हम क्या चाहते है?

November 1959

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लोग समझते हैं कि संसार में और हम कुछ जानें या न जाने हमारी इच्छा ही हमारे लिए सबसे अधिक सुस्पष्ट है और वही सर्वाधिक जाज्वल्यमान है। किन्तु यह निरा भ्रम है। वास्तव में यथार्थ इच्छा ही हमसे अगोचर रहती है। उसके अगोचर रहने का एक कारण यह है कि हमें उस इच्छा ने ही नाना अनुकूल और प्रतिकूल अवस्थाओं के भीतर से गढ़ने का भार ले रखा है। जो विराट इच्छा मनुष्य मात्र को मनुष्य बनाने के लिए उद्योगी है वास्तव में वही हमारे अन्तः करण में रहकर अपना काम करती रहती है। वह इच्छा तब तक अदृश्य रूप से अपना कार्य करती रहती है जब तक हम अपने आपको सर्वांश में उसके अनुकूल नहीं पाते।

जो इच्छा मनुष्य की सार्थकता की साधना में रत है वही उसकी सबसे अच्छी और नित्य की इच्छा है। मनुष्य की इच्छा उससे तब तक गुप्त रहती है जब तक उसकी सार्थकता उसके लिए एक रहस्य बनी रहती है। “किस चीज से मेरा पेट भरेगा या किससे मेरी कीर्ति होगी” यह बताना कोई कठिन नहीं है किन्तु “किस में पूर्ण होऊँगा” “मैं कौन हूँ, मेरे भीतर जो प्रकाश चेष्टा है उसका क्या परिणाम है, उसका उद्देश्य क्या है” इस बात को कौन स्पष्ट रूप से जानता है तथा अब तक कितने व्यक्तियों ने जान पाया है।

वस्तुतः हम लोगों का जीवन इसीलिए है और हम निरन्तर इसी काम में लगे रहते हैं। अपनी उसी अदृश्य इच्छा से प्रेरित होकर इसी बात की रातदिन परख कर रहे है। आज कहते हैं खेल चाहिए कल कहते हैं धन चाहिए परसों कहते हैं मान चाहिए। इस तरह रातदिन अविश्राम गति से संसार सागर का मंथन कर रहे हैं। यह जानने के लिए कि हम क्या चाहते हैं। हम समझते हैं कि रुपया ढूंढ़ते हैं, या, बन्धु ढूँढ़ते हैं। किन्तु ये अपनी अन्तः इच्छा की प्यास को बुझा नहीं पाते और इसके उपरान्त भी हमें क्या चाहिए इसके लिए चारों तरफ खोज करते फिरते हैं, भटकते हैं।

जिन्होंने अपनी उक्त इच्छा का अन्तः प्रेरणा का सन्धान पा लिया है वे कहते हैं और प्रार्थना करते हैं।

“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्माऽमृत गमय। अविरावार्म एधि।

रुद्रयत्ते दक्षिणं मुखंतेन माँ पाहिनित्यम्”

असत्य से मुझे सत्य में ले जाओ। अंधकार से मुझे ज्योति में ले जाओ, मृत्यु से मुझे अमृत में ले जाओ। अंधकार से मुझे ज्योति में ले जाओ। मृत्यु से मुझे अमृत में ले जाओ हे स्व प्रकाश, मेरे निकट होओ। रुद्र तुम्हारा जो प्रसन्न मुख है उसके द्वारा तुम मेरी सदा काल रक्षा करो।

मनुष्य के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि निरंतर के प्रयत्न से अपनी सच्ची इच्छा नित्य इच्छा का सन्धान प्राप्त करे। तत्पश्चात सच्चे हृदय से उक्त प्रार्थना करें तभी वह संपूर्ण बन सकता है। किन्तु इसे केवल कानों से सुनने से कोई फल नहीं। मुँह से उच्चारण मात्र कर लेना तो ओर भी वृथा है। जब हम सत्य को, आलोक को, अमृत को यथार्थ में चाहेंगे और अपने सम्पूर्ण जीवन से उसका परिचय देंगे तभी उक्त प्रार्थना सफल हो सकती है। जिस प्रार्थना को हम मन में प्राप्त नहीं कर सकते उसके पूर्ण होने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती । अतः सुनकर अथवा मुँह से बोलकर भी हमें अपनी उस प्रार्थना को सम्पूर्ण जीवन लगाकर सन्धान करना होगा। सत्य की आकाँक्षा, अमृत की आकाँक्षा, हमारी समस्त आकाँक्षाओं में अन्तर्निहित है किन्तु हम तब तक उसे नहीं पा सकते जब तक वह अपने सम्पूर्ण धूलि स्तर को विस्तीर्ण करके मुक्त आकाश में अपने पंख नहीं फैला लेता।

-टैगोर-

*समाप्त*


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