तंत्र-शास्त्र में मुद्राओं का महत्व

November 1959

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(श्री0 योगेन्द्रजी ब्रह्मचारी)

तंत्र-शास्त्र भारतवर्ष की बहुत प्राचीन साधन प्रणाली है। इसकी विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें आरम्भ ही से कठिन साधनाओं और कठोर तपस्याओं का विधान नहीं है, वरन् वह मनुष्य के भोग की तरफ झुके हुये मन को उसी मार्ग पर चलाते हुये धीरे धीरे त्याग की ओर प्रवृत्त करता है। इस दृष्टि से तंत्र को एक ऐसा साधन माना गया कि जिसका आश्रय लेकर साधारण श्रेणी के व्यक्ति भी आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकते हैं। यह सत्य है कि बीच के काल में तंत्र का रूप बहुत विकृत हो गया और इसका उपयोग अधिकाँश में मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि जैसे जघन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाने लगा, पर तंत्र का शुद्ध रूप ऐसा नहीं है। उसका मुख्य उद्देश्य एक एक सीढ़ी पर चढ़ कर आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँचना ही है।

तन्त्र-शास्त्र में जो पंच प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है। मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है। मुद्रा की साधना द्वारा मनुष्य शारीरिक और मानसिक शक्तियों की वृद्धि करके अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है।

मुद्रायें अनेक हैं। घेरण्ड संहिता में उनकी संख्या 25 बतलाई गई है, पर शिव-संहिता में उनमें से मुख्य मुद्राओं को छाँट कर दस की ही गणना कराई है जो इस प्रकार हैं- (1) महामुद्र (2) महाबन्ध (3) महाभेद (4) खेचरी (5) जालन्धर बन्ध (6) मूलबन्ध (7) विपरीत करणी (8) उड्डीयान (9) वज्रोली, और शक्ति चालिनी।

तन्त्र मार्ग में कुण्डलिनी शक्ति की बड़ी महिमा बतलाई गई है। इसके जागृत होने से षट्चक्र भेद हो जाता है और प्राणवायु सहज ही से सुषुम्ना से बहने लगती है। इससे चित्त स्थिर हो जाता है और मोक्ष मार्ग खुल जाता है। इस शक्ति को जागृत करने में मुद्राओं से विशेष सहायता मिलती है। इनकी विधि योग ग्रंथों में इस प्रकार बतलाई गई है :-

महामुद्रा-गुरु के उपदेशानुसार बाँये टखने (पैर की पिंडली और पंजे के बीच की दोनों तरफ उठी हुई मोटी हड्डी) से योनि मण्डल (गुदा और लिंगेन्द्रय के बीच का स्थान) का दबा कर दाहिने पैर को फैला कर दोनों हाथों से पकड़ ले और शरीर के नवों द्वारों को संयत करके छाती के ऊपरी भाग पर ठुड्डी को लगा दे। चित्त को चैतन्य रूप परमात्मा की तरफ प्रेरित करके कुम्भक प्राणायाम द्वारा वायु को धारण करे। इस मुद्रा का पहले बाँये अंग में अभ्यास करके फिर दाँये अंग में करे और अभ्यास करते समय मन एकाग्र करके उसी नियम से प्राणायाम करता रहे।

इस मुद्रा से देह की सारी नाड़ियाँ चलने लगती हैं। जीवनी शक्ति स्वरूप शुक्र स्तम्भित हो जाता है, सारे रोग मिट जाते हैं, शरीर पर निर्मल लावण्य छा जाता है, बुढ़ापा और अकाल मृत्यु का आक्रमण नहीं होने पाता और मनुष्य जितेन्द्रिय होकर भवसागर से पार हो जाता है।

