अकेला चल! अकेला चल!!

May 1959

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यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे।

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।

यदि केउ कथा ना कय, ओरे ओरे ओ अभागा,

यदि सबाई थाके मुख फिराये, सबाई करे भय तबे परान खुले,

ओ तुइ मुख फुटे तोर मनेर कथा एकला बलो रे ॥

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे ओरे ओ अभागा,

यदि गहन पथे जाबार काले केउ फिरे ना चाय तबे पथेर काँटा,

ओ तुइ रक्तमाखा चरण तले एकला हलो रे ॥

यदि आलो न घरे, ओरे ओरे ओ अभागा,

यदि झड-बादले आँधार राते दुआर देय घरे तबे बज्रानले,

आपन बुकेर पाँजर ज्वालिये निये एकला ज्वलो रे॥

यदि कोई तुझ से कुछ न कहे। ओ भाग्यहीन! सब तुझ से मुँह फेर लें और सब तुझ से डरें—तो भी तू अपने खुले हृदय से-अपना मुख खोलकर अपनी बात अकेला कह।

अगर सब तुझ से विमुख हो जाएं। यदि गहन पथ प्रस्थान के समय कोई तेरी ओर फिरकर न देखे। तब पथ के काँटों को अपने लहू-लुहान पैरों से दलता हुआ अकेला चल।

यदि प्रकाश न हो, झंझावात और मूसलाधार वर्षा की अंधेरी रात में-जब अपने घर के दरवाजे भी लोगों ने बन्द कर दिये हों, तब उस वज्रानल में-अपने वक्ष के पिंजड़ को जला उसके प्रकाश में अकेला ही जलता रह।

—विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर


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