(श्रीमती सुलोचना गौतम)
भारतवर्ष योगियों की भूमि है और पिछले हजारों वर्षों से यहाँ अनेक उल्लेखनीय योगियों का आविर्भाव हो चुका है। पर ये सभी योगी पुरुष ही हुये हैं स्त्रियों में किसी उल्लेखनीय योगिनी का नाम बहुत कम सुनने में आया है। वैसे स्त्रियों में भी मीराबाई, सहजोबाई जैसी प्रसिद्ध आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न महिलाएं हुई हैं, पर वे प्रायः भक्ति मार्ग की अनुयायिनी थीं। पुरुषों के समान हठयोग, राजयोग के कठिन साधन करने वाली महिलाओं की संख्या अधिक नहीं है, और जो ऐसी नारियाँ हुई भी हैं उनके सम्बन्ध में विशेष बातें जनता को ज्ञात नहीं क्योंकि साधन करने पर भी सामाजिक नियमों के कारण उनको अपने लिये जन समुदाय से पृथक ही रखना पड़ता है। दूसरा कारण यह भी है कि शास्त्रों में जगह जगह यही आदेश दिया है कि स्त्रियों के लिये विशेष साधनाओं का कोई प्रयोजन नहीं, पतिव्रत ही उनके लिये सबसे बड़ा और प्रभावशाली साधन है। ऐसी दशा में स्त्रियाँ योग जैसे साधनों में तभी प्रवृत्त होती हैं जब या तो ये आजन्म ब्रह्मचारिणी रहें या फिर आरम्भिक जीवन में ही वैधव्य की अवस्था को प्राप्त हो जायें। नीचे एक ऐसी ही योगिनी का परिचय दिया जाता है। जो हठयोग की समाधि अवस्था तक पहुँच गई थी और जिसने अध्यात्म मार्ग में उल्लेखनीय प्रगति करके दिखाई थी। यह विवरण उन्हीं के परिवार के एक विद्वान श्री हरिनारायण जी पुरोहित ने प्रकाशित कराया।
जयपुर (राजस्थान) के महाराजा के यहाँ श्री मन्नालाल जी एक विद्वान् और कर्मकाण्डी पुरोहित थे। उन्हीं के घर में “योगिनी मोतीबाई” का जन्म संवत् 1899 सन् 1942 में हुआ। बाल्यावस्था में ही इन में आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे थे। ग्यारह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया पर थोड़े ही वर्ष बाद विधवा हो गईं। उस समय सती प्रथा तो बन्द हो गई थी, पर उन्होंने अन्य प्रकार से दो तीन बार देह त्यागने का प्रयत्न किया, पर मृत्यु समीप नहीं आई इसी अवसर पर किसी अदृश्य वाणी ने इनसे कहा-आत्महत्या महापाप है, अपने शरीर से अपना और पराया कुछ उपकार कर, जब अन्त आयेगा तो यह नश्वर काया अपने आप छूट जायगी।” बस, वे भगवत् आज्ञा को शिरोधार्य कर ईश्वर के भजन में लवलीन हो गईं। कुछ समय बाद एक वृद्ध योगी और फिर एक तपस्विनी योगिनी का सत्संग प्राप्त हुआ जिनसे इन्होंने योग की साधनाएं, सीखीं और आसन प्राणायाम, नेति, धौति, नौलि, बगोली, ध्यान, धारणा करते करते समाधि तक का साधन विधिपूर्वक करने लगीं। इसके सिवाय उनको स्वरोदय का भी अच्छा अभ्यास हो गया। प्रारम्भिक अवस्था में लाख की बनी पाँच रंग की पाँच गोलियाँ अपने पास रखती थीं और उन पर पंचत्व की धारणा किया करती थीं। फिर उनको छाया पुरुष की सिद्धि हो गई थी। वे सदैव नासिकाग्र पर दृष्टि रखती थीं, केवल 3, 4 घंटे के करीब ही भूमि पर बिस्तर बिछा कर सोती थीं और 24 घंटे में एक बार अल्प भोजन करती थीं।
योगिनी मोतीबाई ने हठ योग, राजयोग, भक्तियोग का साधन करके ऊंचे दर्जे की आत्मिक शक्ति प्राप्त कर ली थी। वे योगशक्ति के प्रभाव से दूसरों के मन की बात जान लेती थीं, और जब उचित जान पड़ता तो उनके होनहार की बात भी कह देती थीं। अनेक स्त्री पुरुषों के सामने आते ही उन्होंने स्वयं उनकी मनोकामना की बात बतला दी थी और उसके पूर्ण होने का मार्ग भी बतला दिया था। तो भी वे यथासम्भव इन चमत्कारी बातों से दूर रहती थी। क्योंकि इस प्रकार के कार्यों से आत्मशक्ति की हानि होती है। और अहंकार उत्पन्न होने का भय रहता है।
अपनी मृत्यु का समय दस महीने पहले ही उन्होंने अपने छोटे भाई को बतला दिया था और यह भी समझा दिया था कि घर में किसी से कहना मत। पर एक बार कौतूहल वश उसके मुँह से यह बात माता के सामने निकल गई। इससे सब घर वालों को बड़ा दुःख हुआ और वे कहने लगे कि इस प्रकार के विचार प्रकट करना ठीक नहीं है। इन्होंने भी व्यर्थ में उनको दुःख पहुंचाया बुरा समझ कर बहाना बना कर बात को टाल दिया कुछ महीने बाद सबने जगन्नाथपुरी की यात्रा की तैयारी की। जयपुर से यात्रियों का एक बड़ा संघ चला। जगन्नाथजी के दर्शन करने के बाद सब लोग गंगासागर में भी कपिलदेव के दर्शन और पूजन को गये। वहाँ पूजन करके मोतीबाई ने कपिल भगवान के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि “हे कपिल मुनिजी, आप सच्चे ज्ञान दाता हैं और आपने जैसे अपनी माता को मुक्ति दी थी, वैसे ही मेरी भी सद्गति शीघ्र ही कीजिये।” इस बात को सुनकर माता जी ने नेत्रों में आँसू भर कर कहा- “मोती यह क्या प्रार्थना तूने की, तैने कैसी बात कही।” पर मोतीबाई चुप रही’ गंगासागर से जहाज में बैठकर सब चल दिये। कुछ ही समय बीता था कि जहाज में ही मोतीबाई की तबियत सचमुच बिगड़ने लगी और उन्होंने अपनी माता की गोद में सहारा लेकर कमलासन लगाकर प्राण चढ़ा लिये। थोड़ी देर में स्तब्ध हो गईं। माताजी ने सिर पर हाथ रखा तो कपाल मानो उबल रहा है-ऐसा प्रतीत हुआ। कुछ ही क्षण में बाईजी के नेत्र खुले और फिर वे खुले के खुले ही रह गये। उनकी पवित्र आत्मा ने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। उस समय एक झन्नाटे की सी आवाज हुई। जिसको वहाँ उपस्थित सब यात्रियों ने सुना। इससे उन लोगों ने यही अनुमान किया कि वे विमान पर चढ़कर परमधाम को चली गईं। यह घटना माघ सुदी 4 सम्वत् 1932 की है।
योगिनी मोतीबाई का चरित्र हमको बतलाता है कि नारियाँ किसी भी दृष्टि से पुरुषों से कम नहीं हैं और अवसर तथा सुविधा प्राप्त हो तो वे सब प्रकार के कार्य योग्यतापूर्वक सम्पन्न करके अपना और दूसरों का कल्याण कर सकती हैं।