यों देखने में मनुष्य हाड़ माँस का पुतला है तथा उसका बुद्धि-बल बहुत मामूली सा लगता है। इतना मामूली कि उसके बूते अपने निज के शरीर और परिवार से संबंधित समस्याएं भी नहीं सुलझतीं। परन्तु यदि उसकी अन्तर-भूमि अपनी शक्ति और प्रतिभा का सही मूल्याँकन करले एवं उसका ठीक उपयोग करने से तत्पर हो जाय तो निश्चय ही बड़े से बड़े कार्यों का पूर्ण हो सकना बहुत ही सरल है। जीवन में जितनी भी कठिनाइयाँ, त्रुटियाँ एवं असफलताएं दिखाई देती हैं उनमें से अधिकाँश का कारण अपनी मानसिक दुर्बलता ही होती है। जो मानसिक दृष्टि से दुर्बल है वस्तुतः वही दुर्बल है। जिसकी अन्तरात्मा शक्ति सम्पन्न है उस बलशाली का सामर्थ्य से बाहर कुछ भी कार्य नहीं है।
अखण्ड ज्योति परिवार ने जो व्रत लिया है क्या वह उसके लिए कठिन है? नहीं-कदापि नहीं! प्रबुद्ध अन्तःकरण से सम्पन्न धर्म-परायण आत्माएं ही सदा से चारित्रिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान का कार्य सम्पन्न करती रही हैं। इतिहास की इस परम्परा को दुहराना हमारे लिए कठिन है यह सोचना बिलकुल अनुचित है। यह कार्य तो ब्राह्मण संस्थाएं ही पूर्ण करती रही हैं। इसे हमीं पूरा करेंगे, यह हमारी ही जिम्मेदारी है।
यह आवश्यक नहीं कि इस परिवार के सभी लोग घर बार छोड़कर इस धर्मोत्थान के कार्य में ही जुट पड़ें। निस्संदेह ऐसी आत्माओं की भी आवश्यकता है, जिनमें उतना आत्मबल मौजूद है वे इस प्रकार का आत्म त्याग कर चुकी हैं, करने जा रही हैं। पर ऐसी आशा सबसे नहीं की जा सकती। फिर भी हर व्यक्ति कुछ न कुछ तो इस संबंध में कर ही सकता है। हमारा एक ही आग्रह है कि कोई भी हमारा परिजन ऐसा न रहे जो इस युग निर्माण योजना में कुछ भी भाग न लेता हो, सर्वथा उदासीन हो। यह सहयोग कितना ही थोड़ा क्यों न हो पर होना अवश्य चाहिए, इस योजना में कितना ही कम भाग क्यों न लिया जाय पर भागीदारी तो रहनी ही चाहिए।
किसी कार्य को संकल्पबद्ध होकर करने से विचारों में निष्ठा एवं कार्य में स्थिरता रहती है। इसी आध्यात्मिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए हिन्दू धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य में पूर्ण संकल्प कराया जाता है। नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना में सहयोग देने, स्पष्ट भागीदार बनने का संकल्प ही व्रत धारण है। व्रत धारण कर लेने पर कोई व्यक्ति पहले की अपेक्षा अपनी अधिक जिम्मेदारी अनुभव करता है और उस व्रत को निभाने का अपेक्षाकृत अधिक प्रयत्न करता है। इसलिए गत अंग में व्रतधारी के दो संकल्प पत्र लगाये गये थे। एक अपने लिए तथा एक अपने जैसे विचारों का कम से कम एक और व्रतधारी बनाने के लिए। इन संकल्प पत्रों को भर देने में संकोच या उपेक्षा करना उचित नहीं।
