तैलंग स्वामी का अद्भुत योगबल

November 1959

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(श्री. शिवप्रसाद पंडित)

तैलंग स्वामी आन्ध्र प्रदेश के निवासी थे। वे योगशास्त्र में निष्णात थे और उन्होंने अपने समय के बड़े-बड़े योगियों से इस विद्या की शिक्षा ग्रहण की थी। उनका मानसिक झुकाव बाल्यावस्था से ही वैराग्य की तरफ था और वे अविवाहित रह कर धर्म साधन करने के इच्छुक थे, पर माता के बहुत अधिक आग्रह करने पर उन्होंने विवाह कर लिया और जब तक माता जीवित रही वे गृहस्थाश्रम का निर्वाह करते रहे। पर जैसे ही माता की मृत्यु हुई और उन्होंने श्मशान में जाकर उसका अन्त्येष्टि संस्कार किया, उसी समय उन्होंने अपना संसार त्याग का निश्चय सब प्रकट कर दिया। उन्होंने श्मशान भूमि से घर लौटना भी स्वीकार नहीं किया और अपने हिस्से की समस्त जायदाद अपने सौतेले भाइयों को देकर वहीं कुटी बना कर रहने लगे। उस समय उनकी अवस्था 48 वर्ष की थी और नाम शिवराम था।

कुछ समय बाद वे तीर्थ यात्रा को निकल पड़े घूमते घूमते उनकी भेंट एक वृद्ध साधू से हुई, जो योग विद्या का अच्छा ज्ञाता था। उसने भी इन्हें योग्य अधिकारी देख कर सच्चे हृदय से शिक्षा देना आरम्भ किया। कुछ समय बाद उसी से संन्यास की दीक्षा लेकर ये तैलंग स्वामी ने नाम से प्रसिद्ध हुये।

गुरु का देहान्त होने पर कुछ वर्षों तक वे सेतुबन्ध रामेश्वर और नेपाल में रहे, पर दोनों जगह उनकी योग विद्या के चमत्कारों की बात फैल गई और उनके दर्शनों के लिये लोगों की भीड़ जमा होने लगी। इससे उनको बड़ी असुविधा हुई और योग साधना में विघ्न पड़ने लगा। तब वे तिब्बत की तरफ चले गये। वहाँ मान सरोवर के तट पर रह कर उन्होंने बहुत समय तक योगाभ्यास किया। जब उनको सिद्धि प्राप्त हो गई तो वे वहाँ से चल कर मोक्ष-धाम काशी नगरी में पधारे। कुछ समय तक तो वे दशाश्वमघ घाट पर योगाश्रम बनवा कर वहीं रहने लग गये। उसी आश्रम में वे जिज्ञासुओं को योग विद्या की शिक्षा दिया करते थे और अभाव ग्रस्त लोगों की सहायता भी करते रहते थे।

बंगाल के हुगली जिले में श्रीरामपुर नाम का एक गाँव है। उसमें जय गोपाल नाम का व्यक्ति निवास करता था। उसके मन में वैराग्य का उदय होने से वह घरबार की सब व्यवस्था अपने पुत्रों के सुपुर्द करके काशीधाम में चला आया। उसने पहले से ही तैलंग स्वामी का नाम सुन रखा था। काशी आने पर वह हर रोज स्वामी जी के दर्शनों के लिये आया करता था और थोड़ा फल, फूल और दूध उनके लिये ले जाता था। इस प्रकार बराबर जाते रहने से स्वामी जी की कृपा दृष्टि उस पर रहने लगी। एक दिन उसने स्वामी जी से कहा कि “आज न जाने क्यों मेरी छाती धड़क रही है और घबड़ाहट हो रही है। इससे मुझे शंका होती है कि कोई अशुभ घटना न हो।” स्वामी जी ने कहा कि “मैं अभी तुम्हारे घर का समाचार मंगाये देता हूँ।” यह कह कर उन्होंने जरा देर के लिये आँखें बन्द कर लीं, और फिर जय गोपाल से कहा कि “तुम संध्या के समय भोजन करके यहाँ आना।” जब वे संध्या समय वहाँ आए तो स्वामी ने कहा कि आज प्रातः तुम्हारे बड़े पुत्र की हैजा से मृत्यु हो गई है।” यह सुन कर जय गोपाल बड़ा व्याकुल हो गया। तब स्वामी जी ने उसे संसार की असारता का उपदेश दिया जिससे उसे कुछ शाँति प्राप्त हो गई। रात्रि के समय निद्रावश सो जाने पर उसको अपना पुत्र दिखलाई पड़ा। दूसरे दिन उसने अपने घर को “अरजैंट” तार भेज कर समाचार मँगाये तो उत्तर आने पर मालूम हुआ कि स्वामी जी का कथन अक्षरशः सत्य था।

