अपने जीवन को आनन्दमय बनाइए

May 1959

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र, एम.ए., पी-एच. डी.)

शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि।

—अथर्व वेद

“तू शुद्ध, तेजस्वी, आनन्दमय एवं प्रकाशवान् है। इसलिए हे जीव, पतित होकर कुमार्गगामी मत बन। प्रसन्न रह!”

मनुष्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है एक तो वे जो कुछ न होने पर भी प्रसन्न रहते हैं, दूसरे वे जो सब कुछ होने पर भी उदास और खिन्न।

प्रसन्न रहना या उदास रहना संसार की वस्तुस्थिति, घोर और विषम परिस्थिति पर इतना निर्भर नहीं है, जितना मनुष्य की स्वनिर्मित आदत के ऊपर। आनन्द, प्रसन्नता, विषाद, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि मानसिक अवस्थाएँ हैं जो हम स्वयं ही बनाया करते हैं। हमारी प्रत्येक भावना एक आदत है जिसे खुद हमने अभ्यास द्वारा बनाया है।

वह मनुष्य बड़ा भाग्यवान है, जिसने सदा अच्छी और विषम साँसारिक स्थिति में प्रसन्न रहने की आदत बनाई है। प्रसन्नता, सन्तोष, उल्लास, हर्ष, उत्साह वे मनः स्थितियाँ हैं, जो मनुष्य के मानसिक आरोग्य की द्योतक हैं।

जिस व्यक्ति ने उदासी की आदत बना ली है, वह एक ऐसे पिशाच के पल्ले पड़ गया है, जो सदा सर्वदा उसकी जीवन-शक्ति को चूसता रहेगा। इस आदत से परेशान रहने वाला व्यक्ति मीठे पदार्थ को भी कड़वे रूप में देखेगा, उसे प्रिय और उपयोगी वस्तु भी अप्रिय और अनिष्टकारी ही दिखाई देगी। उसे संसार घोर दुख में डूबा, नाना व्याधियों से परेशान दिखाई देगा। यदि किसी ने उदासी का काला चश्मा नेत्रों पर लगा लिया है, तो उसे समस्त समाज, मित्र, नागरिक, जीव उदासी की काली छाया से ढके हुए प्रतीत होंगे। वास्तव में बात यह है कि मनुष्य बाहरी वातावरण से इतना परेशान नहीं रहता, जितना स्वयं अपने मन की दुःखपूर्ण और गलत आदतों से परेशान रहता है। संसार स्वयं दुःखपूर्ण नहीं है। वह तो गलत मानसिक स्थिति और त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण से देखने का दुष्परिणाम है।

ईश्वर स्वयं आनन्दमय है। उसमें उल्लास, उत्साह, प्रसन्नता है। आप भारत के देवी देवताओं के चित्र देखते जाइये। सभी का मुख मण्डल आन्तरिक सद्भाव की आभा से देदीप्यमान है। उससे अमित आनन्द बरस रहा है। दूसरे शब्दों में वे चुपचाप हमें यह मौन सन्देश दे रहे हैं—

“संसार के स्त्री-पुरुषों! सदा आनन्दित रहो। चिन्ता एक क्षणिक मानसिक अवस्था है। उसे दूर करने का उपाय हम से सीखो! हमारे मुख मंडल से जो आनन्द की वर्षा हो रही है, उसे तुम भी अपने स्वभाव में धारण करो। संसार आनन्द का घर है। प्रकृति में चारों ओर से आनन्द की रसधारें प्रवाहित हो रही हैं। आनन्द के इस निरन्तर प्रवाहित होने वाले स्रोत को अपने अन्दर धारण करो। संसार आनन्दमय है। तुम स्वयं आनन्द की राशि हो। आनन्द से ही संसार की सृष्टि हुई है। जीवन में प्रतिदिन साँस लेते, खाते-पीते, उठते-बैठते दिन रात अपने मुख मण्डल से आनन्द की किरणें विकीर्ण करो।”

प्रसन्नता का स्वभाव निरन्तर खुशी मनःस्थिति में रह कर उत्पन्न किया जा सकता है। जो चेहरे की खिन्नता से मुक्ति पा लेगा, वह मन से क्षोभ वृत्ति को दूर कर सकेगा। चेहरे की प्रसन्नता का सम्बन्ध पवित्र और आनन्दमय विचारों से है। स्थायी रूप से ईश्वर और प्रकृति के आनन्दमय रूप को मन में धारण कर लेने से वैसी ही मुख मण्डल की स्थिति हो जाती है।

आनन्द ईश्वर का एक महत्वपूर्ण गुण है। यह आप में प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है। आपकी आत्मा ईश्वरीय गुणों से परिपूर्ण होने के कारण स्वतः आनन्दानुमुख होती है। आनन्दमय रहना तो हमारी प्रकृति का एक अंश है। प्रसन्न रहने से आत्मा तृप्त रहती है; उदास रहने में मानसिक ग्रन्थियों के ऊपर जोर पड़ता है। उदास स्वभाव रखने से अन्दर ही अन्दर से नाना प्रकार से विष निकला करते हैं, जो वातावरण को दुःखपूर्ण बना देते हैं। उदासी का कारण कुविचार और कुकर्म है। उनका परित्याग कर देना चाहिए :—

