं तो शीत से बीमार पड़कर अच्छे होने वाले भी इससे कई गुने होंगे। जरा सी ठंड इतने अधिक लोगों को इतना प्रभावित कर सकती है इसमें दोष शीत का नहीं हमारे शारीरिक खोखलेपन का है जिसमें प्रतिकूल परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए आवश्यक जीवनी शक्ति का भंडार शेष नहीं रह गया है।

समाचारों पर इस दृष्टि में सिंहावलोकन करते हुए स्थिति का और भी अधिक स्पष्टीकरण होता है। सितम्बर 60 से करीब सवा साल पहले उत्तर−प्रदेश में हैजा की एक लहर आई थी जिसके कुछ समाचार आँखों के आगे हैं। उझानी की रिपोर्ट है कि सरकारी सूचना के अनुसार अकेले बदायूँ जिले में 797 व्यक्ति हैजा से मरे तथा 1700 से अधिक रुग्ण हुए। इन्हीं दिनों फैले अंत्रशोध रोग के संबन्ध में मरण का एक समाचार है कि इस रोग से 2200 व्यक्ति रोगी हुए और 855 मर गये। स्मरण रहे यह अंत्रशोध रोग अन्य जिलों में भी फैला था और वहाँ भी अनेकों मृत्यु हुई होंगी। इलाहाबाद का एक समाचार है कि इस वर्ष उत्तर−प्रदेश में मोतीझरा रोग काफी फैला हुआ है, कोई डाक्टर ऐसा नहीं जिसके यहाँ इस रोग के रोगियों की भीड़ न हो।

उत्तर−प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री श्री हुकमसिंह ने बताया कि इस बीमारी से प्रान्त में डेढ़ महीने के अन्दर 6498 व्यक्ति मरे और 17753 बीमार पड़े। राज्य के 54 जिलों में से 49 जिलों में से व्याधि से ग्रस्त हुए। विधान परिषद के समाजवादी नेता डा. फरीदी ने आरोप लगाते हुए कहा—सरकार हैजे की घटनाओं को छिपाना चाहती है। इस वर्ष 7 अगस्त तक 22500 व्यक्तियों को हैजा हुआ जिसमें से 7250 मर गये। उत्तर−प्रदेश के चिकित्सा तथा स्वास्थ्य रक्षा सेवाओं के निदेशक डा. कृष्ण मुरारीलाल ने लखनऊ में हुए जिला स्वास्थ्य अधिकारियों के एक सम्मेलन में कहा कि—‟लखनऊ जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों में 50 से 60 प्रतिशत तक लोगों के पेट में केंचुऐ पैदा हो गये हैं और पूर्वी जिलों में विशेष कर आजमगढ़ जिले में लगभग 42 प्रतिशत ग्रामीणों के पेट में गोलाकार कीड़े हैं। यह बात इन क्षेत्रों में किये गये सर्वेक्षण से प्रकट हुई है। इन कीड़ों के पैदा होने से वहाँ के निवासियों की कार्यकुशलता पर जबरदस्त असर पड़ा है।”

यह दो−तीन समाचार उत्तर−प्रदेश के हैं। अन्य प्रान्तों के समाचार पत्र हमारे सामने नहीं है इसलिए उनकी स्थिति ठीक तरह सामने नहीं है। पर अनुमान किया जाता है अन्य प्रान्त भी अछूते न होंगे। उत्तर−प्रदेश भारत के अन्य प्रान्तों की तुलना में कम साधन सम्पन्न नहीं है। यहाँ यह स्थिति है तो अन्य प्रान्तों में इससे अच्छी क्या होगी?

स्वास्थ्य की दुर्दशा का देशव्यापी चित्रण कुछ और समाचारों से भी सामने आता है—कलकत्ता का समाचार है कि—‛पश्चिम बंगाल में तपेदिक के रोगियों की संख्या आज 1943 से तिगुनी हो गई है।’ यह सूचना राज्यपाल कुमारी पद्मजा नायडू ने राज्य भवन में हुई प. बंगाल तपेदिक संघ की वार्षिक बैठक में दी। संघ के महामंत्री डा. के. एन. डे के अनुसार प. बंगाल में लगभग 8 लाख तपैदिक के रोगी हैं।

दिल्ली नगर निगम के कमिश्नर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि दिल्ली में लगभग 20 हजार व्यक्ति तपैदिक से पीड़ित हैं। उसका प्रसार 2.7 प्रति हजार से बढ़कर 4.7 हो गया है। टी. बी. तकनीकों में दर्ज शुदा मरीजों की संख्या 13799 है। तपैदिक केन्द्र की पड़ताल के अनुसार राजधानी में लगभग 30 हजार रोगी हैं। 23 हजार व्यक्तियों के एक्सरे परीक्षण से पता चला कि एक हजार पुरुषों में से 24.5 पर और एक हजार स्त्रियों में से 15.6 पर तपैदिक का काफी प्रभाव था। प्रकाशित समाचार में कहा गया है कि—देश भर में करीब 50 लाख लोग फेफड़े की तपैदिक से पीड़ित हैं यह संख्या देश की जनसंख्या का 1.3 प्रतिशत है। भोपाल में एक तपैदिक अस्पताल का उद्घाटन करते हुए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री करमकर ने कहा—‟तपैदिक के कारण इस समय भारत में प्रतिवर्ष पाँच लाख व्यक्ति मरते हैं।”

