जीवनोत्कर्ष में विवेक और वैराग्य का स्थान

May 1959

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(श्री रोहित मेहता)

आध्यात्मिक मार्ग के पथिक के लिये विवेक का साधन केवल अस्थायी रूप से करना पर्याप्त नहीं माना गया है। अन्य साधनों की भाँति विवेक कोई ऐसी वस्तु या शक्ति नहीं है कि जिसमें एक बार सिद्धि पाकर फिर अभ्यास की जरूरत न पड़े और आवश्यकता पड़ने पर ही उसका उपयोग किया जाय। इसके विपरीत वह एक ऐसी सचेतन, सूक्ष्म और अपार्थिव शक्ति है जो जीवन में आदि से अन्त तक हमारे साथ रहती है और हमारे कामों का निरीक्षण किया करती है। यदि हम कभी उसकी प्राप्ति से संतुष्ट हो जाते हैं, उसका नियमित उपयोग आवश्यक नहीं समझते तो हमारे कार्यों में तुरन्त हानि और क्षीणता का भाव उत्पन्न हो जाता है।

विवेक का वास्तविक आशय यह है कि हम मानसिक, भावात्मक और भौतिक जीवन में जागरुक बने रहें। यदि हम अपने स्थूल जीवन में निष्क्रिय, भावात्मक जीवन में निश्चेष्ट और मानसिक जीवन में निष्प्राण होंगे, तो समझना चाहिये कि हम विवेक के साधन से पृथक हैं। संसार के प्रत्येक विषय के दो पहलू अवश्य होते हैं—सत्य और असत्य अथवा आवश्यक और अनावश्यक। इसलिये प्रत्येक कार्य में विवेक की साधना—उपयोग अत्यावश्यक है। हमारा मन इतना सतेज होना चाहिये कि हम किसी भी कोने में से आते हुये विचार प्रवाह को जान सकें। हमारा हृदय इतना शुद्ध होना चाहिये कि भावों की सूक्ष्मतर लहरों का प्रत्युत्तर दे सकें और हमारी स्थूल इन्द्रियाँ इतनी सुसंस्कृत होनी चाहिये कि स्थूल जगह के सूक्ष्म आन्दोलनों को भी ग्रहण कर सकें। इसका आशय यही है कि हमारी स्थूल और सूक्ष्म शक्ति यों का विकास उच्चतम होना विवेक की साधना के लिये परमावश्यक है। वर्तमान विज्ञान कहता है कि अपनी परिस्थिति के साथ जो जीवन मिलजुल जाता है उसके लिये आगे विकास की कोई संभावना नहीं रहती। इसके विपरीत जो जीवन परिस्थिति से असंतुष्ट है, उसे स्वीकार नहीं करता है, वही विकसित हो सकता है।

यही बात विवेक के सम्बन्ध में भी है। वह सरिता के प्रवाह के सदृश्य गतिमान और शक्तिमान है। वह एक ऐसी अवस्था है जिसमें हमारी समस्त शक्तियाँ उत्तरोत्तर सचेत और सतर्क बनती जाती हैं। विवेकयुक्त अवस्था वही है जो हमें उच्चतम भूमिका पर लाकर जीवन की समस्याओं के हल करने का मार्ग दिखावे। जैसे-जैसे हम एक उच्च भूमिका पर पहुँचेंगे वैसे ही असन्तुष्ट होकर उसका त्याग करेंगे, क्योंकि पर्वत के उच्च शिखर पर पहुँचते ही हमको उससे भी उच्चशिखर का दर्शन होगा। विवेक शक्ति इसी प्रकार हमारा आगे की तरफ पथप्रदर्शन करती रहती है।

कुछ लोग प्रश्न करेंगे कि ऐसी असंतोष की अवस्था आध्यात्मिक साधना में कैसे सहायक होती है? आध्यात्मिक जीवन का आशय क्या है? हमको जो सानुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त हो गई है उसी के बीच सदैव “सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्” स्वरूप की अनुभूति होना ही सच्चा आध्यात्मिक जीवन है। जिसको ऐसा अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त होता है वही वास्तव में संत, योगी, आध्यात्मिक पुरुष है।

