मानव-देह का सदुपयोग

August 1959

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(पं. रमाशंकर विद्यार्थी)

ऊर्गस्याँगिर स्पूर्णम्रदा ऊर्ज मयि देहि। सोमस्य नीविरासि विष्णोः शर्मासि शर्म यजमानस्येन्द्रस्य योनि रसि सुसस्याः कृषीस्कृधि। उच्छ्रयस्व वनस्पत ऊर्ध्वो मा पाह्यं हस आस्य यज्ञस्योदृचः॥ (य.4। 10)

अर्थात् “हे आँगरासि (मानव देह) तू यद्यपि छुईमुई के समान क्षणभंगुर है, पर जब तक तू स्थित है तब तक मुझ में सत्व और बल-पराक्रम धारण करती रह। तू ऐश्वर्य की मीवि (कमर पट्टा) है। तू विष्णु देव का मंदिर है, तू यजमान की यज्ञशाला है, तू इन्द्र का सदन है इसमें सुधान्यों की खेती कर, तू जीवन वृक्ष है— मेरे जीवन यज्ञ की समाधि तक निरन्तर ऊपर की तरफ उठता रह और मुझे पाप-पतन से बचाता रह।”

मानव-देह को सभी ने क्षणभंगुर- नश्वर माना है, न मालूम कब पलक मारते इसका अंत हो जाय। पर इसी के द्वारा हम हर तरह के सुकर्म करके अपने जीवन को पवित्र, उन्नत और कल्याणप्रद बना सकते हैं। जो लोग इस देह को मल, मूत्र, रक्त , माँस, हड्डी आदि अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ कह कर नरक की खान बतलाते हैं, वे या तो महामूढ़ हैं अथवा हद दर्जे के निकम्मे और हीन प्रकृति वाले हैं। वेद भगवान स्पष्ट स्वर में कहते हैं कि यह तो परमात्मा का मन्दिर है। इसके द्वारा साधना, उपासना करके मनुष्य बड़ी से बड़ी उन्नति को प्राप्त कर सकता है—परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। यह शरीर ही इन्द्रियों के स्वामी (आत्मा) का निवास स्थान है और इसमें निवास करता हुआ वह ऐसे सुकर्म रूपी उत्तम अन्नों की खेती कर सकता है जिससे यह जीवन सुख शाँति से भरपूर हो जाय। यदि मनुष्य इस वेदोपदेश का पालन करेगा। मानव देह को झूठे भोगों में लिप्त न करके, उसके द्वारा उत्तम कार्य करने का ध्यान रखेगा तो अवश्य ही उसका जीवन उच्च स्थिति को प्राप्त होता जायगा और वह साँसारिक पाप-ताप से पृथक रह कर लोक और परलोक में सुख सुयश का भागी बन सकेगा।

हम प्रायः देखा करते हैं कि अनेक मनुष्य अपनी त्रुटियों की ओर ध्यान न देकर अपने दुःख,कष्ट, अभाव आदि का कारण परमात्मा अथवा अन्य सांसारिक शक्तियों को समझा करते हैं और उनका जन्म रोते, झींकते तथा संसार की शिकायत करते ही बीतता है। वे कहा करते हैं कि क्या करें, हमें भगवान ने संसार में अभागा ही उत्पन्न किया है, न तो शरीर हमारा साथ देता है और न भाग्य हमारे अनुकूल है। हमको तो हर कार्य में हानि ही उठानी पड़ती है, और जिसे देखो हमारे साथ शत्रुता ही करता है। हमने तो अपनी तरफ से किसी का कुछ बिगाड़ नहीं किया, जहाँ तक हमारी शक्ति थी सबकी सहायता—सेवा ही की, पर इसका नतीजा हमको सदा उलटा ही मिला। अब हमने खूब समझ लिया कि संसार में सब स्वार्थी हैं अपना काम निकल जाने पर कोई किसी को नहीं पूछता!!