तपैदिक की तरह ही कुछ और प्रसिद्ध रोग धीरे−धीरे अपनी जड़ जमाते जा रहे हैं। चंडीगढ़ में पंजाब के मुख्य मंत्री सरदार प्रतापसिंह कैरों ने कहा—‟राज्य में कोढ़ के रजिस्टर्ड रोगियों की संख्या 1778 है। यह भारत के नाम पर एक बड़ा धब्बा है कि संसार भर में कोढ़ के कुल रोगियों में 20 प्रतिशत रोगी भारत के हैं। भारत में इस से पीड़ित रोगियों की संख्या 20 लाख है।”

दिल्ली के नैतिक तथा सामाजिक स्वास्थ्य संघ के तत्वावधान में आयोजित एक गोष्ठी का उद्घाटन करते हुए स्वास्थ्य मंत्री श्री करमकर ने कहा—‛देश में यौन सम्बन्धी संक्रामक रोग बढ़ते जा रहे हैं।’ डा. सुशीला नायर तथा कर्नल अमीरचन्द ने यह विचार प्रकट किया कि तरुणावस्था में लड़के लड़कियों के एक दूसरे के सम्पर्क में आने की परिस्थितियाँ बढ़ जाने तथा नैतिक मापदंड बदलने से इन रोगों का अत्यन्त प्रसार हुआ है।

स्वास्थ्य की इस गिरती हुई स्थिति क लिए सरकार को दोष देना बेकार है। बेचारी सरकार अस्पताल खोल सकती है, टीका लगा सकती है या ऐसे ही कुछ और छोटे मोटे उपचार कर सकती है पर इससे क्या बनने वाला है। अपने स्वास्थ्य की जड़े खोखली करने वाले हम स्वयं हैं। आहार विहार का असंयम ही वह कुदाली है जिससे हम अपने लिए कब्र खोदते रहते हैं । ब्रह्मचर्य का अभाव, जिह्वा का असंयम, नशेबाजी, मानसिक उद्वेग आदि कारण ही हमें दिन−दिन खोखला बनाये चले जा रहे हैं। दरिद्रता एवं पौष्टिक भोजन का अभाव भी एक छोटा कारण है पर है वह छोटा ही, क्योंकि सघन वनों में रहने वाले भील, कोल आदि बहुत ही दरिद्रता का जीवनयापन करते हैं और पौष्टिक भोजन भी प्राप्त नहीं करते, गरीब मजदूर भी कम आमदनी और कई बाल बच्चों के कारण कुछ अच्छी चीजें नहीं खा पाते, फिर भी वे स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हुए स्वास्थ्य को सुरक्षित रख पाते हैं। स्वास्थ्य के बिगड़ने का कारण अपनी बिगड़ी हुई आदतें ही हैं। इन्हें यदि न सुधारा गया तो शरीर की जीवनी शक्ति घटती जायगी और हम भीतर ही भीतर खोखले होते जावेंगे। खोखले शरीर पर मामूली से मामूली विपरीत परिस्थिति भी घातक प्रभाव डाल सकती है और हमें मक्खी मच्छरों की तरह मरने एवं रोग से ग्रसित होकर कराहते हुए मौत के दिन पूरे करने पड़ सकता है।

शीत की लहर, अंत्र शोथ, हैजा, पेट के कीड़े, तपैदिक, कोढ़, यौन रोगों की बढ़ोतरी के समाचार सामने खुले पड़े हैं। इस विभीषिका के पीछे एक ही कारण दीख पड़ता है—स्वास्थ्य का खोखलापन और उसका कारण प्रतीत होता है—अपनी आहार−विहार सम्बन्धी बिगड़ी हुई आदतें। यदि यह न बदली जा सकी तो मौत और बीमारी की सुरसा अपना मुँह फाड़ती ही जायगी। सम्पन्नता बढ़े और पौष्टिक भोजन मिले, सरकार चिकित्सा का प्रबन्ध करे यह भी उचित है, पर काम इतने से ही चलने वाला नहीं है। बुरी आदतें ही जो हमें दिन रात घुन की तरह खोखला बनाती रहती हैं यदि न छोड़ी जा सकीं तो पाचन क्रिया बिगड़ेगी और इस बिगाड़ के बाद पौष्टिक भोजन भी लाभ पहुँचाने की अपेक्षा उलटा अपच पैदा करेंगे। जीवनी शक्ति घट जाने पर शीत की मामूली सी लहर भी हममें से हजारों को लुढ़काती हुई चली जायगी, इसमें बेचारे डाक्टर और अस्पताल हमारी कितनी सहायता कर सकेंगे? यह विचारणीय प्रश्न है।


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