(श्री क. ख. ग)
पदार्थों को जिस रूप में हम देखते हैं, समझते हैं, वस्तुतः उनकी भीतरी गुप्त शक्ति उससे कहीं अधिक होती है। पानी गड्ढे या तालाबों में ढेरों भरा पड़ा रहता है, पर उसकी कुछ विशेष शक्ति प्रतीत नहीं होती। पर जब उसे भाप के रूप में परिणित किया जाता है तो एक छोटी टंकी भरा पानी हजारों मन भारी रेल को तूफान की चाल से दौड़ा ले जाता है। रेल की चाल वस्तुतः उस थोड़े से कुछ मन पानी की शक्ति है जिसका साधारणतः कुछ विशेष महत्त्व प्रतीत नहीं होता। पानी की सूक्ष्म शक्ति हम तब अनुमान करते हैं जब वह रेल दौड़ाने का चमत्कार दिखाता है, साधारण बुद्धि उस छिपी शक्ति को समझने में प्रायः असमर्थ ही रहती है।
पानी की यह सूक्ष्म शक्ति वह हुई जिससे रेल चलती है। इससे भी अधिक सूक्ष्म एक और शक्ति उसमें है जिसे कारण-शक्ति या अध्यात्म-शक्ति कहते हैं। पानी में पवित्रता की कारण-शक्ति सन्निहित है, जल प्यास को बुझाता है यह सर्व विदित है, कपड़े, शरीर या फर्श का मैल धो डालना भी उसका गुण है। यह बातें सभी को विदित हैं। पर उसकी कारण-शक्ति को पहचानना हर किसी का काम नहीं। यह मशीनों की सहायता से नहीं जानी जा सकती, वैज्ञानिक उपकरणों की पहुँच अभी इतनी नहीं हो पाई है जिससे यह जाना जा सके कि किस पदार्थ में क्या कारण-शक्ति सन्निहित है। उसकी समुचित परीक्षा अध्यात्म शक्ति से ही होती है।
जल में कारण-शक्ति पवित्रता की है। वह न केवल हमारे शरीर का मैल छुड़ाता है वरन् आत्मिक दृष्टि से भी हमें पवित्रता प्रदान करता है। हिन्दू धर्म में स्नान का महत्व बहुत बताया गया है। प्रत्येक धार्मिक कार्य के पूर्व स्नान आवश्यक है। दैनिक जीवन में भी नित्य स्नान के बिना भजन नहीं होता। स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से जाड़े के दिनों में रोज स्नान करना आवश्यक नहीं। योरोप के ठंडे देशों में लोग बहुत-बहुत दिनों बाद नहाते हैं। पर उससे इनके स्वास्थ्य में कोई अन्तर नहीं आता। जाड़े की ऋतु में वैसी ही स्थिति जब इस देश में हो जाय तो शरीर-शास्त्र की दृष्टि से स्नान की उतनी आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु अध्यात्म दृष्टि से पानी के अन्दर जो पवित्रता प्राप्त हुई है, उसका उपयोग अन्तःकरण की पवित्रता बढ़ाने तथा स्थिर रखने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक माना गया है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमारी धर्म परम्परा में स्नान को एक आवश्यक धार्मिक कर्त्तव्य माना गया है।
जल की स्थूल शक्ति खेती सींचने, ठण्ड के बनाये रखने, प्यास बुझाने तथा सफाई करने की है। उसकी सूक्ष्म शक्ति रेल को दौड़ाने जैसे प्रचण्ड कार्य कर सकने वाली सामर्थ्य के रूप में परिलक्षित होती है। कारण-शक्ति के रूप में उसकी शक्ति हमारे अन्तःकरण, मन, विचार तथा चेतना स्तर को पवित्रता प्रदान करती है।
सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने अपनी लाखों वर्षों की तप साधनाओं द्वारा उपलब्ध अपनी आत्म-शक्ति से संसार के विभिन्न पदार्थों का अन्वेषण एवं विश्लेषण करके उनकी कारण-शक्ति का पता लगाया था और उसके द्वारा मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक हेर-फेर करने की प्रक्रिया बनाई थी। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में जड़ी-बूटियों, के रासायनिक पदार्थों के, खंड-खंड करके उनके सूक्ष्म गुणों का पता लगाया जाता है और उनका किस रोग के निवारण में या किस कार्य में किस प्रकार क्या उपयोग हो सकता है, यह पता लगाया जाता है। यह विश्लेषण कार्य रसायनशाला में लगे कुछ उपकरणों के आधार पर या अन्य परीक्षणों द्वारा जान किये जाते हैं। पर उनकी कारण-शक्ति का पता लगाने के बारे में कोई वैज्ञानिक उपकरण नहीं बन सके हैं। वैज्ञानिक क्षेत्र भौतिक शक्ति तक ही सीमित है, इसलिए उसके द्वारा कारण-क्षेत्र की खोज कर सकना कठिन भी है।
किसी पदार्थ की स्थूल सामर्थ्य की अपेक्षा उसकी सूक्ष्म शक्ति की क्षमता हजारों गुनी होती है। कपड़े धोने, सफाई का काम करने की अपेक्षा जल की वह सूक्ष्म शक्ति जो रेल चलाती है, हजारों गुनी अधिक महत्वपूर्ण है। इससे भी गहरी वह शक्ति है जो पवित्रता प्रदान करती है-वह इस रेल चलाने की सामर्थ्य की तुलना में हजारों गुनी अधिक महत्वपूर्ण है। रेल तो बिजली, तेल, पैट्रोल आदि से भी दौड़ाई जा सकती है, पर अन्तःकरण की पवित्रता जो मनुष्य को महापुरुष एवं देवता तक बना सकती है कितनी महान है इसकी कल्पना भी करना कठिन है। जिस प्रकार मामूली वस्तु के भी परमाणु (एटम) उस वस्तु की अपेक्षा करोड़ों गुने शक्तिशाली होते हैं, उसी प्रकार हर पदार्थ की कारण सत्ता में ही उसकी वास्तविक एवं प्रचंड शक्ति छिपी रहती है।
तुलसी का पौधा हमारे यहाँ बहुत पवित्र माना जाता है। उसे घरों में स्थापित करते हैं, पूजा करते हैं, प्रसाद पंचामृत आदि पवित्र धर्म विधानों में उपयोग करते हैं। कोई व्यक्ति मरने को होता है तो उसके मुख में तुलसीदल डालते हैं। तुलसी के बारे में जो यह पवित्र भावना हमारे समाज में प्रचलित है वह अकारण नहीं है। उसके पीछे उसकी कारण-शक्ति ही सन्निहित है। तुलसी का पौधा जिस घर में रहेगा वहाँ सतोगुणी प्रवृत्तियाँ, धर्म भावना, संयम, सदाचार का वातावरण तैयार करेगा, उसमें निरन्तर प्रवाहित होती रहने वाली अदृश्य, तरंगें पवित्रता एवं धार्मिकता की चेतना उसी प्रकार फैलाती रहती हैं जिस प्रकार गुलाब के फूल से सुगन्ध फैलती है। सुगन्ध को हमारी नाक पहचानती है, इसलिए उसके गुण पर अविश्वास का कोई कारण नहीं होता, पर तुलसी की कारण-शक्ति को नाक या आँख से देखा, सूँघा नहीं जा सकता, इसलिए हमारा मन बहुधा विचलित हो जाता है और अविश्वास एवं संदेह प्रकट करने लगता है।
