योजना कठिन नहीं-सरल है।

May 1959

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अखण्ड ज्योति परिवार के परिजन अब साधारण स्वाध्यायशील धर्म प्रेमी ही न रहें ऐसी हमारी आंतरिक इच्छा है इस संस्था ने युग निर्माण का परम पुनीत व्रत लिया है इसे सफल बनाने में हम सब शक्ति भर प्रयत्न करें।

पिछले अंक में (1)आत्म निर्माण (2) जनजागृति (3)रचनात्मक कार्यों का विस्तृत कार्य-क्रम प्रकाशित किया गया था। उसकी रूप-रेखा बड़ी है। हमारा राष्ट्र बहुत बड़ा है,उसमें समस्यायें भी बड़ी हैं उसके उत्थान के लिए छोटी, सीमित एवं एकाँकी योजना नहीं बन सकती। बड़े कार्यों का ढंग भी बड़ा ही होता है। हमारी युग निर्माण योजना में यदि अनेक कार्य-क्रमों का समावेश है तो यह स्वाभाविक ही है, इसमें आश्चर्य- जनक कोई बात नहीं है।

योजना जितनी बड़ी है, उतनी ही सरल भी है। यह कैसे पूरी हो सकेगी इस संबंध में चिन्ता करने का कुछ कारण नहीं है। कालचक्र पलट रहा है, जिन्हें विवेक की सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है वे स्पष्ट देख रहे हैं कि अज्ञान के अन्धकार का युग बीत गया अब प्रकाश की—जागृति की-नव निर्माण की पुण्य-बेला आरंभ हो रही है। समय बड़ा बलवान है। वह पलटता है तो व्यक्ति भी बदलते हैं और परिस्थितियाँ भी परिवर्तित हो जाती हैं।

जो होने जा रहा है, उसमें सहयोग देकर श्रेयलाभ करना बुद्धिमत्ता ही है। राजनैतिक स्वतंत्रता आने वाली थी, उसे लाने में जिनने योग दिया वे आज नेता महापुरुष और युग निर्माता के नाम से सम्मानित किये जाते हैं। जो समय को न पहचान सके, अपनी व्यक्तिगत समस्यायें सुलझाने में इन स्वराज्य सेवकों से भी अधिक कष्ट सहते रहे वे आज पछताते हैं। उनकी व्यक्तिगत समस्यायें भी न सुलझ सकीं और एक बड़े सौभाग्य से वंचित रह गये। इस दुहरी हानिकारक स्थिति से उन्हें पश्चाताप होता है। जिन्होंने समय के साथ चलने का साहस किया वे प्रसन्न है उनकी व्यक्तिगत समस्यायें भी किसी प्रकार हल हो ही गई और वीर पुरुषों की गणना में अपने को गौरवान्वित करके जो आत्म संतोष पाया वह अतिरिक्त लाभ उपलब्ध रहा।

यह निश्चित है कि हमारा व्यक्तिगत चरित्र आज जिस गिरी हुई स्थिति में है कल उसमें नहीं रहेगा। उसे ऊँचा उठाना ही है। यह ठीक है कि स्वराज्य प्राप्त होने के बाद इन दस वर्षों में अनैतिकता ने सब क्षेत्रों में पैर बढ़ाये हैं, पर यह फैलाव चिरस्थायी नहीं है; प्रतिरोध की वह शक्तियाँ जन्म ले रही हैं; विकसित हो रही हैं जो इस बढ़ती हुई अनैतिकता को रोकेंगी और उसे घटने के लिए विवश कर देंगी। लम्बे लंघन में से उठकर अच्छा हुआ रोगी यह सोचता है कि सभी स्वादिष्ट पदार्थ जितनी जल्दी हो सके खा लूँ। उसकी नीयत खराब हो जाती है चिकित्सक और परिचारकों के पंजे में से छूटते ही लंघन के दिनों में जो मन मारना पड़ा था, छोटी-छोटी स्वादिष्ट चीजों से वंचित रहना पड़ा था अब थोड़ी सुविधा मिलते ही वह जल्दी-जल्दी उस विवशता की पूर्ति करना चाहता है और जो कुछ स्वादिष्ट मिलता है उसे ही बिना मात्रा, आवश्यकता एवं लाभ हानि का विचार किये मन मानी खाना चाहता है। यही बात आज हमारे जन समाज की है।

