दूसरों की प्रशंसा कीजिए, प्रोत्साहन दीजिए

May 1959

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(पं. केशवदेव गोस्वामी)

प्रशंसा प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा होना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह भूख मानव हृदय में कभी कम नहीं होती है। इस भूख को वास्तविक ढंग से शान्त करने में कोई-कोई व्यक्ति ही सफल होते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, सेवा, परमार्थ कार्य आदि से अपने जीवन को महान् बनाने वाला व्यक्ति ही इस भूख को वास्तव में शान्त करता है। प्रशंसा उसके पीछे दौड़ी-दौड़ी फिरती है। संसार को वह नवीन मार्ग प्रदर्शित करता है। गलत मार्ग का अनुकरण करने वाला व्यक्ति प्रशंसा का अधिकारी बनने में असफल रहता है।

किसी की केवल आलोचना ही न करके यदि उसके सद्गुणों की प्रशंसा भी की जाय तो वह हमारा मित्र बन जायगा। दूसरों की अच्छाइयों की प्रशंसा करने की कला मनुष्य स्वभाव की एक अमूल्य निधि है। इससे वह सफलता के अनेकों साधन उपलब्ध करके स्वयं और दूसरों के प्रगतिशील एवं विकसित जीवन का निर्माण कर सकता है। सच्ची एवं उदार प्रशंसा करने का ढंग भी विरले ही व्यक्ति जानते हैं। चापलूसी करना प्रशंसा करना नहीं है। सच्चे हृदय से मनुष्य के गुणों के प्रति प्रेम भरे अपने भाव उद्गारों को जी खोलकर अभिव्यक्त करना प्रशंसा का सच्चा स्वरूप है। इन भाव उद्गारों से प्रशंसा करने वाला तथा पाने वाला दोनों ही आनन्द में डूब जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में प्रशंसा करने के लिए कोई न कोई बात अवश्य होती है। सर्वथा गुणहीन व्यक्ति कोई भी नहीं है। अतः सच्चाई और ईमानदारी के साथ सभी की प्रशंसा करना चाहिए। प्रशंसा का रूप इतना भी नहीं बढ़ा देना चाहिए जिससे कि वह चापलूसी जैसा बन जाय। मिथ्या प्रशंसा या चापलूसी मनुष्य को गलत मार्ग पर ले जाती है और परिणामस्वरूप कहने वाले तथा सुनने वाले का पतन ही होता है। अतः प्रशंसा में सदा ईमानदारी, निष्पक्षता, सच्चाई होना आवश्यक है। चाटुकारिता अर्थात्, चापलूसी; दूसरों को उल्लू बनाने की भावना, स्वार्थ साधन की प्रधानता रखना प्रशंसा करना नहीं वरन् धूर्तता है। इससे उभय पक्षों को हानि एवं अवनति ही उठानी पड़ती है।

प्रशंसा में अवसर एवं विषय की प्रधानता भी महत्वपूर्ण होती है। जब किसी से मिला जाय तो उस व्यक्ति से सम्बन्धित शुभ कार्य, सफलता आदि का ध्यान रखकर उसे बधाई देना नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि जब मनुष्य अपनी सफलता एवं शुभ कर्मों के लिए बधाई प्राप्त करता है तो बहुत ही प्रसन्न होकर प्रशंसा करने वाले का मित्र बन जाता है। यदि कोई असफल हो गया हो अथवा कोई दुर्घटना घटी हो तब सच्चे हृदय से अपनी सहानुभूति प्रकट करने में नहीं चूकना चाहिए। भविष्य के लिए उसे उत्साहित करना चाहिए जो व्यक्ति किसी की असफलता, दुःख दर्द में विशेष सहायता न करके केवल सच्चे हृदय से अपनी सहानुभूति भी प्रकट करता है वह उसे प्रियजन एवं अपना निकट सा प्रतीत होता है।

इसी तरह शत्रु की प्रशंसा भी की जाय तो शत्रुता घट सकती है। वशिष्ठ जब चाँदनी रात में बैठे हुए अपनी पत्नी से विश्वामित्र की प्रशंसा कर रहे थे कि “सुन्दरी यह चाँदनी किस तरह चारों ओर छिटक रही है मानों विश्वामित्र की तपस्या ही चारों और छिटक रही है।” इसका परिणाम यह हुआ कि वशिष्ठ, जी के भारी शत्रु एवं उनके बच्चों को मार देने वाले, विश्वामित्र जो उन दोनों को भी मारने के लिए आये थे और कुटिया के पीछे खड़े थे आकर वशिष्ठ मुनि के पैरों में पड़ गये। साराँश यह है कि सच्चे हृदय से एवं मुक्त कंठ से शत्रु की, की हुई प्रशंसा उसे मित्र रूप में बदल कर कृतज्ञ बना देती है।

