हमारा जीवन ‘दिव्य’ क्यों नहीं हो पाता?

November 1959

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(श्री0 भगवानसहाय वाशिष्ठ)

संसार में जन्म लेकर मनुष्य जिस प्रकार चाहे वैसा जीवन बिताने को स्वतंत्र है। जो लोग भाग्य अथवा ईश्वरवाद का यह अर्थ करते हैं कि हम तो कर्म करने में परतंत्र है जैसा कर्म हमसे ईश्वर या भाग्य कराता है वैसा ही करते हैं वे प्रायः सभी धोखेबाज या आत्म वंचक होते हैं। वे अपने कुकर्मों और निर्बलताओं पर पर्दा डालने के लिये एक बहाना ढूंढ़ लेते हैं। इस बात को सभी मनुष्य कहते हैं कि मनुष्य जीवन पशु-पक्षियों के जीवन से श्रेष्ठ है और उसका मूल्य भी बहुत अधिक है। पर वे ही मनुष्य ऐसे नीच कर्म करते हैं जैसे पशु-पक्षी भी नहीं करते। फिर ऐसे मनुष्यों के कार्यों का उत्तरदायित्व किसके ऊपर रखा जाय? जब भगवान ने आपको पशु-पक्षियों की योनियों से निकाल कर मनुष्य योनि में जन्म दिया तब उसका आशय यह तो कदापि हो ही नहीं सकता कि वह पशुओं से भी निकृष्ट श्रेणी के कार्य करे मनुष्य जीवन का उद्देश्य काफी ऊँचा रखा गया है और मावन-जन्म को देवत्व प्राप्त करने का साधन बताया गया है, ऐसी दशा में जो व्यक्ति दैवी जीवन प्राप्त करने योग्य कर्म नहीं करता वह अपने कर्तव्य से विमुख समझा जायगा। यह उद्देश्य कैसे सिद्ध हो सकता है इस सम्बन्ध में एक विचारक का मत है-

“इस श्रेय की प्राप्ति के लिये मनुष्य के भीतर शुद्ध विवेक का होना आवश्यक है। हमें यह निर्णय करना चाहिये कि हमारा और दूसरों का कल्याण किस बात में है। हमें देश, काल, प्रसंग और परिस्थिति का ज्ञान होना चाहिये। इस ज्ञान और शुद्ध विवेक बुद्धि से हम प्रत्येक कठिन अवसर पर यह जान सकते हैं कि हमारा कर्तव्य, हमारा धर्म क्या है, और यदि हम में दृढ़ता, निग्रह और संयम शक्ति हो तो हम अनुचित कर्म और अधर्म से बच सकते हैं। विवेक के साथ यदि हमारे भीतर संयम शक्ति और दृढ़ता न हो, तो केवल विवेक से हम अपना कल्याण नहीं साध सकते। वह हमें अकर्त्तव्य और अधर्म से नहीं बचा सकता। अच्छे बुरे संस्कारों के अनुसार हमारे मन के प्रवाह चलते हैं और बहुत हद तक हम उसी के अनुसार कर्म करते हैं। उनमें से बुरे प्रवाहों मनोवृत्तियों -और कर्मों को रोकना संयम का काम है। मनुष्य की शारीरिक, बौद्धिक ओर मानसिक शक्तियों का जैसे जैसे विकास होता जाय, वैसे वैसे उसकी संयम शक्ति भी बढ़ती जानी चाहिये। उसके इस प्रकार बढ़ने से ही मनुष्य उन शक्तियों का सदुपयोग करके अपना कल्याण कर सकता है। जिस प्रकार रेलगाड़ी की चाल बढ़ाने की युक्ति तो मालूम हो जाय, पर ठीक समय पर उसे रोकने की तरकीब न सीखी हो, तो ऐसी गाड़ी में अवश्य अनर्थ होगा। उसी प्रकार यदि अपनी बढ़ती हुई शक्तियों को मनुष्य वश में ने रख सके तो निश्चित है कि वे शक्तियाँ उसके और मानव-समाज के नाश का कारण बनेंगी। इसलिये हमारी बढ़ती हुई शक्तियों के साथ हममें विवेकयुक्त संयम की वृद्धि होनी चाहिये। इस संयम की सहायता से हम अपने मन को शुद्ध कर सकते हैं अपने विकारों और दुष्ट वृत्तियों को रोक सकते हैं और अनुचित कर्मों से बच सकते हैं। संयम से हमारा चित्त निर्मल होता जायगा और यह निर्मलता संयम-शक्ति को बढ़ायेगी। इस प्रकार इन दोनों गुणों का विकास एक-दूसरे की सहायता से होता रहेगा। उनके विकास के बिना हमारा व्यवहार शुद्ध नहीं हो सकता। अतः जीवन शुद्धि के लिये व्यवहार शुद्धि का होना अनिवार्य है दिव्य जीवन प्राप्त करने का यही मार्ग है।

