स्वर-विज्ञान और स्वास्थ्य-रक्षा

November 1959

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(श्री स्वामी निगमानन्द सरस्वती)

भगवान ने मनुष्य जन्म के समय से ही देह के साथ एक ऐसा आश्चर्यजनक अपूर्व उपाय रच दिया है जिसे जान लेने पर प्रायः किसी भी साँसारिक विषय में असफलता का दुख नहीं हो सकता। चूँकि अधिकाँश मनुष्य इस उपाय को नहीं जानते और न उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करते है, इसी कारण अनेक कार्यों में उनको सफलता प्राप्त नहीं होती, इस विषय का विवेचन जिस शास्त्र में किया गया है उसे स्वरोदय शास्त्र कहते हैं। स्वर-शास्त्र प्रत्यक्ष फल देने वाला है। मुझे पद पद पर इसका आश्चर्यजनक फल देखकर आश्चर्य चकित होना पड़ा है।

जीव के जन्म से मृत्यु के अंतिम क्षण तक निरन्तर श्वास प्रश्वास क्रिया होती रहती है और यह श्वास नासिका के दोनों छेदों से एक ही समय एक साथ समान रूप से नहीं चला करता, कभी बाँये ओर कभी दाहिने पुर से चलता है। कभी-कभी एकाध घड़ी तक दोनों छेदों से समान भाव से भी श्वास प्रवाहित होता है बाँये नासापुर के श्वास को ‘इड़ा’ में चलना, दाहिनी ओर से चलने को पिंगला में चलना, और दोनों पुरों से समान भाव से चलने पर उसे सुषुम्ना में चलना कहते हैं। एक नासापुर को दबा कर दूसरे के द्वारा श्वास को बाहर निकालने से साफ मालूम हो जाता है कि एक नासिका से सरलतापूर्वक श्वास प्रवाह चल रहा है और दूसरा नासापुर प्रायः बन्द है अर्थात् उससे अन्य नासापुर के समान सरलता से श्वास बाहर नहीं निकलता। जिस नासिका से सरलतापूर्वक श्वास बाहर निकलता हो, उस समय उसी नासिका का श्वास कहना चाहिये। क्रमशः अभ्यास होने पर बहुत आसानी से मालूम हो जाता है कि किस नासिका से श्वास प्रवाहित हो रहा है। यदि मनुष्य का स्वास्थ्य स्वाभाविक दशा में हो और रहन सहन प्रकृति के अनुकूल हो तो प्रतिदिन प्रातः काल सूर्योदय के समय से ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से एक-एक नासापुर से क्रमानुसार श्वास चलता है। इस प्रकार रात दिन में बारह बार बायीं और बारह बार दाहिनी नासिका से श्वास चलता है। इस श्वास प्रश्वास का क्या प्रभाव होता है इस सम्बन्ध में शास्त्र में कहा गया है-

वहेत्तावद् घटी मध्ये पंचतत्वानि निर्दिशेत

(स्वर शास्त्र)

प्रतिदिन रात-दिन 60 घड़ियों में ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से स्वर परिवर्तन होने से क्रमशः पंचतत्वों का उदय होता है। इस श्वास-प्रश्वास की गति को समझ कर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घजीवी होता है। फलस्वरूप समस्त साँसारिक कार्यों में सफलता मिलने के कारण सुखपूर्वक संसार यात्रा पूरी होती है।

वाम नासिका का श्वास फल

जिस समय इड़ा नाड़ी अर्थात् बायीं नासिका से श्वास चलता हो उस समय स्थिर कर्मों को करना चाहिये, जैसे अलंकार धारण, दूर की यात्रा, आश्रम में प्रवेश, मकान बनाना, द्रव्यादि का ग्रहण करना तालाब, कुआँ, जलाशय आदि की प्रतिष्ठा करना। बायीं नाक से श्वास चलने के समय शुभ कार्य करने पर उन सब कार्यों में सिद्धि मिलती है।

