भारतीय संस्कृति मानवता प्रधान है।

November 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री. शम्भूसिह कौशिक)

वर्तमान समय में युद्धों की अधिकता और अस्त्र शस्त्रों के विकास के कारण अनेक लोगों का यही विचार हो गया है कि जो जाति जितनी ही युद्ध पटु होगी, दूसरों को दबाकर उनको अपने वश में रखने का ढंग जानती होगी, वही श्रेष्ठ है, और उसी को अन्य जातियों का मुखिया बनने का अधिकार है। हमारे देश के प्राचीन इतिहास में “चक्रवर्ती राजाओं” का हाल पढ़कर बहुत लोग कहने लगते हैं कि देखिये प्राचीन काल में जब यहाँ के निवासी युद्ध शास्त्र में निपुण थे तो वे भी संसार के सब देशों को जीतकर उनको अपने शासनाधीन रखते थे।

पर यदि भारतीय संस्कृति और साहित्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो स्पष्ट विदित होता है कि अकारण अन्य देश वासियों से युद्ध छेड़ कर उनको बर्बाद करना और गुलाम बनाकर शोषण करना भारतीय संस्कृति में कभी भी प्रचलित न था। यहाँ तो किसी कारणवश युद्ध करने पर हारे हुये शत्रु का राज्य फिर उसी को लौटा दिया जाता था, केवल अन्याय का प्रतिकार ही उससे कराया जाता था। यह तो ईसाई और मुसलमान (विशेषतः तातारी या तुर्क) सभ्यता का लक्षण है कि मित्र बन कर भी धीरे-धीरे दूसरे घर पर अधिकार जमा लेना अथवा दूसरा बहुत निर्बल हो तो खुल्लमखुल्ला उसे पददलित करके उसका शोषण करना, उससे पशुओं की तरह डंडे के जोर से अपनी सेवा कराना। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति का उद्देश्य सदैव यही रहा है यदि हमारे पड़ोस का कोई देश या जन समुदाय पिछड़ा हुआ अथवा निर्बल है तो उसे अज्ञान से छुटकारा पाकर संगठित और सुसभ्य जीवन व्यतीत करने का मार्ग दिखलाना। इसी प्रकार भारतवर्ष ने प्राचीनकाल में एशिया, योरोप, और अमरीका तक के दूरवर्ती प्रदेशों में मानवोचित धर्म और सभ्यता का सन्देश पहुँचाया था और वहाँ के निवासियों के जीवन को अधिक सुखी और शाँतिमय बनाने का ज्ञान प्रदान किया था। हमारे पूर्वजों ने यह कार्य किस प्रकार सम्पन्न किया इसकी चर्चा करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने एक स्थान पर लिखा है-

“आर्य लोग शान्ति प्रिय हैं, खेती−बाड़ी करते हैं, और परिश्रम करके अन्न पैदा करते हैं। वे अपने परिवार का पालन पोषण करके ही संतुष्ट हो जाते थे। इससे उनको विचार करने, संसार की समस्याओं पर चिन्तन करने का अवसर मिल जाता था। हमारे यहाँ के राजा जनक अपने हाथों से हल भी चलाते थे और अपने समय के एक प्रसिद्ध आत्मज्ञानी भी थे। इसके सिवा यहाँ अनेक ऋषि, मुनि, योगी आदि भी रहते थे। वे लोग सदा से यही समझते और उपदेश करते थे कि संसार मिथ्या है और इसके लिये लड़ना-झगड़ना बेकार है। यही कारण था कि यहाँ पर तलवार चलाने का ज्ञान और शक्ति होने पर भी उसका स्थान विद्या और धर्म के नीचे रखा गया है। उसका काम धर्म रक्षा करना बतलाया गया, अर्थात् मनुष्यों अथवा गाय बैल आदि पशुओं पर कोई पाप बुद्धि वाला अत्याचार करे तो उनकी रक्षा करना। ऐसे वीरों का नाम पड़ा श्रापद त्राता क्षत्रिय। इस प्रकार यहाँ जीवन निर्वाह के लिये कृषि वाणिज्य, और शास्त्र विद्या की पृथक-पृथक व्यवस्था करने पर भी सबका अधिपति तथा रक्षक धर्म को ही रखा गया। वह राजाओं का भी राजा है और सबके सो जाने पर भी जाग्रत रहता है। धर्म के आश्रय में सभी स्वाधीन और निर्भय रहते हैं। यह था भारतीय संस्कृति का सच्चा स्वरूप।”

इसके विपरीत योरोपियन लोग भारतवर्ष की सभ्यता को निकृष्ट सिद्ध करने के लिये कहते हैं कि आर्य लोग तो किसी अन्य देश से घूमते-घामते भारतवर्ष में आ पहुंचे और यहाँ के जंगली जाति वालों को मार काट कर, उनकी जमीन छीन कर स्वयं यहाँ बस गये। इस आक्षेप का उत्तर देते हुये स्वामी जी ने कहा है-”योरोपियन लोगों को जिस देश में मौका मिलता है, वहाँ के मूल निवासियों का नाश करके स्वयं मौज से रहने लगते हैं, इसलिये उनका कहना है कि भारत के आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया था। ये “मरभुक्खे” किसको मारें, किसको लूटें यही विचारते हुये चारों ओर घूमते रहते हैं। और कहते हैं कि आर्य लोग भी ऐसा ही करते थे। पर हम पूछते हैं कि उनकी इस धारणा का आधार क्या है? या केवल उनकी कल्पना ही हैं! किस वेद अथवा सूक्त में अथवा अन्य भारतीय ग्रन्थों में तुमने देखा है कि आर्य दूसरे देशों से भारतवर्ष में आये? इस बात का प्रमाण तुमको कहाँ मिलता है कि उन लोगों ने जंगली जातियों को मार काट कर यहाँ निवास किया? इन मूर्खतापूर्ण बातों में कोई सार नहीं।”