किसी पौधे या खाद्य पदार्थ की स्थूल शक्ति वह है जो उसे देखने सूँघने या चखने से अनुभव में आती है। मिर्च का चरपरापन, टमाटर की खटाई, फूल की लुभावनी सूरत तथा गंध उसकी स्थूल सामर्थ्य कहीं जा सकती हैं। मिर्च की दाहकता, टमाटर का रक्त शोधक गुण, गुलाब की शीतलता तथा विरेचन, उसकी सूक्ष्म सामर्थ्य है जो दिखाई तो नहीं पड़ती पर शरीर यन्त्र के भीतरी कलपुर्जों द्वारा या वैज्ञानिक मशीनों द्वारा आसानी से पहचानी जा सकती है। पर इन पदार्थों में कारण-शक्ति —मनुष्य के अन्तःकरण पर प्रभाव डालने वाली सामर्थ्य क्या है, इसे किस प्रकार जाना जाय? इसे जानने का एकमात्र तरीका आत्मशक्ति ही है। वह आत्मशक्ति जिसने प्राचीनकाल में खगोल विद्या आदि महत्वपूर्ण विद्याओं का बिना किसी मशीन या दूरबीन की सहायता के पूरा-पूरा अन्वेषण कर लिया था, इन पदार्थों की कारण शक्ति को जानने का प्रमुख आधार हो सकती है।
वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से तुलसी और करंजवा में लगभग एक समान गुण हैं। दोनों ही कीटाणुनाशक तथा ज्वर निरोधक हैं। रासायनिक विश्लेषण की दृष्टि से इन दोनों में आश्चर्यजनक समता है। यह सब होते हुए भी तुलसी की पूजा होती है, उसे घरों में लगाया जाता है, पर करंजवा के पौधे को वह श्रेय नहीं दिया गया है। पूजा उपकरणों में तुलसीदल के स्थान पर करंजवा के पत्ते काम में नहीं आ सकते हैं और न माला के काम में ही तुलसी के स्थान पर करंजवा की लकड़ी काम में लाई जा सकती है। इस भेद-भाव का आधार दोनों की कारण-शक्तियों में अन्तर होना ही है।
हमारे धर्म शास्त्रों में कई वृक्षों, वनस्पतियों, पशुओं, सरिताओं, सरोवरों, पर्वतों, प्रदेशों को विशेष महत्व दिया गया है। पीपल का वृक्ष पूजा जाता है, उससे भी बड़े तथा उपयोगी अन्य वृक्षों को वह मान्यता प्राप्त नहीं है। गाय की अपेक्षा भैंस अधिक दूध तथा घी देती है पर उसकी पूजा नहीं होती क्योंकि गाय के शरीर, गोबर, मूत्र, दूध, घी तथा साँस में जो पवित्रता उत्पन्न करने वाले तत्व हैं, वे भैंस में नहीं हैं। दूध, घी अधिक प्राप्त करने के लिए भैंस खरीदी जा सकती है पर कन्या के विवाह में गौदान के समय तथा मृत्यु काल में वैतरणी पार करने के लिए भैंस का दान करने से काम नहीं चल सकता। पंचगव्य पंचामृत में गोरस ही उपयोग होगा। गाय का दूध पीने वाले में बुद्धिमत्ता, स्फूर्ति, सात्विकता आदि आत्मिक चेतनाएँ बढ़ती हैं। इसके स्थान पर भैंस का दूध अधिक गाढ़ा, स्वादिष्ट चिकना होते हुए भी आलस्य, मंदबुद्धि, तमोगुण एवं जड़ता पैदा करता है। मशीनों से इस अन्तर को साबित नहीं किया जा सकता पर दो व्यक्तियों को गाय और भैंस के अलग-अलग दूध पिलाकर कुछ ही दिनों में उसके स्वभाव में उत्पन्न होने वाला अन्तर आसानी से जाना जा सकता है। कारण-शक्ति की परीक्षा का सीधा तरीका यही है कि उन पदार्थों का उपयोग व्यक्तियों को कराकर देखा जाय कि उनके अन्तःक्षेत्र में पहले की अपेक्षा क्या अंतर हुआ। यद्यपि जीवन की गतिविधियाँ अन्य कारणों पर भी निर्भर रहती हैं, पर कोई भी पदार्थ अपनी सूक्ष्म चेतना का प्रभाव उपयोग करने वाले पर छोड़े बिना रहता नहीं है। इसलिए हमें प्रत्येक पदार्थ का उपयोग करने से पूर्व उसकी कारण-शक्ति के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर लेनी आवश्यक है।