सामूहिक आत्महत्या की तैयारी

February 1962

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मनुष्य की दुर्भावनाऐं जब तक व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहती हैं तब तक उसका प्रभाव उतने लोगों तक सीमित रहता है जितनों से कि उस व्यक्ति को सम्पर्क रह सके। परन्तु जब राज सत्ता और विज्ञान का भी सहारा मिल जाय तो उन दुर्भावनाओं को विश्वव्यापी होने और सर्वग्रही संकट उत्पन्न करने में कुछ भी कठिनाई नहीं रहती। स्वार्थी का संघर्ष, संकीर्णता और अनुदारता का दृष्टिकोण, शोषण और वर्चस्व का मोह आज असीम नृशंसता के रुप में अट्टहास कर रहा है। राजसत्ता और विज्ञान की सहायता से उसका जो स्वरूप बन गया है उससे मानवता की आत्मा थर−थर काँपने लगी है। प्रगति के नाम पर मानव प्राणी का, चिर संचित सभ्यता का नामोनिशान मिटाकर रख देने वाले हथियारों की विशाल परिमाण में जो तैयारी हो चुकी है, उसमें चिंगारी लगने की देर है कि यह बेचारा भूमण्डल बात की बात में नष्ट−भ्रष्ट हो जायेगा। मानव मन की दुर्भावनाओं की घातकता अत्यन्त विशाल है, 24000 मील व्यास का यह नन्हा सा पृथ्वी ग्रह उसके लिए एक ग्रास के बराबर है।

50 मेगाटन बम

इस 6 अक्टूबर को रूस ने जो 50 मेगाटन अणुबम का विस्फोट परीक्षण किया उससे सारे संसार में तहलका मच गया है। वैज्ञानिकों को कथन है —‟ऐसा बम जहाँ भी गिरेगा वहाँ 400 फुट गहरा और 10 मील लम्बा चौड़ा गड्ढा बन जायेगा और सात मील क्षेत्र में एक भी प्राणी जीवित न बचेगा। वैज्ञानिक रस्क लैप ने कहा है कि एक ही मेगाटन बम सारे वाशिंगटन के सर्वनाश के लिए काफी है। इसके अलावा नगर में 10 मील दूर तक की इमारतों की दीवारें नष्ट हो जावेंगी। 5−6 मील तक फौलाद की बनी इमारतें भी न बच सकेंगी। इसके अलावा तीस मील तक के घेरे में लोगों को ऐसा घायल कर देगा जो बाद में तड़प−तड़प कर मर ही जायेंगे।” यह तो एक मेगाटन बम की बात हुई। पचास टन का बम तो इससे भी पचास गुना संहार करेगा। उसके सम्बन्ध में डाक्टर लैप ने कहा है कि—‟पचास मेगाटन का एक हाइड्रोजन बम यदि व्हाइट हाउस पर गिरे तो उससे 10 से 20 हजार वर्ग मील तक के क्षेत्र के लोग उसकी रेडियो सक्रियता से प्रभावित हो जावेंगे। इस बम के विस्फोट से जो आग की लपटें उठेंगी वे सात मील के घेरे में होंगी। यदि इस बम का परीक्षण अटलांटिक सागर में किया जाय तो उससे ध्रुव क्षेत्र की सारी बर्फ पिघल जायगी और समुद्र भीषण रूप से उफन पड़ेंगे।”

उपरोक्त प्रकार का एक परीक्षण करने पर अमरीका ने उससे भी दस गुना शक्ति शाली 500 मेगाटन का बम बनाने की धमकी दी है, जो एक ही सारी पृथ्वी के वातावरण को विषाक्त एवं प्राणियों के न रहने योग्य बनाने के लिए पर्याप्त है। अमेरिका ने 20 से 25 मेगाटन के ‘स्टेंडर्ड बम’ बनाने का तो निश्चय कर भी लिया है।

भयानक रेडियो विकरण

रसायन शास्त्र के अमरीकी नोबुल पुरस्कार विजेता प्रो. लीनस पालंग ने अपनी योरोप यात्रा करते हुए केम्ब्रिज में एक वक्तव्य देते हुए कहा— “वर्तमान अणु परीक्षणों से वातावरण में जो रेडियो विकिरण की वृद्धि हो रही है उससे दस लाख व्यक्ति केन्सर से पीड़ित हो जाएँगे। और आने वाले वर्षों में 30 लाख तक बच्चे ऐसे ही केन्सर से पीड़ित जन्मेंगे।”

न्यूयार्क 2 नवम्बर का समाचार है कि अमरीका शीघ्र ही ‘एम.बम’ का परीक्षण करेगा। यह मृत्युकिरण न्यूट्रान बम होगा जो सैनिकों को बिना कष्ट के नष्ट करेगा। लोग जहाँ के तहाँ बैठे के बैठे रह जाएँगे और उनके जीवन का अन्त हो जायेगा। किन्तु मकान तथा अन्य सामान ज्यों के त्यों सुरक्षित रहेंगे।” इस मृत्यु बम के बारे में आजकल अमेरिका में घर−घर चर्चा है । ‘न्यूयार्क वर्ल्ड टेलीग्राफ’ पत्र ने तो पूरे एक पृष्ठ का लेख छापकर इस बम की भीषणता चित्रित की है।

