(“साधु वेश में एक पथिक”)
जिस प्रकार एक-एक ईंट के द्वारा अथवा एक पत्थर के ऊपर दूसरा पत्थर विधिवत रखते जाने से शरीर के रहने योग्य भवन बन जाता है, विधि की भूल होने से योग्यता की कमी से, तथा प्रमाद से, भवन असुन्दर, दुखदायी भी हो जाता है, उसी प्रकार एक-एक कर्म के ऊपर कर्म करते जाने से भाग्य-भवन बनता है। यह भवन भी विधि की भूल से, योग्यता के दुरुपयोग से, असुन्दर दुखद प्रतीत होता है परन्तु भवन बन जाने पर तब तक उसी में रहना होता है जब तक दूसरा अनुकूल सुन्दर भवन अपनी शक्ति से, विधिवत प्रयत्न से तैयार न कर लिया जाय।
इस लोक तथा परलोक की स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों का जितना ही ज्ञान हमें होगा उतना ही हम लोग उन शक्तियों का अपने जीवन-निर्माण में उपयोग कर सकते हैं।
केवल शक्ति प्राप्त होना ही शुभ सुन्दर सुख सौभाग्य की बात नहीं है, सौभाग्य की बात शक्ति के सदुपयोग का ज्ञान प्राप्त होना है।
शक्ति तो पशु-पक्षियों को मनुष्यों से अनेकों गुना अधिक प्राप्त हैं; परन्तु ज्ञान की कमी से मनुष्य के अतिरिक्त प्राणी उस प्राप्त शक्ति का स्वतन्त्रता पूर्वक सदुपयोग करके अपने जीवन को सुन्दर तथा बन्धन मुक्त नहीं बना पाते हैं।
विवेक के द्वारा हम लोग प्रकृति के नियमों का पालन कर प्रकृति को स्ववश कर सकते हैं और प्राकृतिक शक्ति से महान लाभ को प्राप्त हो सकते हैं।
प्राप्त शक्ति को आलस्य प्रमादवश व्यर्थ खोने से मनुष्य की देह प्रायः रोगी होती है, प्राप्त सम्बन्ध का दुरुपयोग करने से आगे मिलने वाले सम्बन्ध क्लेशदायक होते हैं। हम दूसरों को कष्ट देकर स्वयं अपने लिये उन्हीं कष्टों का मार्ग बनाते हैं। दूसरों को सेवा द्वारा सुख देकर हम अपने लिये सेवक तथा सुखद परिस्थिति तैयार करते हैं। हम दूसरों के बीच में सुख या दुख जो कुछ भी बोते हैं वही कई गुना काटते हैं।
मनुष्य के सामने चाहे जैसी परिस्थिति हो अपने में विवेक बढ़ाकर उसके सदुपयोग से अपने जीवन को कष्टों से; बन्धनों से मुक्त बना सकता है।
मनुष्य के शुद्ध और अशुद्ध संकल्प, अथवा भाव एवं विचार ही उपकारी और अपकारी, लाभ का सुख का सुयोग दिलाने वाले या हानि कष्ट के कुयोग में ढकेलने वाले, देव या दैत्यवत रूपों में काम करते रहते हैं।
प्रत्येक मनुष्य के साथ ऐसी शक्ति है, एक ऐसा प्रकाशित तेज है जिसको लेकर ही वह अपने आस-पास, अपने संकल्पों भावों के अनुसार सृष्टि रचता रहता है। यह सृष्टि मनुष्य की कामना, कल्प, तृष्णा की तरंगों से अनुरूप सुन्दर या असुन्दर बनती है। मनुष्य के विचारों संकल्पों का सम्बन्ध या तो दैवी शक्ति या आसुरी शक्ति से रहता है। उसी शक्ति की प्रेरणानुसार शुभ या अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति होती है।
हम लोग संकल्प के साँचे में शक्ति को भरकर तदनुसार एक रूप गढ़ लेते हैं वही रूप देव या दैत्य नाम से प्रसिद्ध है। अपने बनाये हुए संकल्प रूप सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित रहते हैं और इन्हीं के द्वारा अनायास ही किसी में बहुत ऊँचे कार्यों की पूर्ति होती रहती है और किसी में बहुत ही नीची वृत्ति पायी जाती है।
मानसिक दुष्प्रवृत्तियों, कुभावनाओं को जीतना ही वास्तविक विजय है। अपने सद्गुणों को दोषों के प्रहारों से बचाना स्वाभिमान है इससे भी उत्तम असत संगाभिमान से अपने को असत रूप न होने देना स्वाभिमान है।
मन को शान्त रखने की कुशलता सबसे बड़ी विद्या है।
अपना सुन्दर निर्माण करने के लिये अर्थात् अपने को सुन्दर बनाने,असुन्दरता को मिटाने के लिये व्यर्थ चेष्टा, व्यर्थ प्रलाप, व्यर्थ चिन्ता तथा शोक में ह्रास होने वाली शक्ति को संयम के द्वारा बचाना चाहिए। जब आवश्यक कार्य न हो तब मौन रहना चाहिए , एकान्त में परमात्मा का चिन्तन करना चाहिए।
दूसरे के शब्दों में निन्दा, स्तुति, मान, अपमान मानना मन की कल्पना ही तो है? इसमें अपने मन को रागी द्वेषी न बनाना चाहिए।