कई व्यक्ति सोचते हैं कि “इतने कार्यक्रम जो योजना के अंतर्गत छपे थे उन्हें पूरा करना हमारे बस की बात नहीं, फिर हम क्यों संकल्प पत्र भरें।’ यह विचार सर्वथा अनुपयुक्त है। योजना के अंतर्गत दिये हुए सभी विचारों तथा कार्यों को जो पूरा कर सके वह कोई मनुष्य नहीं वरन् देवता ही हो सकता है। ऐसी आशा किसी से नहीं की जा सकती और न व्रतपत्र में कहीं ऐसा उल्लेख ही है। व्रत केवल इस बात का है कि “हम आत्म निर्माण तथा समाज सुधार के कार्य को अपने अन्य आवश्यक कार्यों की तरह नैतिक कार्यक्रम में सम्मिलित रखेंगे और जितना कुछ न्यूनाधिक प्रयत्न हमसे बन पड़ेगा उतना निरन्तर करते रहेंगे।” क्या यह व्रत कठिन है।
यदि किसी शुभ कार्य के लिए—सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रयत्न करने का भी व्रत न लिया जाय तो निस्संदेह कोई व्यक्ति उस दिशा में कुछ भी कर सकने में समर्थ न होगा। ढिलमिल विचारों का कोई ठिकाना नहीं, आज का जोश कल ठंडा हो जाता है। पर एक बार कोई प्रतिज्ञा शपथपूर्वक कर ली जाय तो भला आदमी उसे निबाहने के लिए शक्तिभर प्रयत्न करता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर परिजनों को व्रतशील बनने पर बहुत जोर दिया जा रहा है। हममें से प्रत्येक प्रबुद्ध आत्मा को व्रतधारी बनना ही चाहिए ताकि इस कार्यक्रम को सफल बनाने में उसका योग निरन्तर एवं नियमित रूप में चलता रहे एवं जब शिथिलता आवे तब व्रतधारण का स्मरण उसे पुनः चैतन्य कर दे।
हमारा आरंभिक कार्यक्रम यह है कि नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना के प्रत्येक पहलू को हम सब व्रतधारी पूर्णरूप में समझें, उस पर मनन और चिन्तन करें, अपने विचार और विश्वासों को उसी के अनुरूप ढालें। साथ ही इस तैयारी में अपने समीपवर्ती और भी कुछ लोगों को साथ ले लें। यदि ऐसे साथी 7 मिल सकें तो बहुत ही प्रसन्नता एवं सफलता की बात मानी जायगी। पर यह 7 साथी से न्यूनाधिक भी हो सकते हैं।
व्रतधारी धर्म सेवकों की मनोभूमि में नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना में सन्निहित विचारों एवं विश्वासों को गहराई तक प्रवेश कराने के लिए संस्था की ओर से पूरा-पूरा प्रयत्न किया जायगा। अच्छा तो यह होता कि हम स्वयं एक-एक व्रतधारी के साथ साल-साल छह छह महीने रहते और उनके मस्तिष्क में अपनी अन्तर्वेदनाएं एवं भावनाएं उड़ेल देते। अथवा ऐसा होता कि व्रतधारी लोग मथुरा आकर कम से कम वर्ष दो वर्ष मथुरा रहते और हम लोग घुल मिलकर विचार विनिमय करते तथा कुछ करने की व्यावहारिक योजना हर व्रतधारी के लिए बनाते। पर लगता है कि यह दोनों ही बातें कठिन हैं। अधिक व्यक्तियों को कम समय में प्रेरणा देने का कार्य हर व्रतधारी के यहाँ जाकर उनके साथ रहने की योजना द्वारा पूरा नहीं हो सकता। इस तरह तो दस बीस व्यक्तियों की भी सेवा न हो सकेगी। इसी प्रकार कार्य व्यस्त परिजनों से भी यह आशा नहीं की जा सकती कि अपने आवश्यक कर्तव्यों को छोड़कर लम्बे समय तक हमारे साथ रहने का अवकाश निकाल सकेंगे।
