(श्री. रमेशचन्द्र शुक्ल एम. ए.)
संसार में जन्म लेकर जीवित तो सभी प्राणी रहते हैं, पर मनुष्य योनि में आकर सफल जीवन उसी का कहा जाता है जो सुख, समृद्धि, यश गौरव आदि प्राप्त करके लोगों के बीच उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित होता है। ऐसे व्यक्ति समाज में मुखिया, संचालक, नेता आदि नामों से पुकारे जाते हैं। पर इससे भी महान् पद मनुष्य को तब प्राप्त होता है जब वह आत्मज्ञान प्राप्त करके संसार के हित-साधन को अपना लक्ष्य बना लेता है।
सुख समृद्धि आदि भौतिक जगत से सम्बन्ध रखने वाली बातें हैं और उनके प्राप्त करने में विज्ञान से सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार के भौतिक ज्ञान को शास्त्र में “अविद्या”कहा गया है, जैसे-
विद्याँ चाऽविद्याँ न यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युँ तीर्त्वा विद्यया ऽमृतमश्नुते॥
उपनिषद् के इस वाक्य में स्पष्ट कहा गया है कि मृत्युलोक के धन्धों को चतुराई के साथ सम्पन्न करने के लिये “अविद्या” ही उपयोगी होती है। यहाँ “विद्या” से जो लोग लिखने-पढ़ने का आशय समझेंगे वे इस तत्व को कभी न जान सकेंगे। संसार के साधारण लोगों की दृष्टि में तो यह “अविद्या” ही असली विद्या जान पड़ती है, और जिसे उपनिषद्कार ने विद्या कहा है वह निकम्मी तुच्छ वस्तु प्रतीत होती है। क्योंकि उनके कथनानुसार तो जो ज्ञान पेट भरने, चाँदी की टुकड़े को प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है वही असली विद्या है। इसके विपरीत जिस ज्ञान से मनुष्य को अकिंचन अवस्था में रहना पड़े दिन भर परिश्रम करने पर भी दो चार रुपये गाँठ में दिखाई न दें यह विद्या नहीं, परम मूर्खता का चिन्ह है। गीता में भी इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से कह दिया गया है-
या निशा सर्व भूतानाम् तस्याँ जागृति संयमी। यस्याँ जागृति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने॥
इस श्लोक में भी यही बतलाया गया है कि जिस विषय को संसारी लोग रात्रि के समान अन्धकार निरुपयोगी मानते हैं, ज्ञानी जन उसी के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, जिन बातों को दुनिया वाले बड़ी महत्व एवं लाभ की समझते हैं, ज्ञानवान उनकी तरफ से आँखों बन्द कर लेते हैं।”
संसार में आज तक जितने भी महापुरुष, ज्ञानी संत हुये हैं उन सबको, चाहे वे किसी देश और जाति के क्यों न हों यही कहा है कि शरीर-रक्षा और आश्रितों के पालन के लिये मनुष्य कोई व्यवसाय या रोजगार भले ही करता रहे, उसे यह सदैव याद रखना चाहिये कि उसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष लाभ करना ही है। साथ ही यह भी कह दिया गया है कि विद्या और अविद्या दोनों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करके लौकिक और पारलौकिक उद्देश्यों को एक साथ पूरा कर लेना सरल काम भी नहीं है। उसके लिये जीवन में उत्तम प्रकार के संयम और प्रलोभनों से बचकर रहने की आवश्यकता है। इसीलिये कहा गया है-
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्
