भय छोड़िए-निर्भय रहिए

November 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गिरिजा सहाय व्यास)

मनुष्य की प्रगति के मार्ग में अनेक बातें बाधक हुआ करती हैं। असफल होने पर अनेक मनुष्य विचार करते हैं कि हम सच्चाई के साथ इतना प्रयत्न करते हैं और फिर भी हमको सफलता के दर्शन नहीं होते, तो अवश्य ही इसमें हमारे भाग्य का दोष है, अथवा दुनिया के अन्य व्यक्ति ऐसे स्वार्थी और कठोर चित्त हैं कि वे हमारी सहायता करने के बजाय हमारी प्रगति के मार्ग में रोड़ा अटकाते हैं और इसलिये हमको असफल होना पड़ता है। परन्तु सच्ची बात यह है कि उनमें स्वयं ही कोई न कोई ऐसी त्रुटि होती है कि जिसके कारण वे किसी भी काम में भली प्रकार सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।

मनुष्य के स्वभाव में ऐसे बहुत से दोष पाये जाते हैं। जो जीवन-संघर्ष में अग्रसर होने में बाधक सिद्ध होते हैं। भय की भावना अथवा डरने का रोग उनमें सबसे अधिक प्रचलित है। वैसे थोड़ा सा भय सभी में पाया जाता है। उसके द्वारा मनुष्य को आत्मरक्षा की प्रेरणा मिलती और वह सावधान भी रहता है। पर जब यह भय की भावना बहुत अधिक बढ़ जाती तो मनुष्य का मन विकृत होकर निश्चेष्ट हो जाता है और उसके कार्य में बड़ी रुकावट पड़ने लगती है। इस भय में वास्तविकता का अंश बहुत थोड़ा होता है, अधिकाँश में हम अपनी कल्पना से भय का भूत बना लेते हैं। यह सच है कि हमारे मन में जो विशेष प्रकार के भय जड़ जमा लेते हैं उनका कोई कारण भी होता है, पर हम उस कारण को नहीं जानते केवल उसके प्रभाव से हमारे मन में किसी विशेष भय का संचार होने लगता है और वह हमारे लिये बहुत हानिकारक होता है। एक लेखक ने इसका एक उदाहरण लिखा है जो इस प्रकार है-

“एक दिन किसी नाई की दुकान पर कितने ही व्यक्ति बैठे, कुछ हजामत करा रहे थे और कुछ स्थान खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इतने में हजामत की कुर्सी पर बैठा एक आदमी अचानक उठ खड़ा हुआ और आधी हजामत की हालत में ही चेहरे पर लगे साबुन को पोंछकर बाहर चला गया। दूसरे लोग आश्चर्य में आकर देखते ही रह गये। एक व्यक्ति ने नाई से पूछा-”इसे क्या हो गया, अपना कोट भी छोड़ गया और हजामत भी आधी ही बनवा गया?”

नाई ने उत्तर दिया- “यह हमेशा ऐसे ही करता है। उसका ख्याल है कि ऐसी छोटी जगह में ज्यादा देर बैठने से उसका दम घुटने लगेगा। अब एकाध घंटे बाद वह फिर वापस आ जायगा तब मैं उसकी हजामत को पूरी करूंगा।”

ऐसे अनेक व्यक्ति जिनको “बन्द जगह” का भय जग जाता है बन्द कमरे में रहने से डरते हैं, लिफ्ट पर नहीं चढ़ सकते, सुरंग में गुजरने पर एक दम व्याकुल हो जाते हैं, रेल के डिब्बे में भी यात्रा नहीं कर सकते। इस प्रकार के भय के कारण समय और पैसे की तो हानि उठानी पड़ती है, पर इसके कारण अपचन, दमा, हृदय रोग, सिर दर्द आदि की शिकायत भी पैदा हो जाती हैं। अमरीका के कई बड़े नगरों में बहुत ऊँचे-ऊँचे मकान हैं, न्यूयार्क में तो एक के ऊपर एक करके 80 मंजिलों तक की इमारतें हैं उन सब में लिफ्ट द्वारा चढ़ना पड़ता है। लिफ्ट भी ऐसी जगहों में काफी देर से गन्तव्य स्थान तक पहुँचती है। जिन लोगों को ‘बन्द जगह’ का भय होता है, वे ऐसे अवसरों पर बहुत अधिक व्याकुल हो जाते हैं।