स्वाधीनता प्राप्त होने से मन का साहस बढ़ा, विदेशी शासन चला जाने से शासन की उन्नति कम हुई, गान्धी जैसे प्रकाश-दीप के बुझ जाने और हमारे वर्तमान पथ-प्रदर्शकों द्वारा अपने अच्छे उदाहरण उपस्थित न कर सकने के कारण जन साधारण की नीयत डावाँडोल हो गई है। भ्रष्टाचार एक क्षेत्र में नहीं, सभी क्षेत्रों में बढ़ा है, इसे स्वीकार करने में कुछ आपत्ति नहीं की जा सकती। पर इसमें निराशा की कुछ बात नहीं है। लंघन से उठा रोगी सर्वथा विवेक विहीन नहीं होता। उसे स्वयं भी समझ आती है और उसके हितैषी ऐसी अनियन्त्रित गड़बड़ी करने से उसे रोकते भी हैं। उसकी वह बेवकूफी देर तक चलती नहीं रह सकती, अन्ततः समझदारी ही जीतती है। पिछले दिनों जो अनैतिकता बढ़ी है वह देर तक नहीं चलेगी उसे सीमाबद्ध होना ही है-उसे घटना और हटना ही पड़ेगा। समझदारी और प्रतिरोध की चेतना उसे उसके लिए विवश करके मानेगी।

व्यक्तिगत अनैतिकता की ही भाँति सामाजिक कुरीतियाँ भी एक समस्या हैं। लम्बी विदेशी पराधीनता ने हमारे सामाजिक स्तर को, भावना क्षेत्र को बहुत गिराया। इस गिरावट से जो चोटें लगीं, घाव हुए वही सामाजिक कुरीतियों के रूप में सामने मौजूद हैं। इनके द्वारा जो अपार क्षति हो रही है, प्रगति में बाधा पड़ रही है, उसकी भयंकरता को सोचकर रोमाञ्च खड़े हो जाते हैं। एक छोटी सी कुरीति को लीजिए—”पर्दा”। मुसलमानी शासन काल में बहिन बेटियों का सतीत्व सुरक्षित न था, आत्म रक्षा के सामयिक उपाय की तरह तथा शासकों की संस्कृति में पर्दा मौजूद रहने से उनके अनुकरण के रूप में भारत में भी पर्दा अपनाया गया। उस समय वह बात किसी हद तक ठीक भी थी, पर आज जब वैसी आवश्यकता नहीं रही तो भी एक चिन्ह पूजा एवं रूढ़ि के रूप में उसे जारी रखना, समाज के आधे अंग—नारी को लुँजपुँज बनाये रखना है।

जिस समाज का आधा अंग सर्वथा अविकसित हो, अपनी सुरक्षा एवं आजीविका के लिए भी जिसे दूसरों पर अवलंबित रहना पड़े, वह राष्ट्र पर एक प्रकार से भार ही है। इस स्थिति को न बदला जाय तो नारी के द्वारा समाज के विकास में योग देना तो दूर उसकी सुरक्षा एवं भरण पोषण में ही पुरुष की शक्ति समाप्त होती रहेगी। नारी को सुविकसित एवं स्वावलम्बी बनाया जाना आवश्यक है, पर पर्दे की मान्यता जो हमारे मस्तिष्कों में जड़ जमाये हुए हैं वह रूढ़ि नारी के विकास मार्ग में चट्टान की तरह अड़ गई है। यदि उसे न हटाया जाय तो यह निश्चित है कि जिस प्रगति की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने में शताब्दियाँ लग जायेंगी।