तीसरी स्थिति जो व्यावहारिक है वह यही है कि मथुरा रहकर पत्र व्यवहार द्वारा परिजनों के साथ विचार विनिमय जारी रखा जाय और उन्हें कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहन एवं पथ प्रदर्शन पहुँचाने का प्रयत्न किया जाय। चूँकि अपने परिजन बहुत बड़ी संख्या में हैं, उन सबकी नियमित रूप से प्रतिदिन स्याही कलम की सहायता से कार्ड लिफाफों में पत्र लिखना कठिन है। इसलिए यह कार्य ‘प्रेस’ के साधन से सम्पन्न किया जा सकना ही संभव हो सकता है।
गत 20 वर्ष से अब तक इस संस्था में ‘अखंड ज्योति’ पत्रिका निकलती रही है। यह महीने में एक बार हमारे विचार लेकर पाठकों के पास पहुँचती है। यह अवधि बहुत लम्बी है। जो योजना आरंभ की गई है उसके लिए इतनी लम्बी अवधि का पत्र व्यवहार काफी नहीं है। यह विचार विनिमय जल्दी-जल्दी होना चाहिए यह एक वास्तविक आवश्यकता है। इसलिये यह निश्चय किया गया है कि हमारे विचार प्रति सप्ताह अपने स्वजनों के पास पहुँचते रहें। डाक के माध्यम से छपे कागजों में लपेट कर हम हर स्वजन के दरवाजे पर हर हफ्ते उपस्थित हुआ करें।
अब इस संस्था की ओर से चार पत्र प्रकाशित होने लगे हैं (1) अखण्ड ज्योति ता. 1 को (2) जीवन यज्ञ सामाजिक अंक ता. 8 को (3) गायत्री परिवार पत्रिका ता.15 को (4) जीवन यज्ञ धर्म कथा अंक ता. 23 को। इस प्रकार हर हफ्ते एक पत्र प्रकाशित होता है। प्रत्येक अंक में इतने पृष्ठ होते हैं कि एक घंटा प्रतिदिन उन्हें पढ़ा जाय तो एक सप्ताह लग जाता है। इस प्रकार हम इन पत्रों के सहारे प्रत्येक परिजन से एक घंटा रोज सत्संग कर सकेंगे और उन्हें आत्म निर्माण एवं लोक सेवा की आवश्यक प्रेरणा एवं प्रगति प्राप्त करने में सहायक हो सकेंगे।
जीवन यज्ञ अब तक लम्बे अखबारी साइज में निकलता था और उसमें चरित्र बल के ही लेख रहते थे। अब यह परिवर्तन किया गया है कि उसका साइज अखण्ड-ज्योति जैसा ही कर दिया जाय ताकि उसकी भी जिल्द बन सके और पुस्तक रूप में सदा सुरक्षित रखा जा सके। दूसरा परिवर्तन यह किया गया है कि ता. 8 के अंक में समाज सुधार सर्व आत्म निर्माण संबंधी लेख रहा करेंगे और ता. 23 के अंक में धर्मभावनाएं एवं सत्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करने वाली धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएं रहा करेंगी। गायत्री परिवार के कार्यक्रम एवं आयोजनों की सूचना गायत्री परिवार पत्रिका में रहा करेगी अभी वह ता. 20 को निकलती है कुछ ही दिनों में उसे ता.15 को निकाला जाने लगेगा ताकि प्रति सप्ताह का क्रम ठीक रहे। इसी प्रकार जीवन यज्ञ के दो भागों को कुछ ही दिनों में अलग-अलग दो मासिकों का रूप दे दिया जायगा। प्रत्येक मासिक सात सात दिन के अन्तर से पहुँचने की व्यवस्था हो जाने से चारों पत्रों को मिलाकर एक साप्ताहिक पत्र माना जा सकता है। यह साप्ताहिक साहित्य निश्चित रूप में प्रत्येक व्रतधारी को उपलब्ध होता रहे ऐसी योजना बनाई गई है। इस आधार पर हम लोग परस्पर विचार विनिमय करने के अत्यंत आवश्यक कार्य को पूरा कर सकते हैं।