एक से एक बढ़कर

कुछ दिन पूर्व इंग्लैण्ड के वैज्ञानिकों ने घोषणा की थी कि उन्होंने एक ऐसा विष तैयार कर लिया है जिसकी आधा सेर मात्रा हवा में उड़ा दी जाय जो सारी दुनियाँ की मृत्यु हो सकती है। पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा एक मृत्यु पट्टी बनाये जाने का रहस्योद्घाटन जिस दिनों हुआ था उन दिनों उस मृत्युकिरण की भी जानकारी प्रकट हो गई थी जिसके कारण किसी लम्बे प्रदेश को भी ऐसा विषाक्त बनाया जा सकता है जिसमें प्रवेश करने मात्र से कोई जीवित न रहे।

दार्शनिक रसेल ने अणु विरोधी आन्दोलन के संदर्भ में बताया है कि जितने अणु परीक्षण अब तक हो चुके उनकी रेडियो सक्रियता भी इतनी घातक है कि उसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक लाखों−करोड़ों मनुष्यों को भुगतना पड़ेगा। फिर यदि यह परीक्षण आगे और भी जारी रखे गये तो युद्ध न होने पर भी इन परीक्षणों से ही मानव जाति के सामने स्वास्थ्य सम्बन्धी भयंकर संकट उत्पन्न हो जायेगा और उसका दुष्परिणाम अनेक पीढ़ियों तक भुगतना पड़ेगा।

सन् 1945 में जापान के हिरोशिमा नगर पर पहली बार एक छोटे से अणुबम का प्रयोग किया गया था जिससे एक ही मिनट में 80,000 व्यक्ति तत्क्षण मर गये थे। घायल, अपंग, विकलांग और बाद में मरने वालों की संख्या इनसे बहुत बड़ी है। 16 वर्ष बीत जाने पर भी जापानी अभी वहाँ की रेडियो सक्रियता से हानि उठा रहें हैं और आगे पीढ़ियों तक उठाते रहेंगे। अब इन आयुधों में जो उन्नति हुई है उसे देखते हुए हिरोशिमा वाला वह बम खिलौना मात्र प्रतीत होता है। रूस द्वारा अभी−अभी परीक्षण किया हुआ 50 मेगाटन का बम उसकी अपेक्षा किया 2500 गुना अधिक संहारक है। भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाक्टर कोठारी ने 125 मेगाटन के तब तक हुए अणु परीक्षणों के प्रभाव का हिसाब लगाकर बताया है कि — “ जो हो चुका उतने मात्र से अगले तीस वर्षों में 1,50,000 से अधिक लोग काल के ग्रास बनेंगे इसी अवधि में 5 लाख अतिरिक्त व्यक्ति हड्डी के ट्यूमर से मरेंगे।” लेकिन अब तक तो 170 मेगाटन के परीक्षण तो अकेला रूस ही कर चुका, यह हिसाब तो 125 मेगाटन का ही है। आगे जो परीक्षण होने वाले हैं उनकी हानि का तो अनुमान भी कठिन है फिर यदि कहीं इनका प्रहार भी होने लगा तब तो सर्वनाश के दृश्य ही उपस्थित होंगे।

बारूद का अपार भण्डार

इसी 10 जनवरी को ब्रिटिश अणु वैज्ञानिक तथा नोबुल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर पी. एम. एस. ब्लैंकट ने बम्बई में बताया है कि— “अमरीकी अणु आयुधों का भण्डार अगर एकत्रित किया जाय तो दुनियाँ के हर स्त्री पुरुष तथा बच्चे को 20 टन डाइना माइट बारूद मिल सकती है। और रूसी अणु आयुध भी इससे किसी तरह कम नहीं है।” रूस और अमेरिका दो देशों की ही बारूद पृथ्वी के हर मनुष्य के हिस्से में 40 टन आती है। सारी पृथ्वी के अन्य देशों की कुल मिलाकर इससे आधी अर्थात् 20 टन बारूद की औसत और मान लिया जाय तो हर व्यक्ति के हिस्से में 60 टन बारूद आवेगी। 60 टन अर्थात् 60×27 टन = 1635 मन। एक मनुष्य की खुराक बच्चे बुड्ढ़े और बीमार और स्वस्थ का औसत लगाकर 8 छटाँक अन्न की भी मानी जाय तो 4॥ मन वार्षिक के हिसाब से करीब 350 वर्षों तक खाते रहने के लिए यह डायनामाइट बारूद ही पर्याप्त हो सकती है।

जब कि संसार के करोड़ों व्यक्ति अन्न के अभाव और भुखमरी से पीड़ित हैं तब मनुष्य की दुर्बुद्धि उन अभावों को दूर करने में लगाया जा सकने वाला पैसा, श्रम एवं बुद्धिबल इस प्रकार संहारक कार्यों में खर्च करने के लिए लगा रही है। बारूद अन्न से तो अवश्य ही महँगी होती है। जिस बुद्धि ने 350 वर्षों तक हर आदमी के हिस्से में आध सेर बारूद खाते रहने लायक भण्डार जमा कर लिया क्या वह उतना उत्पादन अन्न का नहीं कर सकती थी? मृत्यु के साधन जुटाने में जितना प्रयत्न हुआ है क्या उतना जीवन को बढ़ाने और सुसंस्कृत बनाने के लिए नहीं किया जा सकता था?