अप दुष्कृतान्य जुष्टा-यारे।

—ऋग्वेद

कुविचारों और कुकर्मों से दूर रहो।

ये दुष्ट भावनाएँ इन विकारों को धारण करने वालों को ही नष्ट कर देती हैं।

अपास्यत् सर्व दुर्भूतम्।

—अथर्ववेद 3।7।7

अन्दर के सब दुर्भावों को निकाल बाहर करो बाहरी शत्रु उतनी हानि नहीं कर सकते जितनी अंतःशत्रु करते हैं।

“अपेहि मनसस्पतेऽपक्राम परश्चर।

—अथर्ववेद 20।96।24

मानसिक पापों का परित्याग कीजिए।

वास्तव में मन में जमी हुई वासना और कुविचार ही उदासी पैदा करते हैं।

उदासी एक मानसिक रोग है। स्वयं मनुष्य अपने दुर्भाव को मन में स्थायी रख चुपचाप चिन्तामूलक विचारों के अभ्यास के द्वारा उदासी का मानसिक रोग बढ़ा लेता है। कठिन परिस्थितियों से संघर्ष न कर सकने की भावना एक कल्पित भय से मनुष्य को भर देती है। इस गुप्त भय भावना के कारण व्यर्थ की नाना चिन्ताएँ हमें चारों ओर से घेरे रहती हैं।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक लेखक प्रो. लालजीराम शुक्ल का तो विचार है कि जब तक मनुष्य अपने दृष्टिकोण को नहीं सुधारता अर्थात् जब तक उसकी वासना का रेचन अथवा शोधन नहीं होता, तब तक वह रोग का अथवा झक का रूप धारण करके प्रकाशित होता है। यह वासना मनुष्य को कोई भी रचनात्मक कार्य नहीं करने देती, मनुष्य को निराशावादी बनाये रहती है। यह निराशावादिता एक दर्शन का रूप धारण कर लेती है। उदासी की आदत दूर कीजिए और प्रसन्नता का स्वभाव बनाइये। बातचीत में अधिक से अधिक हँसिये। प्रसन्न व्यक्तियों के साथ संग कीजिए। संग से ही मनुष्य अच्छा या बुरा बनता है। उदास व्यक्तियों से बचिए और फूल की तरह खिले हुए व्यक्तियों के साथ रहिये। यह सत्संग आप में प्रसन्नता का स्वभाव पैदा करेगा।

मन में प्रसन्नता के यौवन और उल्लास के विचार प्रचुरता से आने दीजिए। मन में सोचिये कि मेरा स्वभाव आनन्द से परिपूर्ण है तथा भगवान का आनन्द और प्रसन्नता नित्य निरन्तर मेरे मन और जीवन को भर रहा है। मैं इस दृढ़ विश्वास से अग्रसर हो रहा हूँ कि भगवान का दैवी आनन्द सदा मेरे साथ है। मैं प्रकृति से आनन्द की किरणें खींचता हूँ।

जब मेरे मन में कुछ शिथिलता का अनुभव होता है तो मैं भगवान के आनन्दमय रूप को ही मन में धारण करता हूँ। भगवान के दैवी आनन्द से भरे चित्रों को ही देखता हूँ। मेरा सम्बन्ध आनंद से है। मैं अपने अन्दर से आनन्द ही प्रकाशित करता हूँ।

यदि आप उदासी की मानसिक स्थिति से निकलना चाहते हैं तो उस प्रकार के विचारों का प्रवाह रोक दीजिए। दूसरे प्रकार के उत्फुल्लकारी विचारों को प्रचुरता से अपने गुप्त मन में आने दीजिए। जो विचार अधिक देर तक मानसिक क्षेत्र में घूमता रहेगा वही आपके मानसिक स्वभाव का एक अंग बन जायेगा।

स्वामी कृष्णानंद के शब्दों में “प्रसन्नता, स्वास्थ्य और सफलता का भोजन है ईश्वर चिन्तन, सहृदयता, आशा और शुभेच्छा। यदि आप मुक्त हस्त होकर यह मानसिक भोजन वितरित करेंगे तो स्वास्थ्य, प्रसन्नता और सफलता आपका अनुगमन करेंगी। विचार भावनाओं का भोजन है। दुःख, रोग, और असफलता, भय, विषाद, दोष-दर्शन और स्वार्थपरता संबंधी विचारों के भोजन पर पलते हैं। जब आप उन्हें उनका भरपूर भोजन देते हैं अर्थात् गलत अनर्थकारी चिन्तन करते हैं, तो वे आपके जीवन में प्रवेश करते हैं। प्राणी की तरह वे भी वहीं रहते हैं जहाँ उन्हें उनका अनुकूल भोजन मिलता है।”

दुःख, भय, रोग, असफलता, विषाद के दुष्ट विचारों को कदापि मनो मन्दिर में न आने दीजिए। उत्तम मनः स्थिति का चुनाव कीजिए और स्थायी रूप से उन्हीं विचारों में निवास कीजिए। भय, परेशानी और उत्तेजना के ध्वंसकारी विचारों पर विजय मनुष्य की एक बड़ी सफलता है।


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