दूसरी बात जिसकी आवश्यकता जीवन की शुद्धि और उसे धर्मयुक्त बनाने के लिये है, वह है सद्गुणों और सत्कर्म का अभ्यास। बहुत से मनुष्य सद्गुणों को स्वाभाविक समझकर उनके लिये किसी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं समझते, पर यह विचार ठीक नहीं कहा जा सकता। सद्गुण उद्योग और अभ्यास से ही प्राप्त होते हैं। यों कहने के लिये कितने ही व्यक्तियों में सद्गुणों के अंकुर दिखाई पड़ते हैं, पर जब मनुष्य यथोचित प्रयत्न करके उन्हें दृढ़तापूर्वक धारण न करे तब तक उनके द्वारा सत्कर्म होना सम्भव नहीं होता। सत्कर्म ही इस बात की कसौटी है कि सद्गुण हमारे भीतर भली प्रकार जड़ जमा चुके हैं। वे यद्यपि सद्गुण पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं पर बिना सद्गुणों के कोरा पुरुषार्थ मनुष्यों में आसुरी भाव की वृद्धि करता है। इससे उनमें स्वार्थ भाव की वृद्धि हो जाती है और वे दूसरों को कष्ट देने वाले बन जाते हैं। अतः शुद्ध व्यवहार, और सद्गुण युक्त पुरुषार्थ ही मानव जीवन की पूर्णता के लक्षण हैं और ऐसे ही जीवन को दिव्य जीवन कहते हैं। पर खेद का विषय है कि इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहने और सुनने पर भी आचरण की दृष्टि से हमारे देश की स्थिति शोचनीय ही है। इस सम्बन्ध में एक विद्वान के निम्न उद्गार विचारणीय हैं-

“हम जब दिव्य जीवन या आध्यात्मिक जीवन के विषय में बोलते या लिखते हैं, तब हमारे संस्कारों के अनुसार हम अपने दार्शनिक, आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों का अपने यहाँ के प्राचीन ऋषि, मुनियों, अवतारों, पूर्वजों आदि का बड़े गौरव और अभिमान के साथ वर्णन करते हैं। वे निस्सन्देह सब गौरव और अभिमान के योग्य हैं, परंतु उस गौरव तथा अभिमान के साथ हमको अपनी वर्तमान दशा का भी विचार करना चाहिये। साथ ही हमको इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिये कि बार-बार भारत भूमि में ही ईश्वर के अवतार क्यों होते हैं? हमारे महान ग्रंथों में लिखा है कि पाप बढ़ जाने पर ही ईश्वर अवतार लेता है। तो भारत भूमि में ही बार-बार ईश्वर के अवतार होने पर भी यहाँ की जनता आज तक ऐसी अवनति की दशा में क्यों है ? ज्ञान से भरे हुये अनुपम ग्रंथ, हमारी प्राचीन उच्च संस्कृति, महापुरुषों की अखंड परम्परा यह सब उत्तराधिकार में मिलने पर भी आज हमारी ऐसी घोर दुर्दशा क्यों हो गई है ? मान लें कि आज हम अपने प्राचीन धर्म के अनुसार आचरण नहीं करते, पर हजार वर्ष पूर्व या उससे भी पहले तो हम धर्म के अनुसार आचरण करते थे। परन्तु ऐसा करते हुये भी प्रत्येक विदेशी आक्रमण के अवसर पर हमको पराजय का मुख ही क्यों देखना पड़ा ? हम मानते हैं कि दुनिया के दूसरे लोगों की अपेक्षा हम अधिक धार्मिक और सुसंस्कृत हैं, तत्वज्ञान का हमारे देश में सब से अधिक विकास हुआ है, मोक्ष के बारे में सबसे अधिक हमने ही विचार किया है। पर इन बातों के होते हुये भी हम व्यवहार में दूसरे देशवालों की अपेक्षा अधिक बेईमान और स्वार्थी क्यों हैं? अपने देश बन्धुओं को लूटकर, उन्हें चूस कर, उनका शोषण करके, खुद सुखी होने की समाज घातक प्रवृत्ति हमारे देश भाइयों में सर्वत्र क्यों दिखलाई पड़ती है? पुनर्जन्म और परलोक में श्रद्धा रखने वाले, मोक्ष और ईश्वर आदि के विषय में आस्तिक बुद्धि रखने वाले हम लोग प्रत्यक्ष जीवन में असत्य का आचरण क्यों करते हैं? आज इस भारत देश में लाखों क्या करोड़ों लोग ऐसे है जिन्हें पेट भर खाना नहीं मिलता, पहनने को पूरे कपड़े नहीं मिलते, रहने को घर तो क्या झोंपड़ी भी नहीं मिलती। करोड़ों बालक बिना दूध के रहकर जैसे तैसे जीते हैं और बड़े होते हैं। ऐसी स्थिति में भी देश द्रोही लोग तरह-तरह के पाप कर्म करके लखपति और करोड़पति बनते रहते हैं। चोरबाजारी करने वाले, रिश्वत लेने वाले, माल में मिलावट करने वाले, उचित टैक्स की चोरी करने वाले लोग धन के साथ मान प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में हमारा दिव्य जीवन का विचार कैसे सफल हो सकता है?”

