साँसों का सरगम भरो समय के अधरों में,
चलती साँसों को जीने दो, दफनाओ मत!
कुछ और बढ़ाओ उम्र दिलों के धड़कन की,
जीवित जग को जहरीला कफन उढ़ाओ मत!!
जाकर मिट्टी से तिलक करो मानी नभ का,
पदरज से पावन कर दो चाँद-सितारों को!
शंकर बन कर मानवता का विष जी जाओ,
बंदी कर लो मुट्ठी में शोख बहारों को!!
तुम कर पाओ तो करो हलाहल को अमृत—
लेकिन दुनिया को विष के घूँट पिलाओ मत!!
अब तो उस दिन को और निकट लाओ मानव,
जिस दिन अपनी धरती नभ का इतिहास लिखे!
ऊपर तो देख-देख कर आँखें पथराई,
अब भू के दर्पण में नभ का प्रतिबिम्ब दिखे!!
हर दीपक को सूरज-सी उमर दिलाओ तुम—
घर-घर में जलने अनगिन दीप बुझाओ मत!!
साँसों के चलने का तो एक बहाना है,
मानवता जीवित है अपने विश्वासों से!
जीवन खुद अपना गला घोंट लेगा उस क्षण,
जब मौत सजायेगी धरती को लाशों से!!
विष के बादल बन-बन कर मत बरसो भू पर,
प्राणों को बूँद-बूँद के हित तरसाओ मत!!
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—महेश संतोषी