हमें दोषों का त्याग करके इन्द्रिय को, मन को संयम में रखकर शक्ति के द्वारा सेवा करते हुए परमात्मा के चिन्तन द्वारा अपना निर्माण करना है। हम सबके पारस्परिक व्यवहार में जितनी अधिक उदारता अर्थात् देते रहने की आदत बढ़ेगी, जितनी अधिक सहनशीलता आयेगी, दया और क्षमा करते रहने का स्वभाव बन जायगा, निरन्तर प्रेममय तथा परमात्मामय मनोवृत्ति हो जायगी, उतनी ही शीघ्रता से हम अपने जीवन को सुन्दर, शान्तिमय, आनन्दमय बना सकेंगे।
अपने को सुन्दर दिखाने के लिये हम लोग शरीर को स्वच्छ रखने का प्रयास करते हैं। वस्त्र-आभूषण द्वारा शृंगार करते हैं, इसके साथ ही यदि अपने मन को सुन्दर दोष रहित नहीं बना पाते तो इस मन की मलिनता के कारण महान शक्ति के स्नेह पात्र नहीं हो सकते।
वास्तव में हमें अपने तन के साथ मन को, चित्त को बुद्धि और अहं को सुन्दर पवित्र बनाना ही होगा।
संसार में जो कुछ भी पवित्र है, शीतल, स्निग्ध, निर्लिप्त है वही सुन्दर है। सुन्दर पवित्र का संग ही सौंदर्य लाने का साधन है। वास्तव में अपना सत स्वरूप ही परम सुन्दर पवित्र है परन्तु उसका ज्ञान न होने के कारण हम बाह्य शृंगार को सब कुछ मान बैठे हैं।
एक सन्त का वचन है कि हमारा जीवन इतना सुन्दर होना चाहिये कि संसार स्वयमेव जीवन को प्यार करे और हमें इतना सुन्दर होना चाहिये कि भगवान स्वयं हमें प्यार करें, संसार से कुछ न चाहना और संसार के काम आते रहना हमारे जीवन की सुन्दरता है। भगवान से कुछ न चाहना और भगवान् की प्रसन्नता का निरन्तर ध्यान रखना भी हमारी सुन्दरता है।
अपने जीवन को सुन्दर बनाने के लिये असंयम को संयम से, स्वार्थभाव को सेवा से, व्यर्थ विषय चिन्तन को सार्थक चिन्तन से, देहाभिमान को आत्मज्ञान से, द्वेष को प्रेम से, क्रोध को क्षमा से, लोभ को उदारता पूर्वक दान से, अहंकार को विनम्रता से, बन्धन को असंग वृत्ति की दृढ़ता से मिटाना होगा।
लोभ, मोह, क्रोधादि विकारों के त्याग से हमारा जीवन शुद्ध होता है और दया, क्षमा, विनम्रता, सरलता, सेवा तथा दान से सुन्दर होता है। यथार्थ ज्ञान से सुन्दरता का दर्शन होता है और निष्काम प्रेम से सुन्दरता का सेवा में सदुपयोग होता है।
अभिमानियों के बीच में ही विनम्रता की पुष्टि होती है, लोभियों के बीच में ही संतोष-लाभ का अभ्यास सफल होता है। यदि विनम्र और संतोषी बनने में कष्ट होता है तो निस्संदेह जीवन में सद्गुण का सौंदर्य नहीं उतर पाता है। अपने दोषों से परिचित होना सद्गुण के सुन्दर पथ पर चलने का परिचायक है।
कोई कितना ही गरीब है, निर्धन है पर अपनी उन्नति के लिये वह उतना ही स्वतन्त्र है, जितना एक सम्राट हो सकता है। वह अपने भीतर ऐसी मस्ती ला सकता है कि सम्राट भी उसे पराजित नहीं कर सकता। जब तक किसी व्यक्ति या वस्तु का आश्रय लिया जाता है तब तक निर्भयता और वास्तविक शान्ति की अनुभूति नहीं हो पाती है। सनातन ज्ञान अथवा प्रेम का अनादर कर व्यक्ति और वस्तु की दासता में कितना कष्ट उठाना पड़ता है—इस सत्य पर विवेकी मानव को विचार करना चाहिये। यह एक चिरस्मरणीय बात है कि हमें व्यावहारिक क्षेत्र से अपने समस्त दोषों को मिटाना है। दोषों के मिटने पर मानवता की जागृति और दिव्यता के अवतरण का आरम्भ होता है। मानवता से ही दिव्यता की प्राप्ति सम्भव है, असुन्दरता और पशुता से यह नहीं आया करती है। सबसे ऊँचा ध्येय यही होना चाहिये कि हम अपने व्यवहार में सद्गुणों का विकास करें। हमें अपने जीवन के लिये दोनों की नहीं, सद्गुणों की आवश्यकता है। सद्गुणों के विकास से ही जीवन सुन्दर होता जाता है। यदि कोई क्रोध में आगे बढ़ता है तो हमें क्षमा में आगे बढ़ना चाहिये, कोई अपने आप में दोष-ही-दोष बढ़ाता है तो हमें अपने भीतर सद्गुणों की वृद्धि करनी चाहिये। सद्गुणों की वृद्धि से जीवन निःस्वार्थ, प्रेममय और पवित्र तथा सुन्दर होता है।