हिन्दू धर्म का एक प्रधान स्तम्भ-गीता

May 1959

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(श्री ब्रह्म प्रकाश जी)

मनुष्य का सर्वप्रधान उद्देश्य जीवन के रहस्य को समझना और तदनुसार बुद्धिमत्ता पूर्वक व्यतीत करना बतलाया गया है। सभी धर्म शास्त्रों में नीति, चरित्र, परोपकार आदि के जो उपदेश दिये गये हैं, उनका सार यही है कि अपना जीवन मनुष्योचित ढंग से बितायें। इस प्रकार के धर्म-ग्रन्थों में गीता का दर्जा सब से ऊँचा है। गीता में धर्म की आरम्भिक बातें नहीं बतलाई गई और न बहुत स्पष्ट नैतिक नियमों का उपदेश दिया गया है। ये बातें तो धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले सभी व्यक्ति जानते हैं और कुछ अंशों में उनका पालन करने का उद्योग भी करते हैं। गीता के आरंभ के थोड़े से श्लोक तो भूमिका स्वरूप हैं जिनमें कथा रूप में महाभारत का युद्ध आरम्भ होते समय भी कृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का उपदेश देने के प्रसंग पर प्रकाश डाला गया। दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से गीता की वास्तविक शिक्षा आरम्भ होती है, जिसमें भगवान कृष्ण ने यह बात बताई है कि तुम घटनाओं का अर्थ गलत लगाते हो। बन्धुओं और गुरुजनों के मारने को तुम जितना महत्व देते हो वह बहुत अधिक है। उसका मूल्य इतना नहीं है। यहीं से कर्तव्य की अबाधता और देह की क्षुद्रता के सम्बन्ध में गीता का उद्देश्य आरम्भ होता है।

गीता जीवन शास्त्र है। यों तो सनातन हिन्दू धर्म का आधार वेद माने जाते हैं, पर वेद बड़े ग्रन्थ हैं, कठिन भाषा में लिखे हैं और उनमें ऐसी बहुत सी क्रियाएँ हैं जिनको आचरण में लाना आधुनिक काल में अत्यन्त कठिन है। इसलिये वर्तमान काल में गीता का हिन्दुओं में प्रायः ऐसा स्थान हो गया है जैसा ईसाइयों में बाइबिल का है। गीता में एक और विशेष गुण है जिसे हम सार्वभौमिकता कह सकते हैं। गीता साम्प्रदायिक ग्रंथ नहीं है। इसमें हर देश के रहने वाले और हर धर्म के मानने वालों के लिये तत्व दर्शन की सामग्री मिल सकती है। गीता में वर्णित विषय को हम मुख्यतः इन चार विभागों में विभाजित कर सकते हैं—

नियम

संसार में हमको नियम हर जगह दिखाई पड़ता है। सूर्य ठीक समय से निकलता और अस्त होता है। भोजन और औषधियों के गुण नियम के अनुसार होते हैं। सारा संसार, स्थावर, जंगम, सब नियम से बँधे पाये जाते हैं। एक विद्वान का कथन है कि इस सर्वव्यापक नियम के रूप में ईश्वर हमको नित्य दिखाई देता है। इसे हम इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि जो नियम की अवाधता में विश्वास करता है वही आस्तिक ईश्वर का मानने वाला है। इस सम्बन्ध में गीता में कहा गया है।

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते। नहि कल्याण कृत कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥

अर्थात्-हे अर्जुन! उस मनुष्य का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है और न बुरा होता है, जो भला कर्म करने वाला है उसकी कभी दुर्गति नहीं होती। इस श्लोक में ‘अमुत्र’ (परलोक) शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। पश्चिमी “कर्तव्या कर्तव्य शास्त्र” इस लोभ का विचार करके ही किसी कृति या घटना का मूल्य लगाता है। पर गीता इह-लोक और परलोक दोनों का विचार करके मूल्य स्थिर करती है। इसलिये गीता का निर्णय अधिक पूर्ण और अधिक महत्व का होगा। नियम की अबाधता के उपदेश मात्र से ही, यदि इस पर हमारा पूर्ण विश्वास हो जाये तो हमारे जीवन में महान परिवर्तन हो जायगा। जैसे किसी खजाँची को कोई सरकारी दफ्तर कुछ रुपया नौकरों की तनख्वाह बाँटने को दे और वह उसे चुरा ले तो यह विचार पूरी मूढ़ता का होगा कि चोरी छिपी रहेगी। जिनको वेतन मिलना था वे शिकायत करेंगे तो चोरी खुलकर खजाँची को सजा दी जायगी। यही नियम संसार के हर काम में है। कोई पाप चाहे सफलतापूर्वक थोड़े या बहुत काल के लिये छिपाया जा सके,पर अंत में अपना बुरा फल दिये बिना न रहेगा। यह धारणा दृढ़ होने से हम स्वयं पाप से बचने लगेंगे और समाज का बड़ा हित होगा। गीता में कहा गया है—

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योजुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः॥

“हे अर्जुन! जो सब प्राणियों के सुख और दुख को अपने सुख और दुख के समान समझता है, वह परम श्रेष्ठ योगी है।” यह उपदेश भी संसार के लिए व्यापक है। एक प्रसिद्ध अंगरेज विद्वान ने भी कहा है कि “औरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम दूसरों से अपने साथ चाहते हो।”

कर्म

जीवन की परिस्थितियाँ इतनी गहन और बहुधा उलझी हुई होती हैं कि विचारशील और अध्ययनशील व्यक्तियों को भी सरलता से मार्ग स्पष्ट नहीं दिखाई देता। “जीवन-शास्त्र” की दृष्टि से ऐसी स्थिति के लिये गीता में सर्वोत्तम मार्ग दर्शाया गया है :—

कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफल हेतुर्भूमास्ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थात् “तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार है, फल में नहीं। कर्मों के फल के पीछे मत दौड़ और सावधान रह कि कहीं तू आलसी बनकर कर्म करना ही न छोड़ बैठे।”

इसमें स्वार्थ रहित काम करने का, लोकहित का काम करने का उपदेश दिया गया है। ईश्वर ने हमारे ही हित के लिये हमें जिस स्थिति में रखा है, वही स्थिति हमारे लिये सब से अच्छी है। इसलिये हमारा कल्याण इसी में है कि हम अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार अच्छे से अच्छा काम करते जायँ और उसका फल भगवान के ऊपर छोड़ दें। हमारा कर्म हमारे लिये बड़े महत्व की बात है, क्योंकि कर्म से ही हमारा भला-बुरा होता है। इसलिये इस सम्बन्ध में केवल नकारात्मक उपदेश कि “कर्म करो पर फल की इच्छा न रक्खो” पर्याप्त नहीं है। इसलिये गीता में आगे चल कर कहा है—

यज्ञ शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यंते सर्व किल्विषै। भुञ्जतेते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्म कारणात्॥

“यज्ञ करके जो बच रहे, उसे खाने वाले श्रेष्ठ जन सब पापों से छूट जाते हैं, पर जो केवल अपने शरीर के पोषण के लिये भोजन पकाते हैं उन्हें पाप लगता है। गीता का ‘यज्ञ’ शब्द बड़े महत्त्व का है। पंडितवर राधाकृष्णन कहते हैं—

“गीता का यज्ञ वेदों का यज्ञ” कर्मवाण नहीं है। इसमें तो सभी त्यागमय कर्म शामिल हैं, जिनसे व्यक्ति अपना धर्म एवं पुरुषार्थ सर्वव्यापक भगवान को अर्पण कर देता है। इसका आशय यह निकला कि निःस्वार्थ बुद्धि से किया गया प्रत्येक सार्वजनिक कार्य ‘यज्ञ’ है। जो स्थायी रूप से सार्वजनिक सेवा करता है और अपने निर्वाह के लिए कुछ धन पारिश्रमिक लेता है वह पुण्यात्मा है।

प्रज्ञान

जीवन के प्रत्येक क्षण में हम कुछ न कुछ कर्म करते रहते हैं। “न हि कक्ष्यत्क्षणमपि जातु निष्ठत्व कर्मकृत।” कर्म तो जीवन का लक्षण है। पर कर्म के लिये विवेक और विवेक के लिये ज्ञान की आवश्यकता होती है। अन्धा व्यक्ति दो सुन्दर वस्तुओं में से एक को कैसे चुनेगा? अतः अच्छा जीवन बिताने के लिये ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है।

गीता के अनुसार ईश्वर सारे जगत में व्याप्त हैं ‘तागा मोतियों की माला में पुहा रहता है, इसी तागे के आधार पर सब मोती एक साथ टिके रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के आधार पर सारा जगत टिका है। चेतन और जड़ दोनों ईश्वर की प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार सारे जगत का स्वामी ईश्वर ही है। इस सम्बन्ध में गीता में स्पष्ट कहा गया है—”मया ततामिदं सर्वं जगदव्यक्त मूर्तिना” अर्थात् मेरी अव्यक्त मूर्ति से वह सारा जगत् कपड़े के ताने बाने की भाँति बना हुआ है। कपड़े में ताने-बाने के सिवाय कुछ नहीं होता। जगत् में भी जो कुछ है सब ईश्वर अव्यक्त अप्रकट होते हुये भी जगत् रूप से प्रकट है। यह एक बड़ी ही आश्चर्य की बात जान पड़ती है, पर वास्तव में ईश्वर प्रकट भी है और अप्रकट भी।

भक्ति

गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति का समन्वय है। भक्ति से किया हुआ कर्म मीठा हो जाता है। माता अपनी सन्तान के लिये क्या-क्या कष्ट नहीं भोगती। जब बालक माता की गोद में आ बैठता है, तो उसे कितना सुख मिलता है। पर सब प्रकार के साँसारिक सुखों की प्रतिक्रिया में दुख भी रहता है। जिनकी सन्तान बीमार हो जाती है या मर जाती हैं,उन्हें कितना और कैसा गहरा दुख होता है? साँसारिक प्रेम में सुख भी है और दुख भी विचारशील मनुष्य ऐसा प्रेम चाहता है जिसमें प्रतिक्रिया न हो। ऐसा प्रेम सदा एक रस रहने वाले ईश्वर से ही हो सकता है। उसी प्रेम को ‘भक्ति’ कहते हैं। भक्ति का एक रूप जनता की निःस्वार्थ सेवा है; क्योंकि भगवान सर्वव्यापक है।

गीता के 11वें अध्याय में अर्जुन को प्राप्त भगवान के विश्व रूप दर्शन का वर्णन है। अर्जुन ने संसार की सारी महानता, संसार की सारी सुन्दरता, महानता भगवान में देखी। ऐसे रूप के दर्शन हम कैसे कर सकते हैं। केवल प्रभुभक्ति ही यह फल दे सकती है, और उस भक्ति का फल केवल दर्शन नहीं वरन् भगवान का ज्ञान और उनमें प्रवेश करके उन्हीं का सा हो जाना है।

इस प्रकार मनुष्यों को सन्मार्ग दिखलाकर साँसारिक बन्धनों से छुड़ाने की दृष्टि से गीता अद्वितीय है और उसका अनुशीलन हमारे लिए निश्चित रूप से कल्याणकारी है।


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