पर यदि आप ऐसा प्रलाप करने वाले लोगों के जीवन और कार्यों पर दृष्टि डालेंगे तो स्पष्ट मालूम पड़ेगा कि वे जो कुछ भोग रहे हैं उसमें अधिकाँश दोष उन्हीं का है। वे उद्योग, परिश्रम, दृढ़ता से दूर रहते हैं और चाहते हैं कि उनका जीवन बिना किसी प्रकार का संकट, कठिनाई उठाये सुख पूर्वक व्यतीत हो जाय। वे दूसरों की सहायता और सेवा क्या करेंगे, स्वयं अपनी भलाई का कार्य कर सकने में भी असमर्थ रहते हैं। भगवान ने मनुष्य को सब प्राणियों से उत्तम, विभिन्न प्रकार के कार्य कर सकने के उपयुक्त शरीर देकर आज्ञा दी कि “ अपने पसीने की रोटी खाओ”— पर ऐसे निकम्मे लोग भगवान के आदेश की भी अवहेलना करते हैं और अपने शरीर का दुरुपयोग करने के पश्चात् यह कहते हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं कि जब अन्य मनुष्य दस-दस, बीस-बीस प्राणियों का पालन करते हैं, बड़े-बड़े समाजों, समुदायों, राज्यों का संचालन और रक्षा करते हैं, बड़ी-बड़ी भौतिक और दैवी आपत्तियों से जनता को सुरक्षित रख कर सफलता की ओर अग्रसर करते हैं, तो ये “अभाग्य” का रोना रोने वाले व्यक्ति स्वयं भी भली प्रकार जीवन-निर्वाह न कर सकें। हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि जो व्यक्ति उपर्युक्त वेदमंत्र के आदेशानुसार मानव-देह के महत्त्व और उद्देश्य को समझेगा और उसका उचित रीति से उपयोग करेगा वह कभी असफल, दीन, दुखी नहीं रह सकता। इस संसार रूपी कार्य क्षेत्र में जो कमर कस कर उतरेगा और सच्चे मन से अपने कर्तव्य का पालन करेगा उसे किसी उचित बात का अभाव रह ही नहीं सकता। वह अपने उद्योग द्वारा इस लोक की सुख सुविधाओं को ही प्राप्त नहीं करेगा वरन् परलोक का भी सुधार कर लेगा। भगवान ने अधिक नहीं तो इतनी शक्ति प्रत्येक प्राणी को दी है कि वह संसार में स्वावलम्बन पूर्वक जीवन निर्वाह कर सके। यदि कोई इसमें असफल रहता है तो हमको निश्चित रूप से यह समझ लेना चाहिये कि वह मानव देह का उचित उपयोग नहीं कर रहा है, और न अपने कर्तव्य का पालन करने की ओर उसका लक्ष्य है। वह संसार में शारीरिक और मानसिक काम से बच कर दूसरों की मेहनत के सहारे जीवन व्यतीत करना चाहता है। जब इसमें बाधा पड़ती है तो वह संसार भर को कोसता है और अपना समस्त दोष दूसरों के सर पर मढ़ने की चेष्टा करता है।

यह मानव-जीवन एक वृक्ष की तरह है, जिसकी यदि उचित रीति से देख-भाल की जाय और आवश्यक खाद-पानी देकर इसको पुष्ट बनाया जाय तो यह यथा समय सब के लिये उपयोगी छाया और फलों का साधन बन सकता है। किसी कवि ने फलदार वृक्षों की उदारता का वर्णन करते हुए लिखा है कि “धन्य है आम का वृक्ष कि लोग तो उसे पत्थरों से मारते हैं (अथवा उस पर पत्थर फेंकते हैं) और वह बदले में उनको मीठे फल देता है।” पर यदि प्रत्येक मनुष्य इतना उदार न बन सके तो उसे इतनी उन्नति तो करनी ही चाहिये कि समाज के नियमों का पालन करते हुये कम से कम अपने परिवार के जीवन को सुखी बना ले। जब वह ऐसा करेगा तभी यह समझा जायगा कि परमात्मा और प्रकृति ने उसे जो यह अद्भुत मानव-देह प्रदान की उसका उसने सदुपयोग किया और अपने पुरुषार्थ द्वारा भगवान के आदेश का पालन कर दिखाया।


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