आत्मोन्नति के पथ पर

May 1959

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(श्री भगवान सहाय वाशिष्ठ)

मानव ने विज्ञान के बल से कई तरह की शक्तियाँ प्राप्त कर ली हैं फिर भी दो घटनायें उसकी आँखें खोल देती हैं। यहाँ वह बराबर सोचता है कि आखिर यह प्रपंच क्यों है? जन्म मरण के प्रश्नों पर विचार करते ही उसका सिर झुक जाता है। अन्त में आश्चर्य चकित होकर यह कहना ही पड़ता है कि अवश्य ही कोई विशेष शक्ति इस सृष्टि का संचालन एवं नियमन कर रही है। “मैं कौन हूँ” “कहाँ से आया हूँ” ‘यहाँ आने का क्या उद्देश्य है’ “मेरी इच्छा के बिना भी मौत क्यों आती है” इन प्रश्नों के पैदा होते ही मनुष्य का भौतिक ऐश्वर्य, बड़ाई, सम्पत्ति भोग आदि नीरस जान पड़ते हैं। निरन्तर इन प्रश्नों का सही उत्तर प्राप्त करके शान्ति प्राप्त करना चाहता है। किन्तु इनका उत्तर बाहर से नहीं मिलता। और इनका उत्तर पाने के लिए अंतर्दृष्टि करनी पड़ती है। इस तरह मानव जीवन में एक मोड़ पैदा हो जाता है। वह बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाता है। साथ ही उस सृष्टि निर्माता की शरण लेनी पड़ती है जिसके प्रसाद स्वरूप इन प्रश्नों का उत्तर मिलता है और मनुष्य अपने आपको पहचान कर स्वान्तः सुख की प्राप्ति करता है।

भारतीय ऋषियों ने व महापुरुषों ने बहुत पहले ही इन प्रश्नों पर विचार करके सही उत्तर प्राप्त किया था। इतना ही नहीं उन्होंने उस परम पिता का साक्षात्कार कर उसी महान् सत्ता को स्वीकार एवं प्रतिपादित किया था, जिसके परिणामस्वरूप वेद, उपनिषद्, मीमाँसायें, स्मृतियाँ, दर्शन आदि अब भी हमारी इस आध्यात्मिक पिपासा को शान्त कर रहे हैं।

अन्तर दृष्टि होते ही हम मनुष्य की तीन स्थितियाँ अनुभव करने लगते हैं। प्रथम-पशु दशा जिसमें प्राणी में देह बुद्धि की प्रधानता रहती है। देह सम्बन्धी सुख दुःख भोग आदि को ही स्वयं में अनुभव करने लगता है। दूसरी होती है मनुष्य दशा जिसमें मानवोचित मर्यादाओं का पालन होता है। तीसरी है देव दशा अर्थात् सूक्ष्म आत्मस्थिति, ब्राह्मीस्थिति जो मानव की जीवन सिद्धि की अन्तिम मंजिल है। इस स्थिति में स्थित हुआ जीवात्मा उस परम पिता परमात्मा के साक्षात्कार की लम्बी यात्रा पूरी करता है। ऐसा व्यक्ति शरीरान्त पश्चात सर्वत्र चाँदनी की तरह छिटक जाता है, लौ में लौ मिल जाती है, चिद्रूप हो जाता है।

प्रकृति का स्वभाव है कि वह अधोगामिनी है। वह मनुष्य को मनुष्यत्व की मर्यादाओं से हटाकर पशुत्व की ओर ले जाती है। किन्तु मानव ईश्वर प्रदत्त पुरुषार्थ के बल से अपने चित्त प्रदेश में चलने वाले विकार-युद्धों से लोहा लेता हुआ पशुता का अतिक्रमण कर मनुष्यत्व में पहुँचता है और इसी तरह मनुष्यत्व से देवत्व की ओर। देवदशा का वह पवित्र अनुभव उसे आनन्द में सराबोर कर देगा।

इस प्रकार पशुत्व से देवत्व की ओर बढ़ने का नाम ही अध्यात्म विकास, आत्मोन्नति, जीवनलाभ आदि है। किन्तु यह साधारण कार्य नहीं है। इसके लिए पूर्ण शक्ति भर साधन, आत्म परीक्षण की बारीकियाँ, इस मार्ग में आने वाले विघ्नों से लोहा लेना आदि किसी तरह कम महत्व के नहीं हैं।

सर्वप्रथम हम इस मार्ग में रुकावट डालने वाली बातों पर विचार करें। अपनी आत्मीयता को विकसित करके इसकी विशाल भूमिका बनाने में साधारणतया तीन तरह के विघ्न होते हैं। (1) जन्म जात या स्वाभाविक (2) वंश परम्परागत (3) व्यक्तिगत अर्थात् स्वयं पनपाया हुआ। इनमें प्रथम अधिक शक्ति शाली होता है। कई जन्मों से चले आ रहे इन स्वाभाविक जन्मजात बुरे संस्कार रूपी विघ्नों का मूलोच्छेद करना किन्हीं-किन्हीं का काम होता है। इन संस्कारों को मिटाने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना पड़ता है। शेष दो से लोहा लेना कठिन नहीं है।

इन तीनों कारणों से भिन्न-भिन्न विघ्न जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने में आते हैं। उनमें प्रमुखतः निम्न हैं—

(1) क्रोध अर्थात् आवेश :- जब मनुष्य का तन या मन किसी ‘आवेश एवं क्रोधवशात्’ अनियंत्रित हो जाता है तो कोई भी कार्य सुचारु रूप से एवं बुद्धिपूर्वक नहीं हो सकते।