“यह सत्य है कि रामचन्द्रजी ने दक्षिण को विजय किया था। पर उन्होंने किसके साथ लड़ाई की थी? लंका के राजा रावण के साथ । क्या रावण असभ्य और जंगल जाति का था? रामायण पढ़ कर देखो तो मालूम होगा कि ज्ञान विज्ञान में उसका देश रामचन्द्र जी के देश से भी बढ़ा-चढ़ा था। लंका की सभ्यता अयोध्या की सभ्यता से अधिक ही थी, कम नहीं। यदि यह कहो कि रामचन्द्रजी ने बानर आदि जातियों पर विजय प्राप्त की तो यह भी ठीक नहीं। उन्होंने बालि को मारा पर उसके राज्य या कोष को तो हाथ नहीं लगाया, सब ज्यों का त्यों वहाँ वालों का ही रहने दिया।

“इसके विपरीत योरोपियन लोगों को देखो। उन्होंने कब किसका भला किया है? जहाँ कहीं निर्बल जाति को पाया, उसे नेस्तनाबूद कर दिया। उनकी भूमि पर ये लोग स्वयं बस गये और वे जातियाँ मटियामेट हो गईं। अमरीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, अफ्रीका सबका इतिहास यही एक बात पुकार-पुकार कर कह रहा है। केवल जहाँ इनका वश न चला वहीं की जातियाँ जीवित रह सकीं। भारत वर्ष ने कभी ऐसा काम नहीं किया । आर्य लोग स्वभाव से ही दयालु थे। उनके विशाल हृदय में दैवी प्रतिभा सम्पन्न मस्तिष्क में, कभी ऐसी पाशविक बातें नहीं आई। जहाँ आज योरोप का उद्देश्य सब को नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना दिखलाई पड़ता है, वहाँ आर्यों का उद्देश्य था-सबको अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा करना। योरोपीय सभ्यता का साधन है- तलवार, और आर्यों की सभ्यता का मार्ग था-वर्ण विभाग। इस वर्ण विभाग द्वारा प्रत्येक मनुष्य धीरे धीरे सभ्यता के नियमों का अभ्यास करके समाज का माननीय सदस्य बन जाता था। योरोप में बलवानों की जय और निर्बलों की मृत्यु होती है। भारतीय संस्कृति के सभी नियम दुर्बलों की रक्षा करने की दृष्टि से बनाये गये थे।”

उपरोक्त विवेचन से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारतवर्ष की संस्कृति अध्यात्म प्रधान है, जबकि अन्य देश धर्म का नाम लेते हुये भी प्रधानता भौतिक उन्नति को ही देते हैं। भारत वर्ष के मनीषियों ने सदा से यही शिक्षा दी है कि तुम संसार के भोगों को भोगते रहो, सुखपूर्वक जीवन बिताओ, पर उनमें ऐसे रत मत हो जाओ कि धर्म अधर्म, न्याय, अन्याय, नीति अनीति का ध्यान भी न रहे। तुम्हारे साँसारिक व्यवहारों और भोगों पर धर्म का नियंत्रण अवश्य रहना चाहिये। अर्थात् सुखों का भोग करते हुये भी सदा यह ध्यान रखो कि उनमें दूसरों का भी भाग है, इसलिये तुम उतना ही ग्रहण करो जितने पर तुम्हारा न्यायानुकूल अधिकार है। दूसरों के हिस्से पर हस्तक्षेप करने से ही कलह वैमनस्य और युद्ध की सृष्टि होती है। योरोप के जो विद्वान यह प्रतिपादित करते हैं कि “संघर्ष का होना हमारे अस्तित्व रक्षा के लिये आवश्यक है” वे एक बड़ी गलती करते है। उनका सिद्धान्त उन प्राणियों के लिये उपयुक्त है जो अभी पशु श्रेणी में है और जिनमें अभी बुद्धि तथा मानवीय सद्गुणों का विकास नहीं हुआ है। हम यह भी कह देना चाहते हैं कि पढ़ने लिखने, तरह तरह के यंत्र बना लेने, विज्ञान की आश्चर्यजनक खोज कर लेने का काम ही मनुष्यत्व नहीं है। प्राचीन काल के अनेक ऋषि मुनि प्रायः इन साँसारिक बातों से पृथक रहते थे, पर दीन दुखियों की सहायतार्थ वे अपने प्राण तक दे डालते थे, तो क्या वे मनुष्यत्व विहीन थे। विचारपूर्वक देखा जाय तो भारतीय संस्कृति का सार यही है कि वह मनुष्य में सबसे पहले मानवता की आत्मबुद्धि की प्रतिष्ठा करना चाहती है और साँसारिक भोगों को धर्म के नियंत्रण में रखने का उपदेश देती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118