स्थूल और सूक्ष्म इन्द्रियाँ यद्यपि हमें सत तत्व का दर्शन नहीं करा सकती हैं, किन्तु सत्य के समीप निषेधात्मक रूप से हमें ले जा सकती हैं। सत् शिव और सुन्दर क्या है, यह वे अवश्य बता सकती हैं। भूतकाल का अनुभव बताता है कि हम सत्य प्राप्ति में असफल हुये हैं, क्योंकि हमारा जीवन अभी भी दुःखमय है। संसार में अनेक प्रकार की वस्तुओं से हम आकर्षित हुये हैं और उनकी प्राप्ति से हमने सुख पाने की आशा की है। परन्तु प्रत्येक समय ऐसी प्राप्ति के पश्चात् हमें अनुभव हुआ है कि उसके द्वारा वाँछित सुख प्राप्त नहीं हुआ और सत तथा आनन्द की खोज अभी बाकी है। इस तरह के अनुभवों से सत् को निषेधात्मक रूप में समझने में हम समर्थ बनते हैं। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में यदि हमारा मन और हृदय सतेज और सचेत न रहे तो यह निषेधात्मक ज्ञान हमें शीघ्र ही प्राप्त होगा। विवेकशील साधक वही है जो जीवन की विविध घटनाओं के बीच रहते हुये ऐसा ज्ञान प्राप्त करे।

विवेक के बाद वैराग्य का अभ्यास भी आध्यात्मिक प्रगति के लिये आवश्यक है। इस सम्बन्ध में पहली बात यह है कि इच्छाओं का दबाना या उन्मूलन करना वैराग्य का अर्थ नहीं है। ऐसा करने से तो मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है और वह मूढ़ या पाखंडी बन जाता है। इसलिये विद्वानों का मत है कि वैराग्य उस स्थिति का नाम है जब मनुष्य किसी कार्य को करते हुये भी उसमें लिप्त नहीं होता। इसके लिये हमको मन की अत्यन्त सतर्क अवस्था में रहकर जीवन का साक्षी बनना चाहिये। सतर्क रहकर जीवन का निरीक्षण करना ही विरक्तावस्था है। यह निरपेक्षता ही वास्तव में वैराग्य है। जीवन की परिपूर्णता का भाव परिपूर्ण रूप से करते हुए उसके प्रति आसक्ति न होना ही उत्तम कोटि का वैराग्य है। विवेक से मन पराकाष्ठा को पहुँचता है और उसी अवस्था में वैराग्य द्वारा उसका संतुलन होता है। विवेक से यदि वैराग्य उत्पन्न नहीं होता तो उससे मन चिड़चिड़ा, क्रोधी, अधीर तथा अत्यधिक उत्तेजित हो जाता है। वैसे यदि वैराग्य की पुष्टि विवेक से न हो तो उससे निष्क्रियता, अत्यन्त उदासीनता एवं शून्यता आ जाती है। तनी हुई अवस्था में यदि मन शान्त रहता है, मनुष्य सच्चा आध्यात्मिक कार्य कर सकता है। वैराग्य द्वारा ही सात्विक कार्य वास्तव में सम्पन्न हो सकता है और वैराग्य के लिये अखंडित परित्याग की वृत्ति—जो विवेक है—नितान्त आवश्यक है। मनुष्य के सामने सदैव रुचिकर और रुचि के प्रतिकूल घटनाएँ आया करती हैं। और वह या तो उसका स्वागत करता है या तिरस्कार। पर ऐसा करने से उसकी प्रगति रुक जाती है। किन्तु यदि इस अवसर पर वह विरक्त अर्थात् निरपेक्ष और पूर्णतया शान्त रहता है तभी वह सच्चे आध्यात्मिक पथ पर द्रुतगति से अग्रसर होगा।


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