मेरी नाव के सँग विरुद भी तुम्हारा,
सँभालो नहीं डूबने जा रहा है।
न फिर दोष देना कि—मैं क्षीरनिधि की,
सजल क्रोड़ में कुछ अलस सो रहा था।
प्रणय−पाश में या कि पद्मा प्रिया के,
पड़ा मैं हृदय की व्यथा धो रहा था।
न फिर दोष देना कि कातर स्वरों में,
व्यथित हो, पतित ने, पुकारा नहीं था।
अभय−बाँह वाली मधुर मूर्ति को,
अर्चना−अश्रुओं से पखारा नहीं था।
धधकते हुए वेदना के प्रभंजन,
चले आ रहे हैं लिए अग्निमय खन
विकल श्वाँस की गति शिथिल पड़ चली है,
नयन से सतत ढल रहे अश्रु के कन॥
मेरी श्वाँस के सँग सुयश भी तुम्हारा,
सँभालो नहीं टूटने जा रहा है।
मेरी नाव के सँग विरुद भी तुम्हारा,
सँभालो नहीं डूबने जा रहा है।
(डा. राजकुमार पाण्डेय ‘कुमार’)