कर्म, भक्ति और ज्ञान के समन्वय से आत्म-दर्शन

May 1959

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(श्री अरविन्द)

संसार के समस्त पदार्थों में जो ‘सत्य’ पाया जाता है, वह समस्त हमारे भीतर आ जाय, और यहाँ तक कि हमारा शरीर भी उसी से भर उठे, यह हमारा उद्देश्य है। हमारा “अन्तः ज्ञान” पहले दिमाग में ही उत्पन्न होता है। पर यदि वह इसी स्थान पर बना रहे तो जब तक हम ऊपर रहेंगे तभी तक वह काम देगा और ज्यों ही हम नीचे के स्तरों में आये कि उसका सम्बन्ध विच्छिन्न हो जायगा। इसीलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने समाधि पर इतना जोर दिया था। इस उपाय से वे उस ज्ञान शक्ति को मनोमय क्षेत्र में ले आते थे। वहीं पर सूक्ष्म इन्द्रियों की सृष्टि होती है। ये सूक्ष्म इन्द्रियाँ बाहर की इन्द्रियों की सहायता के बिना भी दर्शन, स्पर्शन करने में समर्थ होती हैं।

जब तक शरीर का रूपांतर न होगा (इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर और मुख आदि की आकृति बदल जायगी) तब तक हमें अपनी विजय पूर्ण और सारयुक्त न समझनी चाहिये। पर ऐसा होने पर शरीर की कार्य-शक्ति में अन्तर आ जायगा। तब शरीर अमृतमय हो जायगा, रोग और बुढ़ापा दूर हो जायगा। हमारी आँखें इस समय जिस प्रकार देखती हैं उस समय उस तरह से न देखकर सृष्टि के असंख्यों रूपों, गुणों, आत्मिक शक्तियों के खेलों को देखने में समर्थ होंगी। हमारे कान सृष्टि के मूल शब्द को सुन सकेंगे। इसी प्रकार सब इन्द्रियाँ सृष्टि के गूढ़ और वास्तविक तत्व को ग्रहण करने लगेंगी। यह अन्तरंग ज्ञान की शक्ति मानव इन्द्रियों को प्राप्त हो सकती है इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

वैदिक-युग के ऋषि देवताओं की सृष्टि करते थे, उपनिषद्-युग के ज्ञानी व्यक्ति भी इस तथ्य को जानते थे। वे समस्त चैतन्य और ज्ञान-शक्ति को साररूप करके उद्दीप्त करते थे। उस समय वैज्ञानिक यंत्र न थे और ज्ञानीजन अन्तःज्ञान के द्वारा ही सृष्टि के रहस्य से अवगत होते थे। जवाला के पुत्र सत्यकाम ने गायें चराते-चराते ही अनन्त प्रकृति के स्वरूप को समझ लिया था, जिससे उसका अन्तरंग मधुमय हो उठा था। उनको पशु, पक्षी, वृक्ष, लता सभी से ज्ञान दान प्राप्त हुआ था। यही सनातन ज्ञान-पथ है और यही ज्ञान की मुक्त प्रणाली है। पर आजकल की वैज्ञानिक धारणा क्या है? इसके अनुसार अनुभव के साथ पदार्थ का मिलान करना ही ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। हम जो कुछ देखते-सुनते हैं अथवा अन्य लोग जो देखते-सुनते हैं, पढ़ते हैं, समझते हैं उतना ही ज्ञान हम मनुष्य के बारे में सत्य मानते हैं, उसके सिवा और कुछ हम नहीं जानते न मानते हैं। पर अब विज्ञान के क्षेत्र में भी कुछ नवीन विचारक आगे बढ़ रहे हैं और वे कहने लगे हैं कि “अन्यःज्ञान” (इंट्यूशन) एक बहुत बड़ी शक्ति है।