कोई भी सत्य प्रेमी और न्यायशील व्यक्ति ऊपर की बातों की सचाई से इनकार नहीं कर सकता। तो फिर इसका कारण यही है कि हम लोगों का धर्म और तत्व ज्ञान अधिकतर कहने तक ही सीमित रहा है उस पर व्यवहार बहुत कम किया गया है। अथवा जो लोग उस पर विश्वास रखते हैं और आचरण करते हैं, वे सामाजिक जीवन को त्याग कर एकान्तवासी और त्यागी साधु संन्यासी बन जाते हैं और उनके उदाहरण का समाज में रहने वाले गृहस्थी जनों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिये जब तक सत्य, न्याय सद्गुण और सत्कर्म की बातों को लोगों के दैनिक जीवन में सम्मिलित न किया जायगा तब तक कोई वास्तविक परिणाम दिखलाई पड़ना संभव नहीं है। इसके लिये सामाजिक संगठन में गहरे परिवर्तन की आवश्यकता है और हमारी शिक्षा का जड़मूल संस्कार होना भी जरूरी है। हम लोग आशा करते थे कि विदेशी शासन के हट जाने और स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाने पर ऐसे ही धर्म के सच्चे नियमों के आधार पर प्रतिष्ठित समाज का निर्माण किया जायगा, पर अभी तक उसके लक्षण दिखलाई नहीं पड़ते। आर्थिक और राजनीतिक विषयों में तो प्रगति की कुछ चेष्टा की भी जा रही है, पर धार्मिक, सदाचार और नैतिक विषयों में उलटा कुछ पतन ही दिखलाई पड़ रहा है। इसके कितने ही कारण बतलाये जाते हैं, पर सबसे बड़ा करण तो यही है कि हमारे समाज के अधिकाँश व्यक्तियों में अनीति और चरित्र हीनता ने प्रवेश कर लिया है और वे एक दूसरे की कमजोरी छुपाने ओर दबाने की कोशिश करते रहते हैं। जब समाज के साधारण जनों में ही नहीं उसके कर्णधारों तक में ऐसे दोष पैदा हो जाते हैं तो उसका उद्धार बड़ा कठिन होता है। इसमें तो सन्देह नहीं कि हमारी संस्कृति में दैवी गुणों का समावेश है और अब भी उसका बीज नष्ट नहीं हुआ है, इसलिये यदि कोई सच्चा और सद्गुणी नेता समाज को दैवी-जीवन के पथ पर चलाने का निश्चय कर लेगा और उसके हाथ में शक्ति भी होगी, तो यह उद्देश्य सफल हो सकेगा।


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