जीवन में निर्भीकता आवश्यक है।

May 1959

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

“बल पुण्य और दुर्बलता पाप है। यदि किसी को धर्म की शिक्षा देनी हो तो वह “अमरत्व” रूपी धर्म है। इस बात की आवश्यकता है कि हमारे खून में गर्मी हो, स्नायुओं में बल हो। न किसी को हानि पहुँचानी चाहिए और न किसी पर अत्याचार ही करना चाहिए, पर दूसरों की कुचेष्टाओं को चुपचाप सह लेना भी पाप है।” इस प्रकार से स्वामी विवेकानन्द ने हमारा उचित ही मार्ग प्रदर्शन किया है। वास्तव में आत्म दुर्बलता होने के कारण ही किसी मनुष्य में भय के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं। किसी के आत्म-बल की परीक्षा करनी हो तो यह देखना चाहिए कि उसमें छोटी-छोटी बातों पर आशंका, सन्देह और भय तो उत्पन्न नहीं हो जाते। जो रोग, शत्रु, चोरी, डाके, सर्प, धनाढ्यों, अफसरों आदि से भयभीत होते रहते हैं उन्हें निर्बल मनुष्य ही मानना पड़ेगा। भय एक ऐसा तत्व है जो मनुष्य को निरन्तर नीचता की ओर ले जाता है। निर्भयता से आत्मिक उत्थान की ओर प्रगति होती है।

महात्मा गाँधी ने एक स्थान पर कहा है कि “बल तो निर्भयता में है, शरीर में माँस बढ़ जाने में नहीं।” भगवान कृष्ण ने भी गीता में दैवी संपत्तियों का वर्णन करते हुए ‘निर्भयता’ को सबसे पहले रखा है, इससे उनका अभिप्राय यह है कि बिना अभय के दूसरी सम्पत्तियों का मिलना असम्भव है क्योंकि निर्भयता ही तो वह शक्ति है जो मनुष्य के आत्म-बल को बढ़ाती है। मनुष्य में जो साहस, उत्साह और आशा दिखाई पड़ती है वह उसी दैवी गुण के कारण होता है। आप जानते हैं कि स्वतन्त्रता से शक्ति का विकास होता है और बन्धन से यह क्षीण होती है। चूँकि निर्भयता मनुष्य के प्राण को स्वतन्त्र बनाती है इसलिए उसे ऐसी शक्ति कहा जा सकता है, जो जीवन में एक नव स्फूर्ति ला देती है। आशंका रहित मनुष्य ही संसार में शक्तियों का विकास कर सकता है, सफलता की देवी उसी की आरती उतारने के लिए आतुर रहती है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने कठिन से भी कठिन परिस्थितियों में सफलता प्राप्त करने के लिए इसी शक्ति का सहारा लिया है।

एक बार नेपोलियन की सेनाओं के पैर शत्रुओं के प्रबल आक्रमण के कारण उखड़ने लगे। सभी अपना प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। एक सेना अधिकारी उसके पास आया और कहा “हम तो हार गये।” नेपोलियन ने कहा “तुम ही हारे गये, वह सेना नहीं हारी।” इसके पश्चात् वह तुरन्त ही सेना का संचालन स्वयं करने लगा और चमकती तलवारों, बन्दूक, तोप के गोलों की परवाह न करते हुए आगे ही बढ़ता गया। अपने सेनापति को इस प्रकार आगे बढ़ते देखकर सैनिक भी रुक गये और पुनः युद्ध करने लगे। अब उनका उत्साह और साहस बढ़ रहा था। नेपोलियन की निर्भीकता की शक्ति ने उन में नव-बल का संचार कर दिया, वह शत्रुओं पर टूट पड़े और विजयी हुए।