प्रसंगवश पर्दा प्रथा की चर्चा कर दी गई। ऐसी ही अनेकों कुरीतियाँ हैं जो हमारे सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन के लिए अभिशाप बनी हुई हैं। नशेबाजी में प्रतिदिन लगभग बीस लाख रुपया खर्च होता है। यह रकम इतनी बड़ी है जिसे बचाकर हम वर्तमान स्कूल कॉलेजों की अपेक्षा तीन गुने अधिक विद्यालय खोल सकते हैं। अपनी शिक्षा समस्या हल कर सकते हैं। इतना ही नहीं—नशेबाजी द्वारा होने वाली स्वास्थ्य की बर्बादी को रोककर उत्पादन बढ़ा सकते हैं और दवादारु का खर्च घटा सकते हैं। यह तो नशेबाजी का आर्थिक पहलू हुआ, उसके द्वारा शारीरिक अस्वस्थता के कारण व्यक्ति को पीड़ा सहनी पड़ती है, अल्पायु में जीवन समाप्त होने से पीछे स्त्री बच्चे अनाथ रह जाते हैं, तथा नशे के द्वारा मानसिक एवं चारित्रिक गिरावट का भी हिसाब लगाया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि यह एक छोटी सी नशेबाजी की सामाजिक बुराई कितनी भयंकर है। इसे रोकने का प्रयत्न न किया जाय तो हमारी बर्बादी का भयंकर मार्ग खुला पड़ा रहेगा।

यद्यपि नशीली चीजों में कोई मीठा, नमकीन बढ़िया स्वाद नहीं होता—उलटी वे कड़ुई कसैली होती हैं फिर भी आदत से लाचार होकर लोग उन्हें पीते हैं और धन, धर्म तथा स्वास्थ्य की होली फूँकते हैं। यह आदतें ही हैं जो मुश्किल से छूटती हैं। मनुष्य में एक भारी दुर्बलता यह है कि जिस विचार, विश्वास या व्यवहार को कुछ दिन अपनाये रहता है वे उसके मन में बस जाते हैं, फिर वे न तो उसे बुरे लगते हैं, और न उन्हें छोड़ने की तबियत होती है। इसके विपरीत यदि कोई उन्हें छोड़ने को कहे तो उलटा बुरा लगता है और उस दोष बताने वाले से लड़ने को जी होता है। बुरी आदतें एवं बुरी मान्यताएं भी जब बहुत दिनों सहचरी रहती है तो वे एक प्रकार से प्रिय और मधुर लगने लगती हैं, उन्हें अपनाने के कई तर्क, कई कारण, कई उदाहरण ढूंढ़ निकालते हैं। बहुत बार तो इन बुरी बातों के पक्ष में शास्त्र प्रमाण तक ढूंढ़ निकाले जाते हैं।

दहेज की बुराई से हर बाल बच्चेदार आदमी परिचित है। मृतक भोज भी जंगली प्रथा है जिसमें एक आदमी मरे उसकी खुशी में माल मलीदे उड़ाये जायं, यह वस्तुतः मनुष्यता की लज्जित करने वाला रिवाज है। घर का एक व्यक्ति मरा साथ ही लम्बे प्रीतिभोज में घर की कुर्की हो गई। यह दुहरी क्षति उन शोक संतप्त लोगों को कितनी महंगी एवं कष्ट कारक हो सकती है इस बात को मामूली समझ का आदमी भी अनुभव कर सकता है। पर चूँकि यह प्रथाएं चल रही हैं, नशेबाजी की आदत की तरह मान्यताएं और भावनाएं भी आदत में घुल जाती हैं तो फिर उन्हें छोड़ने का साहस नहीं होता। ऐसी बीसियों कुरीतियाँ हमारे समाज में जड़ जमाये हुए हैं। इन्हें यदि इसी रूप में रहने दिया जाय, बदलने का प्रयत्न न किया जाय तो वह दुर्बलताएं ही हमें ले डूबेंगी। प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध पड़े रहेंगे।