काशी में आने के बाद स्वामी जी घोर जाड़े की ऋतु में भोजन और निद्रा का त्याग करके दो-दो, तीन-तीन दिन तक गंगाजी के जल पर पड़े रहते और कठिन से कठिन गर्मी के मौसम में तपे हुये पत्थरों पर बैठे रहते। वे भिक्षा माँगने किसी के घर नहीं जाते, जो कुछ भक्त लोग आश्रम में आकर दे जाते उसी को संतोषपूर्वक ग्रहण करते। एक बार एक दुष्ट स्वभाव के मनुष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये आधा सेर चूने को पानी में घोलकर दूध की तरह बना दिया और स्वामी जी के सामने रख कर विनयपूर्वक कहा “महाराज यह दूध आपके लिये लाया हूँ।” स्वामी जी ने तत्काल ही पहिचान लिया कि यह चुना है, तो भी बिना कुछ कहे बर्तन को उठा कर सबका सब पी गये। उस आदमी को भय लगा कि जब इनको मालूम होगा कि यह चूना है तो यह क्रोधित होंगे और कदाचित मुझे मार बैठेंगे। इससे वह कुछ पीछे हट कर बैठ गया। पर स्वामी जी चूना पीकर भी पूर्ण शान्त बने रहे और उन्होंने जरा सा मुँह भी नहीं बिगाड़ा यह देख कर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। पर स्वामी जी ने उसकी बात पर कुछ भी ध्यान न देकर वह सब का सब चूने का पानी उल्टी करके बाहर निकाल दिया। उनकी सामर्थ्य देख कर वह दुष्ट चकित होकर बैठा रह गया।

एक बार काशी से राजा का एक अफसर नाव द्वारा राम नगर से बनारस आ रहा था। उस समय तैलंग स्वामी पद्मासन लगा कर जल के ऊपर तैर रहे थे। उस अफसर ने मल्लाहों से इनके विषय में पूछा और प्रशंसा सुनकर इनको अपनी नाव में बैठा लिया। उसने इनसे कुछ प्रश्न किये, पर स्वामी जी चुपचाप गूँगे बहरे की तरह बैठे रहे। जब नाव बीच धारा में पहुंची तो स्वामी जी ने उस अफसर की तलवार, जो बड़ी सुन्दर और बहुमूल्य थी, देखने को माँगी। न जाने कैसे वह उसी समय हाथ से छूट कर गंगाजी में गिर पड़ी। इस पर वह अफसर बड़ा नाराज हुआ, क्योंकि वह उसे किसी बड़े अंगरेज की तरफ से भेंट स्वरूप प्राप्त हुई थी। इतने में नाव किनारे पर आ लगी। वहाँ स्वामी जी का एक मुख्य शिष्य उपस्थित था। उसने अफसर को गुस्सा होकर बकते हुये देखा तो कहा कि “आप नाराज न हों, मैं गोताखोरों को बुलाकर गंगाजी में से तलवार निकलवा दूँगा।”

स्वामी जी ने जब देखा कि उनका शिष्य बहुत दुखी हो रहा है तो उन्होंने गंगाजी में हाथ डाला और तीन तलवारें निकाल कर अफसर के हाथ में रखीं कि इनमें से जो तुम्हारी हो उसे पहिचान कर ले लो। यह चमत्कार देख कर अफसर तो भौंचक्का रह गया और अपने अपराध के लिये क्षमा माँगने लगा। अफसर ने अपनी तलवार पहिचान कर लें ली और शेष दो तलवारें स्वामी जी ने पुनः पानी में फेंक दी।

एक दिन पृथ्वीगिरि नाम के साधु का शिष्य इन से मिलने को आया। उस समय स्वामी जी के पास बहुत से व्यक्ति बैठे हुये थे। थोड़ी देर में ये दोनों, लोगों के देखते-देखते अदृश्य हो गये। लगभग आध घंटे बाद स्वामी जी तो अपने स्थान पर फिर दिखाई देने लगे, पर पृथ्वीगिरि का शिष्य वहाँ दिखलाई न पड़ा।

तैलंग स्वामी एक सिद्ध योगी थे, यह ऊपर दिये चमत्कारों से भली प्रकार विदित होता है। उनमें हर तरह की बड़ी-बड़ी शक्तियाँ थीं, पर उन्होंने उनके द्वारा सिवाय लोगों के उपकार के अपकार कभी नहीं किया और अपने साथ शत्रु भाव रखने वालों को भी कभी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई। इससे यह भी प्रकट होता है कि वे केवल योगी ही न थे वरन् एक सच्चे सन्त और साधु भी थे। अपनी मृत्यु का समय आने पर उन्होंने अपने सब शिष्यों और भक्तों को एक दिन पहले ही उसकी सूचना दे दी थी। उसके अनुसार संवत् 1944 (सन 1887) की पौष सुदी 11 के दिन संध्या के समय उन्होंने योगासन पर बैठ कर चित्त को एकाग्र करके देह त्याग किया। ऐसा कहा जाता है कि उस समय उनकी आयु 280 वर्ष की थी।


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