निर्भयता वह तत्व है जो हमारी सोई हुई शक्तियों को जगा देता है। इसके बिना मनुष्य जीवन संग्राम में सफल नहीं हो सकता। यह हमारे जीवन को सबल, स्वाधीन और सफल बनाता है। इसके विपरीत भय वह आसुरी तत्व है जो हमारी उन्नति के मार्ग में बाधक है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इसके दुष्परिणाम देखे जाते हैं।

भय, शारीरिक व मानसिक शक्तियों को क्षीण करता है। उससे खून सूख जाता है। मन दुखी, चिन्तित, शोकातुर और व्याकुल रहता है। कभी-कभी तो एकदम मूर्छा और हार्टफेल भी हो जाता है। स्मरण शक्ति कम हो जाती है। आँखों की रोशनी क्षीण होने लगती है। आत्म-तेज मन्द पड़ जाता है। यह एक ऐसा विष है जो मनुष्य को अशक्त बना देता है। रोग का भय मनुष्य को रोगी बना देता है। रोगी को भय का विष चढ़ जाये तो उसके रोग में वृद्धि होना निश्चित है। इतनी क्षति रोग से नहीं होती जितनी उसके परम सहायक भय से होती है। निर्भय रोगी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। सर्प काटने पर जो मनुष्य भयभीत हो जाते हैं, उनको विष बहुत जल्दी चढ़ जाता है। परन्तु भय रहित मनुष्य पर उस से बहुत कम प्रभाव पड़ता है।

भय ग्रस्त व्यक्ति अपने मानसिक सन्तुलन को खो बैठता है। उसको कुछ सूझ नहीं पड़ता क्या करे और क्या न करे। चोर चोरी करते पकड़ा जाये, किसी व्यक्ति को जंगल में बाघ का सामना करना पड़े तो यही दशा होती है। भय की अधिकता होने पर तो जबान बन्द हो जाती है, हृदय अपनी गति को रोक देता है।

भय से प्रभावित होकर मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है, वह किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाता है। चोर को यदि सिपाही का खटका हो तो सिपाही के न होते हुए भी वह अपनी कल्पना शक्ति से उसे साकार कर लेता है। भूतों का कोई अस्तित्व नहीं होता, परन्तु फिर भी जंगल में जाता हुआ मनुष्य पेड़ों पर उनकी कल्पना करता है और जब उसकी कल्पना से उनका आकार बन जाता है तो भयभीत होता है और “मैंने भूत देखा है”-बड़े विश्वास के साथ यह घोषणा करता है। इस सम्बन्ध में अध्यात्म, रामायण में अच्छा उदाहरण मिलता है। जब राम और सीता का विवाह हो रहा था और उस समय परशुराम जी, जो इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य कर चुके थे, पधारे तो महाराज दशरथ उनको देख कर बहुत घबराये और अपना मानसिक संतुलन खो बैठे। चाहिए तो यह था कि बाहर से आने वाले अतिथि का यथोचित स्वागत किया जाये, वह यह भूल गये और जोर-जोर से कहने लगे “रक्षा करो, रक्षा करो, मेरे पुत्र के प्राणों की रक्षा करो।” दंडवत् प्रणाम करके फिर बोले “मुझे पुत्र के प्राणों का दान दीजिए।” परशुराम ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। यह इसलिए हुआ कि भय मनुष्य निर्णयात्मिका बुद्धि खो देता है जिससे उसे उचित अनुचित का कोई ज्ञान नहीं रहता।

भय एक ऐसी मानसिक निर्बलता है जिससे मनुष्य शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता होते हुए भी अपने आपको अशक्त , असमर्थ और अयोग्य समझने लगता है। मनुष्य अपने सम्बन्ध में जैसी धारणा बनाता है वह वैसा ही बनता जाता है। योग्यता व समर्थता की भावना रखने वाले व्यक्ति में इन शक्तियों का विकास होता रहता है। भय से आत्मा संकुचित होती है जिसका अवश्यंभावी परिणाम कायरता है। कायरता से वह भीरु; छोटा और दब्बू बनता है। शारीरिक शक्ति से कोई व्यक्ति हृष्ट और शास्त्रीय विद्या से पुष्ट क्यों न हों, भय के कारण वह अपने को छोटा मानने लगता है और वैसे ही छोटेपन के कार्य करता है। भयभीत मनुष्य निरंतर विपत्तियों में पड़ा रहता है। राई के बराबर कष्ट भी उसको सहन नहीं होता। उससे भी वह चिल्लाने लगता है। भय छोटे दुख को बड़ा बनाने की शक्ति रखता है।