युद्ध और उसका कारण

जिन कारणों को लेकर युद्ध होते हैं उन कारणों को मिटाने के लिए लोग तैयार नहीं, उन कारणों की प्रतिक्रिया रोकने के लिए बारूदी हथियार जमा करते जाते हैं। समर्थ लोग असमर्थों को अपने पैरों तले कुचल कर उनका रक्त शोषण करने के लिए भेड़ियों की तरह लालायित हो रहे हैं। सताये हुए लोग उफ न करें ऐसा हो नहीं सकता। प्रतिरोध को रोकने के लिए कोई नैतिक आधार तो उनके पास है नहीं, बारूद से भून डालने की धमकी ही उचित प्रतीत हो रही है। इस नीति को अपनाये रहने से बाहर की शान्ति कुछ दिनों रखी जा सकती है पर भीतर सुलगने वाला असंतोष विस्फोट का रूप धारण करता ही रहेगा। अब तो युद्ध का वातावरण बनाये रहना भी एक सुव्यवस्थित व्यापार बन गया है।

बर्कले (केलिफोर्निया) में रसायन वैज्ञानिक डा. लाइनस ने बताया कि—अमरीकी उद्योग को 5 अरब डालर वार्षिक तक मुनाफा होता है। यह कारण भी उसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय तनाव कायम रखने के लिए एक आकर्षक तत्व है। अमेरिका 41 अरब डालर वार्षिक प्रतिरक्षा पर खर्च करता है।

इन तथ्यों के रहते शान्ति कैसी?

जाति विद्वेष, शोषण, साम्राज्य, अन्याय एवं असमानता की भावनाऐं राजसत्ता का आश्रय पाकर विश्व के कोने-कोने में रोमांचकारी कुकृत्य करा रही हैं। नैरोवी (अफ्रीका) के समाचार हैं कि पुर्तगाल के साम्राज्यवादी अंगोला में अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए 50 हजार से अधिक अफ्रीकियों का कत्ल कर चुके। उनकी योजना भी 1॥ लाख और अफ्रीकियों को कत्ल करने की है। अल्जीरिया में फ्राँस ने, तिब्बत में चीनियों ने लाखों निर्दोष व्यक्तियों को इसलिए भून डाला कि वे विदेशी जुए को कंधे पर रखने के लिए तैयार नहीं हुए। फिलिस्तीन में जर्मनी के निर्दयी आइखमैन पर जो मुकदमा चला उसमें प्रकट हुआ कि 60 लाख यहूदी केवल जाति विद्वेष के नाम पर भयंकर यातनाऐं देकर कत्ल किये गये। कांगो, लाओस, द. वियतनाम, क्यूबा, अफ्रीका, कोरिया, मिश्र आदि में पिछले दिनों जो हुआ है तथा अब जो हो रहा है उसे समाचार पत्रों के पाठक भली−भाँति जानते हैं। भीतर ही भीतर जो अशान्ति सर्वत्र सुलग रही है, वह इन प्रकट घटनाओं से भी अधिक भयंकर और महत्वपूर्ण है।

सद्भावनाओं का आश्रय

भीतर ही भीतर सुलग रही विश्वव्यापी अशान्ति और सामने प्रस्तुत सत्यानाशी युद्ध विभीषिका का अन्त कैसे हो सकता है? इस प्रश्न पर विचार करते हुए एक ही सत्य सामने उपस्थित होता है कि मानवी बुद्धि को दुर्भावनाओं की कीचड़ में से निकाला जाय तो ही समस्याओं का सुलझ सकना संभव है। दुर्बुद्धि के दलदल में फँसी हुई मानव जाति अपना उद्धार केवल एक ही प्रकार कर सकती है और वह है—सद्भावनाओं का आश्रय, अनीति को छोड़कर नीति को अपनाने से ही हमारा कल्याण हो सकता है। स्वार्थ और संकीर्णता के दायरे में सोचने के अपेक्षा सब के हित और उदारता की, न्याय, भ्रातृत्व और समानता की दृष्टि को जिस दिन हम सब अपनाने लगेंगे उसी दिन विश्वव्यापी संकट दूर होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमारे मस्तिष्क विनाश की घातक चालों में ही लगे रहेंगे और उनका दुष्परिणाम एक−न−एक दिन सामूहिक आत्महत्या के रूप में हमारे सामने उपस्थित होगा ही।


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