व्रतधारी आन्दोलन व्यक्तिगत एवं सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों के संशोधन का आँदोलन है। व्यक्तिगत चरित्र में, आदर्श लक्ष्य एवं दृष्टिकोण को ऊँचा उठाया जाना आवश्यक है। यह हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के अनुरूप है। युग युगान्तरों में यह देवताओं का देश रहा है। अब हम दुश्चरित्र एवं कुमार्ग गामी कहलावें, दीन हीन स्थिति में पड़े रहें, हमारी भावनाएं और आकांक्षाएं घटिया हों तो यह हमारे लिए लज्जा की बात होगी। हमारा राष्ट्रीय, साँस्कृतिक एवं सामाजिक गौरव इसी में है कि इस देश का बच्चा बच्चा मनुष्यता के आदर्शों को समझने वाला, उन्हें अपने अन्दर धारण करने वाला और उनकी रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने की हिम्मत रखने वाला हो। गुण, कर्म और स्वभाव की दृष्टि से हमें ऐसा सुसंस्कृत होना चाहिए कि प्रत्येक भारतीय अपनी आत्मा की दृष्टि में और सारे संसार की दृष्टि में महापुरुष परिलक्षित हो।

व्यक्ति भौतिक दृष्टि से साधन सम्पन्न बनें यह प्रयत्न होना ही चाहिए पर यदि चारित्रिक दृष्टि से गुण-कर्म और स्वभाव की दृष्टि से ऊँचे न उठ सके तो यह भौतिक उन्नति हमें सुख शान्ति उपलब्ध कराने के स्थान पर उलटे फिजूल खर्ची, विलासिता एवं उच्छृंखलता के कुमार्ग पर भटका देगी। इसलिए आज की यह महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि व्यक्तिगत चरित्र को उज्ज्वल बनाने के लिए सामूहिक एवं संगठित प्रयत्न किये जायं।

इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों को हटाकर उन स्वस्थ परम्पराओं की पुनः प्रतिष्ठापना करनी है जो लाखों करोड़ों वर्ष तक इस देश के सामाजिक जीवन की प्रधान अंग रही हैं। भारतीय संस्कृति की मूल मान्यताएं एवं परंपराएं विवेक, आदर्शवाद एवं देश काल पात्र की अनुकूलता पर आधारित रहती हैं। समयानुसार सुधार एवं परिवर्तन के लिए उनमें पूर्ण गुंजाइश रखी गई है। आज की परिस्थिति के अनुरूप आवश्यक सुधार एवं हेर-फेर करना हमारे धार्मिक आदर्शों के सर्वथा अनुकूल है। ऐसा समय समय पर होता रहा है और होना चाहिए। इसके आदेश एवं प्रमाणों से हमारे शास्त्रों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है।

व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में व्याप्त अनैतिकता एवं कुप्रवृत्तियों को हटाकर विवेक एवं सदाचार से परिपूर्ण स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना करना आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। युगनिर्माण का यही प्रमुख आधार है। नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना के अंतर्गत हमें यह दो ही कार्य करने हैं। छोटे मोटे अन्य सभी कार्यक्रम इन दो बातों के अंतर्गत आ जाते हैं।

हममें से प्रत्येक व्रतधारी को यह समझ लेना है कि अपनी व्यक्तिगत दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न नियमित रूप से करते रहना है। यह प्रयत्न अपने तक भी सीमित नहीं रखना है वरन् अधिकाधिक लोगों को इस प्रक्रिया से लाभान्वित करना है। जो बुराइयाँ सामाजिक रूप धारण कर चुकी हैं उन्हें भी इस प्रकार सुधारना है जिस प्रकार कि हम अपने आत्मनिर्माण के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को अधिक स्वस्थ, अधिक पवित्र एवं अधिक विवेक सम्मत बनाने का प्रयत्न आरम्भ करने—उस दिशा में धीरे तेज जैसे भी बन पड़े उस गति से चलने का हमारा व्रत है। इस व्रत का पालन कुछ भी कठिन नहीं है। यह बहुत ही सरल है। बशर्ते कि इन दो आवश्यक तथ्यों को अपने दैनिक जीवन के आवश्यक कार्यों में सम्मिलित कर लें।


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