दक्षिण नासिका का श्वास फल

जिस समय पिंगला नाड़ी अर्थात् दाहिनी नाक से श्वास चलता हो उस समय कठिन कर्म करने चाहिये, जैसे कठिन क्रूर विद्या का अध्ययन और अध्यापन, नौकादि आरोहण, तन्त्र साधना, बैरी को दण्ड, शास्त्राभ्यास, गमन, पशु विक्रय; ईंट, पत्थर, काठ तथा रत्नादि का घिसना और छीलना, संगीत अभ्यास, यन्त्र-तन्त्र बनाना, हाथी घोड़ा तथा रथ आदि की सवारी सीखना, व्यायाम, षट्कर्म साधन, भूतादि साधन, औषध सेवन, लिपि लेखन, दान क्रय-विक्रय, युद्ध, भोग, राजदर्शन आदि।

सुषुम्ना का श्वास फल

दोनों नाकों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार का शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिये। उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल होगा। उस समय योगाभ्यास तथा ध्यान धारणादि द्वारा केवल भगवान को स्मरण करना उचित है। सुषुम्ना नाड़ी से श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वर प्रदान करने पर वह सफल होता है।

इस प्रकार उचित स्वर में कार्य करने से मनुष्य अनेक प्रकार के लाभ उठा सकता है। इसका सबसे बड़ा उपयोग रोगोत्पत्ति का पहले से ही ज्ञान हो जाना और उसका सहज में निवारण कर सकना है। उदाहरण के लिये शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को यदि सवेरे नींद टूटने पर सूर्योदय के समय पहले यदि दाहिनी नाक से श्वास चलना आरम्भ हो, तो उस दिन से पूर्णिमा तक के बीच में गर्मी के कारण कोई पीड़ा होगी। इसी प्रकार कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय पहले यदि बायीं नाक से श्वास चलना आरम्भ हो तो उस दिन से अमावस्या तक के अन्दर कफ या सर्दी के कारण कोई पीड़ा होगी।

दो पखवारों तक इसी प्रकार विपरीत ढंग से सूर्योदय के समय निःश्वास चलता रहे तो किसी आत्मीय स्वजन को भारी बीमारी होगी अथवा मृत्यु होगी, या और किसी प्रकार की विपत्ति आयेगी। तीन पखवारों से अधिक लगातार ऐसी ही गड़बड़ी होने पर निश्चय ही अपनी मृत्यु हो जायगी।

बिना औषध रोग निवारण

अनियमित क्रिया के कारण जिस प्रकार हमारी देह में तरह तरह के रोग पैदा होते हैं उसी तरह औषध बिना ही, भीतरी क्रियाओं द्वारा नीरोग होने का उपाय भगवान ने बना दिया है। इन स्वर-शास्त्रोक्त उपायों को काम में लाने से न तो बहुत दिन तक रोग की यंत्रणा सहन करनी पड़ती है, न अर्थ व्यय होता है और न दवाइयों से अपना पेट भरना पड़ता है। साथ ही जब इस प्रकार योग विद्या के इस कौशल से एक बार रोग जात रहता है, तो दुबारा उसके आक्रमण की संभावना नहीं रहती। ज्वर का आक्रमण होने पर जिस नासिका से श्वास चलता हो, उसे बन्द करके दूसरी नासिका से श्वास लेना चाहिये। जब तक ज्वर न उतरे और शरीर स्वस्थ न रहे तब तक लगातार दूसरे ही नासापुट से श्वाँस लेते रहना चाहिये। ऐसा करने से दस-पंद्रह दिन में उतरने वाला ज्वर पाँच सात दिन में ही उतर जायगा और कष्ट भी कम उठाना पड़ेगा। ज्वरकाल में मन ही मन चाँदी के समान श्वेत वर्ण का ध्यान करने से और भी शीघ्र लाभ होता है। इसी प्रकार और भी कई तरह के ज्वर, सिरदर्द, अजीर्ण, दंतरोग, स्नायविक पीड़ा, दमा, नेत्ररोग भी योग सम्बन्धी साधारण विधियों से ठीक हो जाते हैं।

स्वर-विज्ञान का प्रयोग इसी प्रकार के अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में किया जा सकता है। यात्रा को सफल बनाना, गर्भाधान द्वारा सौभाग्यशाली संतान प्राप्त करना, शत्रु वशीकरण, अग्नि को बुझाना, चिर यौवन प्राप्त करना आदि अनेकों कार्यों में इससे उल्लेखनीय सहायता मिल सकती है। स्वर विज्ञान की जानकारी कठिन नहीं है, पर सफलता प्राप्त करने के लिये इच्छानुसार स्वर को कम या ज्यादा समय तक चलाने का अभ्यास करना पड़ता है।


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