समाज-सेवा की श्रेष्ठता कर्म है।

August 1959

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(श्री शम्भूसिंह कौशिक)

यश्चकार न शासक कर्तुं शश्रे पादमंगुरिम चकार भद्रमस्मभ्यमात्मने तपेनं तु सः।

अथर्व(4—18—6)

अर्थात् “जिसने अपने और दूसरों के लिये सामर्थ्य होने पर भी कल्याण, सुख-सम्पादन का कोई कार्य नहीं किया उसने मानो स्वयं अपने हाथ और पैरों को काट डाला।”

आजकल के समय में लोगों में जो एक बड़ी भ्रमपूर्ण धारणा फैल गई है वह यह है कि बड़ा आदमी अथवा महान् व्यक्ति वह है जिसने अपनी किसी प्रकार की शक्ति द्वारा बड़े परिमाण में साँसारिक सफलता प्राप्त की है। लोगों का ख्याल है कि जो व्यक्ति जितना ही अधिक धनवान, वैभवशाली या शक्ति शाली है वह उतना ही माननीय है और उसका सम्मान करना, उसकी आज्ञा शिरोधार्य करना दूसरों का कर्तव्य है।

इस गलत धारणा का परिणाम यह हुआ है कि आज गुणों की पूजा होने के स्थान पर सम्पत्ति और वैभव की पूजा होने लग गई है। दूसरों के लिये त्याग और तपस्या करने वाले “ब्राह्मणों” के स्थान पर सोना-चाँदी बटोर कर तहखानों में जमा करने वाले “वैश्य” ही बड़े आदमी माने जाते हैं। इससे समाज की बड़ी हानि हो रही है। लोगों में परमार्थ के बजाय स्वार्थ की भावना जोर पकड़ रही है और इसके फलस्वरूप संकीर्णतापूर्ण, हानिकारक संघर्ष की उत्पत्ति हो रही है। धन को अनुचित महत्व प्राप्त हो जाने से प्रत्येक की इच्छा यही होती है कि मैं अधिक से अधिक धन संग्रह कर लूँ, जिससे किसी साँसारिक सुख की प्राप्ति में बाधा न पड़े और सब कोई मेरा आदर करें। पर चूँकि प्रत्येक समाज में धन एक सीमा के भीतर ही रहता है, सभी व्यक्ति लखपती और करोड़पती नहीं बन सकते, इसलिये लोग धन की प्राप्ति के अनुचित उपायों का अवलम्बन करने लगते हैं और इससे, अनैतिकता, चरित्र हीनता, दुष्टता, क्रूरता, आदि जघन्य प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है और समस्त समाज का पतन होने लगता है।

वास्तव में देखा जाय तो महान पुरुष या प्रतापशाली व्यक्ति उसे नहीं कहा जा सकता जिसके पास बहुत अधिक धन-ऐश्वर्य हो, महल और कोठियाँ हों, या जिसके पास बहुत से हाथी, घोड़े, सेना, गायें, रथ, मोटरकार आदि हों। उसे भी बड़ा आदमी नहीं कह सकते जिसके बहुत बड़ा परिवार या नौकर चाकर हों। इसी प्रकार जिसने कोई बड़ा पद प्राप्त कर लिया है, बहुत बड़ा सरकारी अधिकारी हो गया है, अथवा नामी वकील, डॉक्टर बन गया है वह भी ऊँचे दर्जे का मनुष्य नहीं माना जा सकता। क्योंकि इन सब बातों के होते हुये भी मनुष्य के कर्म अत्यन्त निकृष्ट हो सकते हैं और वह घोर पापी हो सकता है। और आजकल वास्तव में यही देखा जा रहा है कि बड़े अथवा प्रसिद्ध समझे जाने वाले व्यक्तियों में प्रायः दुर्गुण ही अधिक पाये जाते हैं, पर धन अथवा किसी अनुचित शक्ति के जोर से वे सभ्य समाज में शान के साथ अकड़ कर चलते हैं, नाम भी पैदा कर लेते हैं और कोई उनको नीच अथवा “छोटा” कहने का साहस नहीं कर सकता।