“जो लोग सुख के फेर में पड़े रहते हैं उनको विद्या के दर्शन नहीं हो सकते और जो विद्या की आकाँक्षा रखने वाले हैं। उनको सुख की लालसा नहीं रखनी चाहिये।” इस मार्ग पर चल कर विद्या का प्राप्त कर सकना उन्हीं “विद्यार्थियों” के लिये सम्भव है जो आलस्य, मद, मोह, चंचलता, अभिमान, उद्दंडता आदि से बचकर ज्ञान की आराधना किया करते हैं। इस प्रकार के “विद्यार्थियों” को उचित मार्ग का प्रदर्शन भी वे ही दिव्य चरित्र वाले महानुभाव कर सकते हैं जो साँसारिक वैभव, सुखोपभोग से निर्लिप्त रह कर संसार के उद्धार का व्रत लिया करते हैं।
बिना ज्ञान के प्रसार के संसार में सच्चे सुख और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। सैन्यबल, राज्य बल और अर्थबल से जो सुख-शान्ति प्राप्त की जाती है वह क्षणिक हुआ करती है। परन्तु ज्ञान अर्थात् विद्या के प्रभाव से जो शाँति स्थापित की जाती है, वह पर्याप्त समय तक स्थिर रह कर लोक कल्याण करती रहती है। यही कारण है कि प्राचीन भारत में ज्ञान को सर्वोपरि स्थान दिया गया था। यहाँ पर ज्ञान- प्रचार का कार्य करने वालों को सबसे अधिक श्रद्धाभाजन बतलाया गया था और उच्च स्वर से घोषित कर दिया था-
“नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते।”
“ज्ञान के सदृश्य पवित्र संसार में अन्य कोई नहीं है।” प्राचीन भारत की आश्रम-व्यवस्था में ब्रह्मचर्य आश्रम को सबसे अधिक महत्व और वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस देश की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में भौतिक पदार्थों के बजाय ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया गया था। खेद का विषय है कि आज हम इन्हीं दोनों को सबसे अधिक उपेक्षित दशा में देख रहे हैं।
ज्ञान-प्रसार के अभाव से देशों में जो कष्ट और अशान्ति का वातावरण दिखलाई पड़ रहा है उसका दोष शासकों अथवा धनवानों पर उतना अधिक नहीं रखा जा सकता है जितना कि उस वर्ग पर जो ज्ञान विभाग का उत्तरदायी बनाया गया था और जिसे “ब्राह्मण” का नाम दिया गया था।
यह “ब्राह्मण”वर्ग वही है जिसके पूर्वजों ने अपने जीवन का ध्येय अध्ययन और अध्यापन बनाया था, यह ब्राह्मण कही जाने वाली जाति वही है जिसने किसी भी साँसारिक मान, किसी भी वैभव और किसी भी पद को महत्व न देकर ज्ञान को ही एक मात्र श्रेष्ठ विषय समझ कर अपनाया था। इसके लिये उन्होंने न केवल दरिद्रता, गरीबी को सहर्ष स्वीकार किया था, वरन् आवश्यकता पड़ने पर जिसके लिये वे अपना जीवन भी उत्सर्ग कर देते थे। यही कारण था कि उस समय देश के छोटे से लेकर बड़े से बड़े तक सब कोई ब्राह्मणों की महिमा को बखानते थे और उनके चरणों में मस्तक नवाना सौभाग्य का चिन्ह मानते थे।
पर आज उन्हीं ब्राह्मणों के वंशधर अपने कर्तव्य को भूल गये हैं और भौतिक सम्पत्ति के लिये नीच से नीच कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। बस जहाँ उन्होंने अपने कर्तव्य की ओर से निगाह फेरी कि जनता में भी उनका दर्जा घट गया और लोग उनको अवहेलना की दृष्टि से देखने लगे। पूजा तो गुणों के कारण ही होती है। जब वह श्रेष्ठ कर्म ही न रहे तो लोगों की श्रद्धा कैसे टिक सकती थी इसलिये जो लोग ब्राह्मणों की उपेक्षा और दुर्दशा की शिकायत करते हैं उनको वास्तविक कारणों पर ध्यान देना चाहिये। यदि ब्राह्मण अब भी अपने प्राचीन कर्तव्य पर आरुढ़ हो जाएं और साँसारिक सुखों का मोह त्याग कर जन-कल्याण को अपना ध्येय बना लें तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि सर्वसाधारण की दृष्टि में वे फिर वैसे ही पूजनीय बन जायेंगे।