प्रशंसा कई प्रकार की होती है। जैसे कि रंग-रूप, पराक्रम सत्कार्यों की, सच्चाई ईमानदारी की, व्यक्ति की विशेषताओं का वर्णन। इन सभी बातों को ध्यान में रखकर निष्पक्ष एवं ईमानदारी पूर्वक प्रकाश डालने से क्या बड़े, क्या छोटे सभी तरह के व्यक्ति प्रभावित होते हैं। पुरुष अपनी स्त्री की सुन्दरता, भोजन बनाने की कला, सद्गुण, शीलता आदि की प्रशंसा करके और स्त्री अपने पति के सद्गुण, शुभकर्म, पुरुषार्थ, पराक्रम, ज्ञान, स्वास्थ्य, उपार्जन, चातुरी आदि की प्रशंसा करके एक दूसरे के अधिक सहयोगी एवं अधिक घनिष्ठ हो सकते हैं।

बच्चे तक भी प्रशंसा पाने के लिए कितने लालायित होते हैं। मनुष्य की इस स्वाभाविक भूख का अनुमान तो बच्चों तक की स्थिति से लगाया जा सकता है। खेलकूद में, पढ़ने में, एवं परिश्रम में सफलता पाने अथवा उनकी अन्य बातों की प्रशंसा करके बच्चों का उत्तम निर्माण किया जा सकता है। बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। अपनी प्रशंसा सुनकर फूले नहीं समाते।

अपने छोटे, सेवक, भृत्य आदि की प्रशंसा करने से भी कभी नहीं चूकना चाहिए। अकसर इस श्रेणी के व्यक्तियों को उच्च श्रेणी के व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त करने के अवसर बहुत ही कम मिलते हैं। यदि सच्चे हृदय से इनसे भी प्रशंसा एवं सहानुभूति प्रकट की जाय तो ये प्रफुल्लित होकर और उत्साह से अपना सेवा कार्य करते हैं।

इसी तरह जिस किसी में भी कोई स्वाभाविक गुण हों और वह उससे अनभिज्ञ हो तो उसकी प्रशंसा करके उत्तम सद्गुण के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। ऐसा करने से न केवल वह कृतज्ञता प्रकट करता है वरन् उक्त गुण का विकास करके अपने कार्य को प्रगतिशील बनायेगा। हमारे देश में गुरु शिष्य परम्परा में एक यह बात भी अपना स्थान रखती है कि सूक्ष्म एवं दिव्य दृष्टि गुरु जब शिष्य को उसकी अंतर आत्मा में छिपे महान् सत्यों का ज्ञान देकर प्रोत्साहन देता है तो वे साधारण से शिष्य महान् बनकर संसार की बहुत बड़ी सेवा करते हैं। राम-कृष्ण जी ने विवेकानन्द का, विरजानन्द जी ने दयानन्द का, समर्थ रामदास ने वीर शिवाजी जैसे महान् व्यक्तियों का निर्माण उनके सद्गुणों को विकसित करके ही किया था।

प्रशंसा एक उपहार है, जिसका परिणाम सदैव आनन्दमय होता है। इसके मुकाबले साधारण लौकिक वस्तुओं की सहायता उतना महत्व नहीं रखती। प्रशंसा एवं आत्म सम्मान प्राप्त करने की भावना सभी में होती है। हर व्यक्ति इसका भूखा होता है। अतः हमें दूसरों की प्रशंसा करने में न तो कंजूसी ही करनी चाहिए और न किसी की चापलूसी ही करनी चाहिए। हमें एक दूसरे को दाद देने—प्रोत्साहित करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए।

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रजिस्ट्रेशन ऑफ न्यूज पेपर्स (सेंट्रल) नियम 1956 के 8 वें नियम के अंतर्गत “अखंड ज्योति” सामयिक पत्र के स्वामित्व तथा अन्य विषयों के सम्बन्ध में प्रकाशित किया जाने वाला विवरण-


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