जिनके व्रतधारी संकल्प पत्र भर कर आयेंगे उनके लिए यह चारों अंक भेजने आरंभ कर दिये जावेंगे। जिनके पास जो अंक पहुँच रहे हों उसकी सूचना ये व्रतधारी संकल्प-पत्र में लिख देते ताकि वह दुहरा न पहुँचने लगे। इन अंकों को आरंभ से अंत तक पढ़ना और उनमें दिये हुए विचारों पर शान्त चित्त से मनन करना प्रत्येक परिजन का कर्तव्य है। अपनी जैसी धार्मिक अभिरुचि के अपने कुटुम्बी, संबंधी मित्र परिचित ऐसे और ढूंढ़ने चाहिए जिनमें इनके पढ़ने की अभिरुचि हो या पैदा की जा सके।
सद्विचार प्रचार की धर्म फेरी लगाना सच्ची तीर्थ यात्रा का पुण्य फल प्राप्त करना है। सप्ताह के सात दिन होते हैं। एक-एक दिन एक-एक सात धर्म साथी सज्जनों के यहाँ जाकर उन्हें अपनी यह पत्रिकाएं पढ़ने देना फिर एक से वापिस लेकर दूसरे को देने की योजना द्वारा इन सातों में नियमित संपर्क बना रह सकता है। इन धर्म साथियों को केवल पत्रिकाएं देना ही पर्याप्त न होगा वरन् उनसे मित्र भाव बढ़ाना तथा अपने प्रभाव से सन्मार्ग गामी बनाने का प्रयत्न करना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्रतधारी इस प्रकार सत धर्म साथी बनाये तो नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का प्रचार देश भर में घर-घर हो सकता है और युग निर्माण के वे स्वप्न सहज ही पूरे हो सकते हैं जो आज बहुत कठिन और कष्टसाध्य दिखाई पड़ते हैं।
अभी आरंभ में व्रतधारियों के लिए इतना ही कार्यक्रम है? विचार निर्माण में ही क्रांति के बीजाँकुर सन्निहित है। विचारों में परिवर्तन करके ही हम किसी के कार्यों में परिवर्तन होने की आशा कर सकते हैं। विचारों के बीज ही समुचित खाद-पानी पाकर सुरभित फल पुष्पों से लदे वृक्ष का रूप धारण करते हैं। योजना के अंतर्गत अनेक रचनात्मक कार्य भी हैं। वे यथा अवकाश सुविधानुसार करने के हैं। दैनिक कार्यक्रम में स्वयं स्वाध्याय करना और दूसरे सात धर्म साथियों तक विचार साहित्य पहुँचाना इतना ही कार्यक्रम रखा गया है। इसे पूरा करने में किसी श्रद्धावान एवं एकाभावी धर्मप्रेमी को कोई कठिनाई हो सकती है। यह कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह कार्यक्रम जितना महत्वपूर्ण है उतना ही सरल भी है।
प्राचीन काल में ब्रह्मा की एक परम्परा थी कि प्रत्येक साधू वह घर-घर जाकर धर्मोपदेश करता था, और एक-एक रोटी हर घर से माँगकर पेट भरता था ताकि अपने शरीर को इस योग्य बनाये रहे कि उसके द्वारा धर्मोपदेश की प्रक्रिया बन्द न हो जाय। निज की साधना तपश्चर्या एवं विद्याध्ययन के अतिरिक्त उनका समय इस धर्म-सेवा के परमार्थ में ही लगता था। इस सनातन, ब्राह्मण परम्परा को हम पुनः आरंभ कर रहे हैं। प्रत्येक व्रतधारी के द्वार पर इन चार अंकों द्वारा प्रति सप्ताह हम पहुँचेंगे और सात दिन के योग्य धर्मोपदेश की विचार सामग्री हम