हिंसा और अहिंसा का आधार हमारी मनोवृत्ति ही है।

November 1959

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(श्री. मेहर बाबा)

अहिंसा का मानव जीवन में बड़ा ऊँचा स्थान है। भारत के कई प्रमुख दार्शनिक तो कह गये हैं कि “अहिंसा परमो धर्मः” अर्थात् धर्म का सबसे बड़ा अंग या स्वरूप “अहिंसा” ही है। वर्तमान समय में महात्मा गाँधी ने “अहिंसा” को सर्वोपरि महत्व प्रदान किया है। और उसके सीमित प्रयोग द्वारा ही एक महान चमत्कार सम्पन्न करके दिखा दिया। पर जैसा सभी विचारशील अनुभव करते हैं “अहिंसा” की व्याख्या और उसके सम्बन्ध में कोई नियम बनाना सहज नहीं हैं। अहिंसा और हिंसा की गति बड़ी सूक्ष्म है और अनेक समय उन दानों का विश्लेषण करना कठिन होता है। अधिकाँश स्वार्थी लोग हिंसा अहिंसा का अर्थ अपनी सुविधानुसार करते हैं और अपने मन को संतोष देने अथवा दूसरों को बहकाने के लिये प्रायः अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं। इस सम्बन्ध में भी मेहर बाबा ने एक लेख में अच्छा विवेचन किया है जिसकी मुख्य बातें यहाँ दी जाती हैं।

सामान्यतः “हिंसा” और “अहिंसा” शब्द इतनी विभिन्न परिस्थितियों पर लागू किये जा सकते हैं कि इन विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना जो अर्थ किया जायगा वह अधूरा ही रहेगा। यहाँ पर हम कुछ ऐसी परिस्थितियों का वर्णन करते हैं, जिनसे हिंसा और अहिंसा की विचार धाराओं के वास्तविक मर्म पर प्रकाश पड़ सकता है :-

(1) मान लो कि एक मनुष्य जो तैरना नहीं जानता, एक झील में गिर गया है और डूब रहा है उसके पास ही एक ऐसा मनुष्य खड़ा है जो तैरने में निपुण है और उसे डूबने से बचाना चाहता है। डूबता हुआ मनुष्य भय घबड़ाहट के सबब से सहायतार्थ आये हुये मनुष्य को ऐसे खराब ढंग से पकड़ता या जकड़ लेता है कि वह स्वयं तो डूबता ही हैं। बचाने वाले को भी डुबा देता है। इस खतरे को समझ कर बचाने वाला डूबते हुये मनुष्य के सिर पर आघात करके उसे बेहोश कर देता है। ऐसी परिस्थिति में सिर पर आघात करना हिंसा नहीं कहा जा सकता।

(2) मानो कि एक मनुष्य किसी ऐसे छूत के रोग से पीड़ित है जो केवल आपरेशन के ही द्वारा अच्छा हो सकता है। इस पीड़ित मनुष्य को चंगा करने के लिये तथा उसकी छूत से दूसरे मनुष्यों की प्राण रक्षा करने के उद्देश्य से एक डॉक्टर अपनी छुरी से उस रोगी के छूत वाले अंग को काट कर अलग कर देता है। इस परिस्थिति में छुरी से अंग को काटना हिंसा नहीं कहा जा सकता।

(3) मान लो कि एक दुष्ट स्वभाव का आक्रमणकारी किसी कमजोर देश पर चढ़ाई करता है। कोई तीसरा बलवान देश उसकी रक्षा करने की सदिच्छा से इस आक्रमणकारी का सामना करता है। ऐसे युद्ध में जो हिंसा होगी उसके लिये तीसरे राष्ट्र को कोई भी हिंसा का दोषी नहीं कह सकता।

(4) मान लो कि एक पागल कुत्ता आक्रमण करने पर उतारू है और स्कूल के बच्चों के उसके द्वारा काटे जाने की संभावना है। बच्चों को बचाने के लिए स्कूल के शिक्षक कुत्ते को मार देते हैं। कुत्ते को मारना हिंसा अवश्य है लेकिन उसमें किसी प्रकार का द्वेष और स्वार्थ न होने से उससे पाप नहीं लग सकता।

(5) मान लो कि एक उद्दण्ड प्रकृति का मनुष्य किसी हृष्ट पुष्ट शरीर वाले मनुष्य पर थूक देता है और इस प्रकार उसे अपमानित करता है। यद्यपि यह उद्दण्ड मनुष्य दुर्बल है अपमानित बलवान व्यक्ति उसे कुचल डालने की शक्ति रखता है, तथापि वह उसे किसी प्रकार क्षति नहीं पहुँचाता, किन्तु उसे शाँतिपूर्वक प्रेम से समझाता है। ऐसा करना अहिंसा है, किन्तु यह बलवान की अहिंसा है।