खेचरी मुद्रा-इस मुद्रा से प्राणायाम को सिद्ध करने और समाधि लगाने में विशेष सहायता मिलती है। इसके लिए जिव्हा और तालु को जोड़ने वाले माँस-तंतु को धीरे-धीरे काटा जाता है, अर्थात् एक दिन जौ भर काट कर छोड़ दिया जाता है, फिर तीन चार दिन बाद थोड़ा सा और काट दिया जाता है। इस प्रकार थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त वाहिनी शिराएं अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं और किसी भय की सम्भावना नहीं रहती। जीभ को काटने के साथ ही प्रतिदिन धीरे-धीरे बाहर की तरफ खींचने का अभ्यास करता जाय। इस अभ्यास करने से कुछ महीनों में जीभ इतनी लम्बी हो जाती है कि यदि उसे ऊपर की तरफ लौटा जाय तो वह श्वास जाने वाले छेदों को भीतर से बन्द कर देती है। इससे समाधि के समय साँस का आना जाना पूर्णतः रोक दिया जाता है।

विपरीत करणी मुद्रा-योगियों ने मनुष्य के शरीर में दो मुख्य नाड़ियाँ बतलाई हैं- एक सूर्य नाड़ी और दूसरी चन्द्र नाड़ी। सूर्य नाड़ी नाभि के पास है और चन्द्रनाड़ी तालु के मध्य में है। मस्तक में रहने वाले सहस्र-दल-कलम से जो अमृत झरता है वह सूर्य नाड़ी के मुख में जाता है। इसी से अन्त में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यदि यही अमृत चन्द्रनाड़ी के मुख में गिरने लगे तो मनुष्य निरोगी, बलवान और दीर्घजीवी हो सकता है। इसके लिये तेज शास्त्र में साधक को आदेश दिया गया है कि सूर्यनाड़ी को ऊपर और चन्द्रनाड़ी को नीचे ले आवे। इसके लिये जो मुद्रा बतलाई गई है उसकी विधि शीर्षासन की है, अर्थात् मस्तक को जमीन पर टिका कर दोनों पैरों को सीधे ऊपर की तरफ तान दे और दोनों हाथ की हथेलियों को मस्तक के नीचे लगा दे। तब कुम्भक प्राणायाम करें।

योनि मुद्रा-इसके लिये सिद्धासन पर बैठ कर दोनों अंगूठों से दोनों कान, दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों मध्यमा (बीच की उंगली) से दोनों नाक के छेद और दोनों अनामिका से मुँह बन्द करना चाहिये। फिर काकी मुद्रा (कौवे की चौंच के समान होठों को आगे बढ़ा कर साँस खींचना) से प्राण वायु के भीतर खींच कर अपान वायु से मिला देना चाहिये। शरीर में स्थित छहों चक्रों का ध्यान करके ‘हूँ’ और ‘हंस’ इन दो मंत्रों द्वारा सोयी हुई कुँडलिनी को जगाना चाहिये। जीवात्मा के साथ कुंडलिनी को युक्त करके सहस्र दल कमल पर ले जाकर ऐसा चिन्तन करना कि मैं स्वयं शक्तिमय होकर शिव के साथ नाना प्रकार का विहार कर रहा हूं। फिर ऐसा चिन्तन करना चाहिये कि “शिव-शक्ति के संयोग से आनन्द स्वरूप होकर मैं ही ब्रह्म रूप में स्थित हूँ।” यह योनि मुद्रा बहुत शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है और साधक इसके द्वारा अनायास ही समाधिस्थ हो सकता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मुद्राओं में शारीरिक मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार के अभ्यासों का ऐसा समन्वय किया गया है कि मनुष्य की भीतरी शारीरिक शक्तियाँ मानसिक शक्तियाँ, जागृत हो जाती हैं और वह ऊंचे दर्जे के आत्मिक अभ्यास के योग्य हो जाता है। पर एक बात का ध्यान रखना परमावश्यक है और वह यह कि मुद्राओं का अभ्यास किसी भी दशा में किसी से सुन कर या पढ़ कर नहीं करना चाहिये, वरन् योग्य गुरु से सीख कर ही उसका अभ्यास करना अनिवार्य है।


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