एक सज्जन की इस भय के कारण ऐसी आदत पड़ गई थी कि बीस-तीस मील की रेलयात्रा में भी वे प्रत्येक स्टेशन पर डिब्बा बदलते रहते थे। ऐसे भय की भावना का कारण ढूंढ़ने के लिये रोगी के बचपन के इतिहास की पूर्ण रूप से खोज की जाती हैं। एक बार एक ऐसे व्यक्ति की जब जाँच की गई तो मालूम हुआ कि “बाल्यावस्था में उसे एक तंग गली में होकर घर जाना पड़ता था। इस गली का एक सिरा तो बाजार में था और दूसरा सिरा दूसरी तंग गली में जाकर मिल जाता था। एक दिन उस व्यक्ति ने बाजार वाले सिरे पर पहुँच कर देखा कि वहाँ पर फाटक बन्द कर दिया गया है। जब उसने पीछे लौट जाना चाहा तो देखा कि एक बड़ा काला कुत्ता उस पर झपटने को तैयार है। गली इतनी तंग थी कि वह बचकर भाग न सका। डर के मारे वह गिर कर बेहोश हो गया। इस घटना से वह बीस पच्चीस वर्ष तक ऐसा आतंकित रहा कि जब किसी तंग गली में गुजरना हो उसे एकाएक भय लगने लगता। “इसी प्रकार” एक स्त्री ने जब अपने धर के एक अंधेरे से कमरे में आलमारी खोली तो उसे उसमें एक साँप बैठा दिखलाई पड़ा। उसे ऐसा भय लगा कि वहीं पर बेहोश होकर गिर गई। बाद में घर के अन्य लोगों ने वहाँ पहुँच कर साँप को मारा। पर उस स्त्री के मन में उस दिन के भय ने ऐसा घर कर लिया कि वह जब किसी अंधेरी जगह में जाती तो साँप की कल्पना करके भयभीत हो जाती।”

इसी प्रकार अनेक लोग वर्षों पहले की छोटी छोटी और झेली हुई घटनाओं के प्रभाव से अपने जीवन में एक ऐसा रोग उत्पन्न कर लेते है कि जिससे उनका विकास, रुक जाता है, अनेक कार्यों में, जिनके लिए वे सब प्रकार से उपयुक्त होते हैं, असफल होना पड़ता है, मानसिक शक्ति निर्बल पड़ जाती हैं और जीवन में उल्लास का अंश बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिये हमारा कर्तव्य है कि यदि बच्चों के साथ ऐसी घटना हो जाय और उसमें डरने की आदत जड़ पकड़ती जान पड़े तो तुरन्त उसको वास्तविकता का ज्ञान कराके उसका प्रतिकार कर देना चाहिये। अन्यथा बड़े होने पर भय की भावना तो बनी रहती है, पर हजार चेष्टा करने पर भी यह पता नहीं चलता कि आखिर हम ऐसा भयभीत क्यों होने लगे। मनोवैज्ञानिक चिकित्सक ऐसे मरीजों का इलाज करते समय केवल यही करते हैं कि उससे बार-बार पूछकर और जिरह करके उस मूल घटना का पता लगा लेते हैं, जिसके कारण वह शिकायत उत्पन्न हुई है। जब कारण का पता लग जाता है तो उसकी निःसारता का ज्ञान करा देना सहज होता है और ऐसा करने से शिकायत प्रायः दूर हो जाती है। इस विषय में अमरीका के प्रसिद्ध विद्वान रामर्सन ने बड़ी स्पष्टता से कहा है। उस काम को अवश्य करो, बस भय का अन्त हो जायगा।”

वास्तव में यह कथन सोलह आना सत्य है। भय प्रायः काल्पनिक चीज है। उसका आधार किसी बाहरी वस्तु में नहीं होता वरन् हमारे मन में ही होता है। इसलिये यदि हम विचारपूर्वक अपने मन का संस्कार कर डालें, भय के कारण पर भली प्रकार से सोच कर उसे जड़ मूल से दूर कर दें इसी में हमारा कल्याण है। अन्यथा एक बुरी आशंका से हमारे भीतर ऐसी मानसिक निर्बलता जन्म ले लेती है कि उससे हमारा व्यक्तित्व बहुत कुछ विनष्ट हो जाता है। यदि ऐसा भय संयोगवश हमको पहले से लगा हुआ है तो उसका सबसे अच्छा उपाय वही है जो रामर्सन ने बतलाया है कि उस काम को अवश्य किया जाय, बार बार किया जाय अन्त में हमारी उस पर विजय होनी निश्चित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118