देंगे। दैनिक आधा घंटा तक स्वाध्याय से हमारी बात सुनने का समय हर परिजन को निकालना चाहिए। जो हमें अपना स्नेह भाजन मानते हैं, हमारे प्रति सद्भाव रखते हैं, उन्हें यह साहित्य नियमित रूप से पढ़ने का दैनिक पूजन, भजन की भाँति ही कार्यक्रम बना लेना चाहिए। आधा घंटा हमारी बात सुनने के लिए समय निकालना उनके लिए कुछ कठिन न होना चाहिए। जो हमारे मिशन की महत्ता को समझते हैं या व्यक्तिगत रूप से हमारे प्रति सद्भाव रखते हैं। जिन्होंने व्रतधारण किया है उन्हें नियमित रूप से—उपरोक्त योजना के अनुसार सद्विचार पहुँचाने का कार्य हम निरन्तर करते रहेंगे। ब्राह्मण का जो कर्तव्य धर्मोपदेश देकर अपने यजमानों को सन्मार्ग पर प्रवृत्त करना उन्हें महान् बनाना है। यह कार्य करने के लिए हम तत्पर हो रहे हैं। व्रतधारियों को अपना कर्तव्य पालन करना है। यदि ब्राह्मण दरवाजे पर आवे तो उसका सत्कार करें, अतिथि को घर से भूखा न जाने दे। एकाध रोटी उसे दे दे, जिसके उसकी धर्मोपदेश की शक्ति बनी रहे। भूखा रखने पर तो उसका शरीर ही चलना बन्द हो जाय और अतिथि को विमुख लौटाने का पाप भी लगेगा।
धर्म घट स्थापित करने की योजना गत अंक में छापी गई है। यह प्रत्येक व्रतधारी का आवश्यक कर्तव्य है। एक रोटी जितना अन्न उस धर्म घट में नियमित रूप से प्रतिदिन डालते रहना चाहिए। समझना चाहिए कि यह व्रतोपदेश करने वाले आचार्य जी की दैनिक भिक्षा है। इस भिक्षा से हमारा बुद्धि शरीर-विचार प्रसार संगठन—जीवित रहेगा और यह सेवा क्रम नियमित रूप से चलता रहेगा।
सन्त बिनोवा ने उस दिन अपने प्रवचन में कहा था—”पाँडव पाँच नहीं छह थे। छटा पाण्डव कर्ण था। कुन्ती ने उसे त्याग दिया था। इसके परिणाम स्वरूप महाभारत हुआ। इसलिए आप अपने परिवार में एक दरिद्र नारायण को और सम्मिलित कर उसे अपना भाग दें ताकि पुनः महाभारत की पुनरावृत्ति न हो।”
परिजन हमें भी अपने परिवार का एक सदस्य मानें। घर के सब लोग जितना भोजन करते हैं, उतना न दें तो छोटे बच्चे को जितना प्रेम उपहार दो पैसा प्रतिदिन मिलता है उनका हमें-हमारी संस्था को अवश्य दें। धर्म घट में यह एक मुट्ठी अन्न या दो पैसा प्रतिदिन पड़ता रहे तो वह चारों अंकों की कागज छपाई एक पोस्टेज का मूल्य हो सकता है। यह चारों अंक इस धर्म मुट्ठी के आधार पर जीवित रह सकते हैं और परिजनों को आत्मिक उन्नति में आवश्यक योग देते हुए युगनिर्माण की उस महान् जिम्मेदारी को पूरा कर सकते हैं जो गत सहस्र कुँडी महायज्ञ के अवसर पर इस संस्था ने अपने कन्धे पर उठाई है।
क्या आप इस महान् अभियान में हमारे सहयोगी होंगे? अथवा फुरसत न मिलने, आर्थिक कठिनाई होने आदि का कोई बहाना बनाकर उपेक्षा करेंगे? यह निर्णय आपको अब कर ही लेना है। क्योंकि संस्था महत्वपूर्ण कदम उठाने जा रही है उसे अपने साथियों की सही स्थिति का पता लगाना ही है ताकि उसी आधार पर मंजिल पार करने की तैयारी की जाय।
—श्रीराम शर्मा आचार्य