ऊपर लिखी परिस्थितियों में यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि कौन सा कार्य हिंसा है और कौन सा नहीं है। पहले उदाहरण में डूबते हुये आदमी के सिर पर आघात करने में यद्यपि उसकी अनुमति के बिना बल प्रयोग किया जाता है, तथापि यह कार्य उसकी प्राण रक्षा के निमित्त होता है। साधारण अवस्था में किसी को आघात पहुंचाना हिंसा माना जाता है, पर इस परिस्थिति में चूँकि यह कार्य डूबते हुये मनुष्य के हित के लिये निःस्वार्थ भाव से किया जाता है।

दूसरा उदाहरण पहले से थोड़ा ही भिन्न है यहाँ भी बल प्रयोग किया जाता है, अर्थात् रोगी के छूत वाले अंग को शस्त्र के आघात से काट डाला जाता है। पर यह कार्य रोगी के हित के लिये किया जाता है और अनेक बार पहले से उसकी अनुमति भी ली जाती है। आपरेशन का उद्देश्य केवल रोगी को रोग के आक्रमण से बचाना ही नहीं होता, वरन् उससे संपर्क रखने वाले अन्य लोगों को भी रोग के कीटाणुओं से बचाना होता है। चूँकि आघात या क्षति पहुँचाने की कोई भावना इस कार्य में नहीं होती अतः साधारण अर्थ में इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता। पर इसे अहिंसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि जीवित शरीर के एक भाग को काटने का यह एक प्रत्यक्ष कार्य होता है।

तीसरे उदाहरण की शिक्षा भी ध्यान देने योग्य है। यहाँ किसी स्वार्थयुक्त विचार से नहीं किन्तु केवल दुर्बल राष्ट्र की रक्षा के हेतु से युद्ध किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि आक्रमणकारी पर आघात किया जाता है और उसे क्षति पहुंचाई जाती है। किन्तु इस परिस्थिति में भी हमें हिंसा का प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं मिलता। इस प्रकार के युद्ध का उद्देश्य केवल एक निर्बल राष्ट्र की रक्षा करना ही नहीं होता वरन् अप्रत्यक्ष रूप में उससे आक्रमणकारी का भी हित होता है। उसमें दुर्बल राष्ट्रों को वशीभूत करके उनका शोषण करने की जो दुष्प्रवृत्ति पाई जाती है, और जो एक प्रकार का रोग है, वह इस प्रकार दूर हो जाता है। दुर्बल की रक्षा निःस्वार्थ सेवा का एक मुख्य रूप है और कर्मयोग का एक अंग है। अनिवार्य साधन के रूप में बल का उपयोग करना सेवा के लिये यदि आवश्यक हो तो पूर्णतः न्यायोचित है। इसलिये दुर्बल की रक्षा के लिये यदि कोई युद्ध किया जाय तो यह आवश्यक है कि वह निःस्वार्थ और घृणा रहित हो। तभी उसका पूर्ण आध्यात्मिक महत्व हो सकता है। एक स्त्री पर एक मनुष्य अधम मनोवृत्ति से आक्रमण करता है। और दूसरा मनुष्य स्त्री के सम्मान और प्राण रक्षा के लिये बल का उपयोग करता है, तो वह न्यायोचित है। इसी प्रकार दुर्बल की रक्षा के लिये किया गया बल-प्रयोग भी सर्वथा न्यायोचित है।

चौथे उदाहरण में निःसन्देह हिंसा की बात है, किन्तु घृणा रहित होने और बच्चों के श्रेष्ठतर हित के लिये किये जाने के कारण यह हिंसा न्यायोचित है।

पाँचवे उदाहरण में “वीर” की अहिंसा” का दिग्दर्शन कराया गया है। इसे अकर्मण्यता समझना भूल है। और न यह “कायर की अहिंसा” है जिसमें कोई व्यक्ति भय के कारण आक्रमण का प्रतिकार नहीं करता। इसमें हिंसा न होने पर भी उसका कोई महत्व नहीं हैं। इस प्रकार विश्लेषण करने से मालूम होता है कि हिंसा और अहिंसा का आधार व्यक्ति की मनोभावना पर है। यों तो अहिंसा की सबसे उच्च स्थिति वह है जिसमें व्यक्ति समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझता हुआ शत्रुता और मित्रता दोनों से परे रहता है और किसी भी परिस्थिति में हिंसा की भावना का उसके मन में प्रवेश नहीं होता, पर यह जीवन्मुक्त पुरुषों की बात है। साँसारिक व्यवहार में हमको अपनी मनोभावनाओं के अनुसार ही हिंसा अथवा अहिंसा का निर्णय करना चाहिये।


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