वास्तविक प्रार्थना का सच्चा स्वरूप

November 1959

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(श्री. धर्मेन्द्रसिंह जी)

मानव मात्र शान्ति चाहता है-चिरशान्ति ! पर वह शान्ति है कहाँ ? संसार तो अशान्ति का ही साम्राज्य है। शान्ति के भंडार तो वही केवल शक्ति पुँज सर्वेश्वर भगवान ही हैं। वे ही परम गति हैं और उनके पास पहुंचने के लिए सत्य हृदय की प्रार्थना ही पंख स्वरूप हैं। उनके अक्षय भंडार से ही सुख शान्ति की प्राप्ति होती है।

प्रार्थना कीजिये। अपने हृदय को खोल कर कीजिये चाहे जिस रूप में कीजिए। चाहे जहाँ एकान्त में कीजिये भगवान सर्वत्र है। वे तुरन्त ही आपकी तुतली बोली को समझ लेंगे। प्रातःकाल प्रार्थना कीजिये, मध्याह्न में कीजिये, संध्या को कीजिये, सर्वत्र कीजिये और सभी अवस्थाओं में कीजिये, उचित तो यही है कि आपकी प्रार्थना निरन्तर होती रहे। यही नहीं आपका सम्पूर्ण जीवन प्रार्थनामय बन जाय।

प्रभु से माँगिये कुछ नहीं। वे तो सबके माँ बाप हैं। सबकी आवश्यकताओं को वे खूब जानते हैं। आप तो दृढ़ता से उनके मंगल विधान को सर्वथा स्वीकार कर लीजिये। उनकी इच्छा के साथ अपनी इच्छा को जोड़ कर एक रूप कर दीजिये भगवान की हाँ में हाँ मिलाते रहिये तभी सच्ची शान्ति का अनुभव कर सकोगे।

जब कभी जो भी परिस्थिति अनुकूल अथवा प्रतिकूल आ जाय भगवान को धन्यवाद दीजिए और हृदय से कहिए :-

‘प्रभो मैं तो यही चाहता था।’

भगवान के साथ फुटबाल (गेंद) और खिलाड़ी जैसा सम्बन्ध जोड़िये। उनके खेल की फुटबाल बन जाइये। जिधर की और ठुकराएं, उधर ही ढुलक जाइये।

बस इसी भाँति भगवान की इच्छा में ही अपनी इच्छा को लीन कर देना ही सच्ची प्रार्थना है इसी प्रार्थना के द्वारा आप ऊपर उठ सकेंगे। प्रभु की प्राप्ति का यही सर्वोत्तम उपाय है ‘मामेक शरणं व्रजा।’

अपने स्वार्थ के लिए प्रार्थना करना उचित नहीं। हाँ, दूसरों के कल्याण के लिए प्रार्थना करना उत्तम है। इससे प्रभु प्रसन्न होते हैं।

जहाँ भी सुविधा हो एकान्त में बैठ कर मन को शिथिल कर एकाग्र कर दीजिये नेत्र मूँद लीजिये। विरोधी विचारों को हटा दीजिए। प्रार्थना पर अपने चित्त को बार-बार लगाइये। ज्यों-2 आपका सम्बन्ध परमात्मा के साथ अधिक-अधिक जुड़ता जावेगा, त्यों-त्यों आपके रोम-रोम में पवित्रता का संचार होता जावेगा। विश्वास सिंचित प्रार्थना से तुरन्त ही लाभ होगा। प्रार्थना सुन्दर, श्रद्धा और विश्वासयुक्त होनी चाहिये। प्रभु में प्रीति प्रतीत दोनों ही होनी चाहिये। एक उनके सिवा प्रार्थी की कोई दूसरी गति नहीं होनी चाहिये। श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितना अच्छा कहा है कि :-

सीता पति रघुनाथ जी तुम लगि मेरी दौर। जैसे काग जहाज को, सूझत ठौर न और॥

बाली को भगवान श्री रामचन्द्र जी ने मारा और फटकारा भी, पर ज्यों ही उसने कहा कि :-

प्रभू अजहूँ मै पापी अंत काल गति तोर।

भगवान के हृदय में करुणा का सागर उमड़ पड़ा। चीर हरण के अवसर पर सती द्रौपदी की प्रार्थना में प्रीति, प्रतीति और गति दोनों थी। देखिये।

हाथ उठाय अनाथ नाथ सौं, पाहि पाहि प्रभूपाहि तुलसी निरखि ‘प्रीति-प्रतीत-गति, आरत पाल कृपाल मुरारी’ बसन वेष राखी विशेष लखि विरदावलि नर-नारी॥ इस प्रीति-प्रतीत-गति से युक्त प्रार्थना से अच्युत का भी आसन हिल गया। लेना पड़ा ग्यारहवाँ अवतार (बस्त्रावतार)।

त्राहि तीन कहि द्रोपदी, चुपरहि उठाई हाथ तुलसी कियो ग्यारहों बसन वेष जदुनाथ॥

यह है अलौकिक चमत्कार सच्ची प्रार्थना का।

प्रार्थना रोगियों के लिए धन्वन्तरि है असहायों का सहारा, निर्बलों का बल अनाथों का आश्रय दाता माता पिता है। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो प्रार्थना से प्राप्त न हो सके। पर सावधान ! प्रभु से प्रार्थना करके फिर असार संसार की माँग कर बैठना बहुत अनुचित है। उनके तो केवल एक ही माँग होनी चाहिये-वह यह कि, उनकी कृपा हमारे ऊपर सदा बनी रहे। उनके चरणाम्बुजों की दासता मिलती रहे। यह सारी शक्तियाँ उन्हीं की दी हुई होने के कारण से उन्हीं की सेवा में सदा समर्पित रहे।


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