पर वेद भगवान ने उपर्युक्त मंत्र में यही बतलाया है कि जो व्यक्ति प्रतापशाली—सामर्थ्यवान होने पर भी ऐसे कार्यों में संलग्न नहीं होता जिससे कि उसका और दूसरों का हित सम्पादन हो, भलाई हो, कल्याण हो तो उसका धन, वैभव, सामर्थ्य सब व्यर्थ है। उसे तो निकम्मा अथवा बेकार ही समझना चाहिये। क्योंकि मनुष्यता का लक्षण यही है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने से भी पहले अपने समाज का ध्यान रखे। अगर हम अपने समाज के उत्थान का; उसकी प्रगति का ख्याल रखेंगे और उसकी भलाई के लिये तन, मन, धन से प्रयत्नशील रहेंगे तो सबकी भलाई के साथ हमारी भलाई तो अपने आप हो ही जायगी और साथ ही हमको समाज सेवा का सुयश-पुण्य भी प्राप्त होगा। इसलिये जो व्यक्ति साधन, अवसर पाकर भी समाज की भलाई के लिये सच्चे हृदय से उद्योग नहीं करता उसे हाथ पैर कटा हुआ अर्थात् भूमि के लिये भाररूप ही समझना चाहिये।

समाज-सेवा या दूसरों के उपकार के लिये यह कोई आवश्यक बात नहीं कि मनुष्य धन द्वारा ही दूसरों की सहायता करे। धन तो बाहरी साधन है और उसका उपयोग समयानुसार बदला करता है। ऐसे भी अवसर आते हैं जब कि करोड़ों रुपया पास में रखा रहने पर भी मनुष्य एक रोटी अथवा एक गिलास पानी के लिये तरसता रह जाता है। इसलिए सच्ची सेवा और सहायता के उपकरण तो तन और मन ही को मानना चाहिये। ये ही वास्तव में हमारी सम्पत्ति हैं और इनके द्वारा सेवा करने से किसी को कोई कभी नहीं रोक सकता। इसके लिये अगर आवश्यक है तो यही कि हमारे हृदय में दूसरों की सहायता-सेवा करने की सच्ची भावना हो। आज तक जितने बड़े-बड़े महापुरुष हुये हैं जिनका नाम इतिहास में लिखा गया है और अब भी समय समय पर हम गौरव के साथ जिनका स्मरण करते रहते हैं, जिनकी जयन्तियाँ मनाते रहते हैं, इनमें शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने धन द्वारा प्रतिष्ठा अथवा श्रद्धा प्राप्त की हो। महापुरुषों का आम लक्षण यही है कि वे दूसरों के उपकारार्थ के लिए अपने तन मन और प्राणों तक को उत्सर्ग कर देते हैं। अनेक महान पुरुष तो ऐसे भी हो गये हैं जो जनता के सामने भी बहुत कम आये, पर जिन्होंने गुप्त रूप से ही समाज और देश की सेवा में निस्वार्थ भाव से प्राण अर्पण कर दिये। क्या ऐसे महान त्यागियों की सेवा और महानता को हम कभी भुला सकते हैं?

जो व्यक्ति इस ख्याल से निकम्मे बैठे रहते हैं कि हमारे पास जो अपने जीवन-निर्वाह का साधन तो भी नहीं है हम दूसरों का उपकार, सहायता कहाँ से करें, वे वास्तव में बड़े भ्रम में पड़े हैं अथवा अपने निकम्मेपन को इस बहाने से छुपाना चाहते हैं। सच पूछा जाय तो जनता की सेवा और परोपकार का मुख्य आधार हमारे शुद्ध हार्दिक संकल्प पर है। अगर हम अपनी अन्तरात्मा से समाज-सेवा या परोपकार के किसी कार्य का दृढ़ निश्चय कर लें और उसके लिये प्राण तक उत्सर्ग करने को तैयार हो जायें तो संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो पूरा करके न दिखाया जा सके। बहुत पहले जमाने की बात तो छोड़ दीजिये वर्तमान समय में ही स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी ने जो महान् कार्य करके दिखलाये हैं, उनमें से किसके पास धन का खजाना था? ये सब अपने आत्मबल को ही लेकर खड़े हुये थे और उसी के द्वारा उन्होंने काया-पलट करके दिखा दी।

इसलिये इस मंत्र में जो आदेश और उपदेश दिया गया है वह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण और समाज के लिये कल्याणकारी है। इसमें स्पष्ट रूप से यह बतला दिया गया है कि समाज में उसी को आदर सम्मान मिलना चाहिये जो उद्योग, परिश्रम और उत्साहपूर्वक अपना और दूसरों का अर्थात् समस्त समाज का हित-साधन करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति धन, वैभव, शारीरिक शक्ति , विद्या, बुद्धि होने पर भी निकम्मा या आलसी होकर पड़े रहने में या भोग-विलास में ही सुख मानता है, वह कदापि प्रतिष्ठा के योग्य नहीं है वरन् वह समाज के लिये एक हाथ पैर कटे हुये व्यक्ति के सामने भार स्वरूप है!


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