(2) भोग एवं विषयों से प्रीति :- यह इतना बुरा दुर्गुण है कि साधक यदि सावधानी से काम न ले तो उसे पछाड़ देता है। उसका आत्मनियन्त्रण समाप्त हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप शीघ्रता से पतन की ओर जाने लगता है।

(3) लोभ :- अपनी भावी आवश्यकताओं की कल्पना करते हुए परिग्रह के लिए व्यस्त रहना। बुढ़ापे में क्या होगा, मेरे बाल-बच्चे की परवरिश कैसे होगी, मेरा अमुक काम कैसे चलेगा आदि विचारों से लोभ की नींव जमती है। मनुष्य इसमें रत होकर अपना वास्तविक मार्ग भूल जाता है।

(4) मोह एवं सत्ता :- लौकिक सम्बन्धों को प्रधानता देकर अपने पराये की भावना रखना एवं अधिकार का गर्व यह एक दुर्गुण ही नहीं अपितु जीवन सिद्धि में बड़ा भारी शत्रु है। यह उसे सही मार्ग से भुलाकर कण्टकाकीर्ण मार्ग में भटका देता है।

(5) आलस्य :- साधन पथ का एक बड़ा विघ्न है। निरन्तर साधना एवं पुरुषार्थपूर्ण प्रयत्नों से जी चुराकर बैठे रहने से सफलता कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है।

(6) तृष्णा :- अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाकर उसकी पूर्ति के लिए लालायित रहना तृष्णा जैसे विघ्न को उत्पन्न करना है।

साधक को इन विघ्नों से अधीर एवं व्याकुल नहीं होना चाहिए। साथ ही परिणाम के उतावलेपन में अपनी साधना में बाधा नहीं करनी चाहिए। धीरे-धीरे प्रयत्न के साथ इनको हटाना चाहिए। अचानक ये बुराइयाँ एवं विघ्न कभी भी समाप्त नहीं होते। “शनै शनैरुरमेद बुद्ध्याधृति गृहीतया” गीता के इस सिद्धान्त से इन सभी की जड़ों को काटना चाहिए।

इन बुराइयों में प्रवृत्त होने एवं इन्हें बढ़ाने में भ्रम का बहुत बड़ा हाथ होता है। भ्रम में भटक कर मनुष्य सत्पथ से झूठे विश्वास पर विचलित हो जाता है। “अपने कुटुम्ब को निराधार कैसे छोड़ूं इसके लिए तो जैसे तैसे कमाना उचित ही है।” बड़े-2 महापुरुष आये और चले गये फिर भी सृष्टि क्रम वैसा ही चल रहा है फिर मैं क्यों अपने जीवन को परेशानी एवं उलझनों में डालूँ”। “अमुक व्यक्ति मेरा रिश्तेदार , गाँव का, जाति का है उसकी सिफारिश करके या जैसे तैसे अमुक काम में मदद करना मेरा काम है।” इन भ्रमों में पड़ने पर मनुष्य वास्तविकता को भूल जाता है। कर्तव्य पथ से च्युत हो जाता है। इससे बचने के लिए कर्तव्य का सूक्ष्म निरीक्षण एवं अपनी मानसिक शक्तियों का विकास करना आवश्यक है।

अध्यात्म विकास एवं आत्मोन्नति के लिए “प्रार्थना” का महत्व जानना आवश्यक है। प्रार्थना की महत्ता एवं प्रधानता इस पथ पर सभी ने स्वीकार की है। ठोस विज्ञान पर आधारित योग मार्ग ने भी ईश्वर प्रणिधान की प्रधानता का अनुमोदन किया है। स्तुति, उपासना और प्रार्थना साधक के लिए आवश्यक है।

अतः अपने पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए परमात्मा का अस्तित्व सर्वोपरि स्वीकार करना आवश्यक है। उसका अंश समझना ही साधक का अपने ध्येय पथ पर अग्रसर होना समझना चाहिए। ईश्वर के दिव्य गुणों का चिन्तन एवं वर्णन कर उसकी स्तुति करना चाहिए। पुनः उन दिव्य गुणों से सम्पन्न परमेश्वर का स्वयं में ध्यान के द्वारा दर्शन करना चाहिए, क्योंकि उसका अंश रूप ही तो उसका यह युवराज है। फिर अपनी सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करना चाहिए क्योंकि उस का निवास हर जगह एवं प्रत्येक प्राणियों में है। अतः स्वयं भी उस सर्वात्म दृष्टि को रखते हुए सबकी सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। पूजा उपासनाओं का उद्देश्य इसी से सम्बन्ध रखता है। यदि इसी तत्व को समझते हुए पूजा उपासनायें की जायँ तो सफलता अवश्य मिलती है।

क्योंकि पिता सदैव अपने पुत्रों का हित चाहता है अतः अवश्य ही हमें कल्याण पथ की ओर अग्रसर करेगा। प्रभु का जीवन-सिद्धि रूपी प्रसाद अवश्य मिलेगा। उक्त प्रार्थना यदि कृत्रिम होगी तो असफलता मिलेगी और यदि इसके साथ हृदय की धारा प्रवाहित होवे तो चमत्कार रूप में परिणाम शीघ्र ही उपलब्ध होगा। साधक के करुणा एवं प्रेम भरे हृदय से निकली हुई आवाज अवश्य ही प्रभु तक पहुँचती है। वह शीघ्र ही अपने भक्त की रक्षा के लिए , गज की पुकार एवं द्रौपदी की लाज बचाने के समय जैसे चले आये थे, उसी तरह पहुँचते हैं। महापुरुष एवं भक्त सदैव से ही इसका अनुभव करते आये हैं।


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