“शक्ति ही सब कुछ करती है और हम उसके यन्त्र अथवा मशीन हैं—योग का केवल इतना ही आशय नहीं है। साधक को यह अनुभव करना होगा कि शक्ति तो हमारी ही है। पुरुष (परमात्मा) की इच्छा से साधक ही कार्य किया करता है। शक्ति के साथ साधन का अगाँगी परिचय होने पर ही ज्ञान का विकास होता है। साधक सर्वप्रथम शक्ति के सम्मुख ही आत्म-समर्पण करता है, शक्ति की क्रीड़ा को ही वह देखता है, जगत को शक्ति का कौतुक ही अनुभव करता है। शक्ति के साथ में अपने को शक्ति के साथ मिलाकर, घुलाकर ही साधक यह देख सकता है कि अनन्त, विराट शक्ति के पीछे पुरुष विद्यमान है। पुरुष का दर्शन न होने से योग का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। पुरुष का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने पर हमको यह अनुभव होता है कि उसकी इच्छा ही हमसे कार्य कराती है। तब फिर “यन्त्र अथवा मशीन” होने की भावना उत्पन्न नहीं होती और साधक स्वयं को ही शक्ति स्वरूप समझने लगता है।

जब तक इस ‘पुरुष’ को नहीं जाना जाता—प्राप्त किया जाता तब तक अपने को यंत्र न समझने की साधना अपूर्ण ही रहती है। शक्ति ही सब कुछ कराती है, शक्ति ही विचार उत्पन्न करती है, शक्ति के स्पर्श से ही मशीन हिलती डुलती है, ऐसा भाव बहुत श्रेष्ठ होने पर भी, पूर्ण योगी के लिये अपर्याप्त है, उसे इससे और आगे बढ़ना है। हमारे यहाँ भाव अथवा शक्ति की कमी नहीं है। देश में सर्वत्र भक्ति में पागल हुये व्यक्ति मिल सकते हैं, पर भक्ति के साथ ज्ञान का होना भी परमावश्यक है। यह सत्य है कि भक्ति होने से भगवान का कार्य करने में शक्ति का अभाव न रहेगा, पर इसके द्वारा ज्ञान का विकास नहीं हो सकता। ज्ञान प्राप्त न होने से वृहत् सृष्टि में प्रवेश असंभव है, ज्ञान द्वारा ही भगवान के अनंत स्वरूप को ग्रहण किया जा सकता है। अनन्त विचित्रताओं-भेदों में ऐक्यता स्थापन किये बिना हमको क्षुद्र सृष्टि में रहना पड़ेगा और ऐसी क्षुद्रता भगवान की इच्छा के विरुद्ध है। इसलिये तुम सबको वृहत् होना चाहिये, ज्ञान के वास्तविक रूप को ग्रहण करना चाहिये। ज्ञान का ही अनुगामी समता का भाव है—समता ही वृहत सृष्टि का बीज मन्त्र है।

योगी को पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता इस कारण से भी है कि उसके बिना पतन की बहुत आशंका रहती है। हमारे देश के आधुनिक साधकों में कर्म और भक्ति की कमी नहीं है, इसलिये उनको इन दोनों के साथ ज्ञान की भी साधना करनी चाहिये। हमारे देश में इस समय वैश्यत्व और क्षत्रियत्व का भाव परिस्फुटित हो उठा है, पर अभी ब्राह्मणत्व का परिस्फुरण नहीं हुआ है। अब जो इस त्रुटि को दूर करके ज्ञान की प्रतिष्ठा द्वारा ब्राह्मणत्व का विकास करेगा वही देश का मार्ग प्रदर्शक बन सकेगा।

इस सब का अभ्यास काम करने से क्रमशः होगा। भगवान के समक्ष आत्म समर्पण करके एक दूसरे का ध्यान रखकर, संघबद्ध होकर काम करते जाओ। मन में स्पष्टतः समझ लो कि कर्म ही जीवन का उद्देश्य नहीं है, ज्ञान का प्रकाश सृष्टि का सर्वोच्च अंग है। जब शक्ति और भक्ति के सम्मिश्रण से ज्ञान रूप धारण करेगा, तभी समस्त सृष्टि सार्थक हो जायगी। हमको हजारों बार उत्थान और पतन के भीतर होकर चलना पड़ेगा। पर आधे मार्ग में अवसाद (आलस्य) आकर जीवन का प्रसाद नष्ट न हो जाय, इस तरफ तीक्ष्ण दृष्टि रखना आवश्यक है। इसी दर्शन का अनुसरण करने से ज्ञान का अवतरण होना निश्चित है, इसमें निराशा अथवा संशय की कोई बात नहीं है।


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