भय से आत्मा निर्बल होती है और आत्मा के निर्बल होने से ही मनुष्य नीच कर्म करने की ओर प्रवृत्त होता है। बुराइयों और पापों का कारण कमजोरी ही है। इनसे बचने का उपाय आत्मबल वृद्धि है। भय से हिंसा वृत्ति का पोषण होता है। कहते हैं कि यदि बाघ को कोई व्यक्ति जंगल में मिल जाये और वह अपना मार्ग निर्भयतापूर्वक चलता रहे तो वह बाघ मार्ग काटकर निकल जाता है और उस पर आक्रमण नहीं करता। यदि मनुष्य घबरा जाये या बाघ को यह आशंका हो जाये कि वह मनुष्य उस पर आक्रमण करेगा तो वह उसे मारने की चेष्टा करता है। सर्प इस भय से मनुष्य को काटता है कि वह उसे मार न दे। मनुष्य भी सर्प को इसीलिए मारते हैं कि वह उन्हें काट न खाए। बलवान शत्रु से भयभीत होकर ही कायर पीठ पीछे से काट करके ढेर कर देता है। दण्ड से डरकर ही झूठ बोला जाता है।

ऐसी तामसी शक्ति ,जो हमारी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों को क्षीण करती है, उससे बचना चाहिए। जिनके मन में इसका प्रवेश नहीं होता वह सर्वदा सुखी रहते हैं। स्वामी रामतीर्थ वन में निर्भयता पूर्वक घूमते थे और कहते थे मुझे सर्प और बाघ कुछ नहीं कहते, मैं निर्द्वन्द्वता पूर्वक विचरण करता हूँ। स्वामी दयानन्द किसी नदी में पैर लटकाये बैठे थे तो कछुआ उनके पैरों के पास आ गया। किसी ने कहा स्वामी जी! पैर ऊपर कर लीजिए, कछुआ काट लेगा। उन्होंने उत्तर दिया “जब मैं इसे कुछ नहीं कहता तो यही मुझे क्यों काटेगा।”

जो मनुष्य अपने को शरीर-भाव से ऊँचा उठा लेता है, आत्मबल व निर्भयता का अमृत पान करता है, वह अपने को अजर अमर मानता है। यदि रोग आ जाये तो वह यह समझता है कि शरीर के क्षीण होने से उसकी क्षति होने वाली नहीं है। चोरी हो जाये तो वह रोता नहीं, मकान में आग लग जाये तो वह चिल्लाता नहीं। व्यापार में घाटा पड़ जाये तो वह चिन्तित नहीं होता। विपत्तियों को हंसी खुशी झेलता है। आर्थिक लाभ के लिए वह झूठ, छल, कपट, बेईमानी को नहीं अपनाता। इसका कारण यह है कि कुछ चला जाये तो वह उसे अपनी हानि नहीं समझता और आ जाये तो उसे लाभ नहीं मानता। सार यह कि जो व्यक्ति आत्मा की अमरता का विचार करता रहता है वह साँसारिक भयों से मुक्त हो जाता है। डाकू उसे डरा नहीं सकते, बलवान पुरुष उसे भयभीत नहीं कर सकते। उसके शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं। इसलिए हमें भी इसी मार्ग का अनुकरण करके अपने जीवन को सुखी बनाना चाहिए। निर्भयता जीवन विकास का एक आवश्यक अंग है। इसकी भी जीवन में आवश्यकता है।


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