(श्री भगवान सहाय वाशिष्ठ)
भारतवर्ष में मंत्र-तंत्र का नाम सर्वाधिक सुनने में आता है। कहने के लिये मुसलमान भी किसी तरह का “अमल” करते हैं और ईसाई “प्रार्थना” आदि से काम लेते हैं पर उनमें ऐसा करने वालों की संख्या बहुत ही कम मिलती है। इन धर्मों के अधिकाँश लोग न तो इन बातों को जानते हैं और न इन पर विश्वास करते हैं। पर हिन्दू-धर्म में एक एक बच्चा भी ‘मंत्र’ के विषय में कुछ न कुछ सुन चुका होता है और उस पर विश्वास रखता है। छोटी अवस्था में ही उसकी यह धारणा हो जाती है कि मंत्र कोई ऐसी अद्भुत शक्ति है जिससे सब तरह के कठिन कार्य और बड़े-बड़े मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यहाँ पर आठ, दस वर्ष की आयु में ही अनेक बालक किसी मंत्र का जप करने लग जाते हैं। उनके माँ-बाप या गुरु स्वयं उनको इसकी शिक्षा देते हैं और समझते हैं कि इस प्रकार के जप से हर तरह से कल्याण होगा और सभी बातों में सफलता मिलेगी।
इसमें तो सन्देह नहीं कि मंत्र-शास्त्र हमारे यहाँ के धार्मिक साहित्य का अति प्राचीन अंग है। वेदों की रचाएँ भी मंत्र ही कहे जाते हैं और अथर्ववेद में तो स्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न कार्यों को सिद्ध करने वाले मंत्रों का उल्लेख है। अन्य लोगों में मंत्रों के आदि प्रचारक सदाशिव माने गये हैं। इस सम्बन्ध में एक विद्वान ने शास्त्र के मत का उल्लेख करते हुये लिखा है—
“भारत की प्राचीन संस्कृति का इतिहास जानने वालों को यह भली प्रकार ज्ञात है कि इस देश के प्राचीनतम महर्षियों ने अपने तत्व दर्शन के प्रयास में सर्वप्रथम ब्रह्म जी से वेद विद्या उपलब्ध की थी, जिससे वे इहलोकतत्व और परलोकतत्व दोनों ही में सामञ्जस्य स्थापित करने में समर्थ हुये थे। उसी प्रकार तत्कालीन ऋषियों के एक अन्य समूह ने विष्णुदेव से भक्ति विद्या को प्राप्त किया था और उसके द्वारा उन्होंने आत्म तत्व और परम तत्व दोनों में सरस ऐक्य स्थापित किया था। एक तीसरे समूह ने सदाशिव को प्रसन्न करके मंत्र विद्या की प्राप्ति की थी, जिसके द्वारा वे लौकिक जीवन से लेकर पारलौकिक जीवन के परे पहुँच कर मूलतत्व का साक्षात्कार करने में समर्थ हुये थे। ये तीनों ही विद्याएँ भारतीय संस्कृति की आधारशिला के रूप में आज भी विद्यमान हैं, और भारतीय अपने संस्कारों के अनुसार यथा मात्रा में उन्हें प्राप्त किये हुये हैं। इन तीनों विद्याओं में मन्त्रविद्या सदैव रहस्य की बात रही है और इस समय भी वह पहले की भाँति रहस्यपूर्ण है। कलियुग के पहले, जैसा कि प्राचीन पुराणादि ग्रंथों से विदित होता है, इस विद्या की उपलब्धि विशेष अधिकारी व्यक्ति ही कर पाते थे, परन्तु कलियुग में जब वेद-विद्या का प्रचार घट चला और बहुत थोड़े व्यक्तियों तक ही सीमित रह गया तब धर्म में भारी ग्लानि उत्पन्न हुई। ऐसी स्थिति आ जाने पर परम दयामयी जगज्जननी पार्वती जी को क्षोभ हुआ और उन्होंने शिवजी से आग्रह किया कि लोक कल्याण के निमित्त मंत्र-विद्या का उपदेश सर्व साधारण को किया जाय। तब युग धर्म के अनुसार वह विद्या तत्कालीन ऋषियों द्वारा सर्व साधारण में प्रकट की गई।”
निःसन्देह वर्तमानकाल में मन्त्र-जप आध्यात्मिक उन्नति तथा श्रेष्ठ मनोकामनाओं की सिद्धि का सब से सरल और अचूक उपाय है। उसको विधि से करना छोड़ दिया गया है, इसी से विशेष फल देखने में नहीं आता और लोगों की श्रद्धा भी वैसे-वैसे ही कम होती जाती है। इस स्थिति में सुधार होने का मार्ग यह है कि प्रथम तो जिस मंत्र का जप करना हो उसे नियमानुसार दीक्षा लेकर गुरु से ग्रहण किया जाय और तब उन्हीं की बतलाई विधि से उसका अनुष्ठान किया जाय। बीच-बीच में भी गुरु से इस सम्बन्ध में अपना अनुभव बतलाते हुए परामर्श ले लिया जाय। फिर इसको जितना मन लगाकर परिश्रमपूर्वक किया जायगा उतनी ही शीघ्र और अव्यर्थ सिद्धि प्राप्त होगी। इसलिये जो व्यक्ति वास्तव में मन्त्र-जप द्वारा लाभ उठाना चाहते हैं उन्हें इस सम्बन्ध में सब प्रकार के नियमों का पालन करना चाहिये। सब से पहला नियम तो यही है कि मन्त्रानुष्ठान स्वयं किया जाय। किसी दूसरे से कराया अनुष्ठान कदापि उतना अधिक फल नहीं दे सकता। फिर जप के लिये शुद्ध स्थान ढूँढ़े जैसे कोई तीर्थ या सिद्धपीठ आदि। भोजन की पवित्रता का ध्यान रखना परमावश्यक है, क्योंकि शरीर और मन का निर्माण भोजन के तत्वों द्वारा ही होता है और यदि उसमें किसी प्रकार का दोष हुआ तो जप में बाधा पड़ जाना अवश्यम्भावी है। इसके सिवाय और भी बहुत सी छोटी-बड़ी बातें हैं जिनका वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार किया है—
“स्त्री-संसर्ग, उनकी चर्चा तथा जहाँ वे रहती हों वह स्थान छोड़ देना चाहिये। स्त्री साधिकाओं के लिये पुरुषों के सम्बन्ध में भी यह नियम समझ लेना चाहिए। क्षौर, उबटन, बिना भोग लगाये भोजन और बिना संकल्प के कर्म नहीं करना चाहिये। केवल आँवले से अथवा पंचगव्य से स्नान करना चाहिये। स्नान, आचमन, भोजन आदि मन्त्रोच्चारण के साथ ही हों। यथाशक्ति तीनों समय, या दो समय, या एक समय स्नान, संध्या और इष्टदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिये। जप के समय माला पूरी हुये बिना बातचीत नहीं करनी चाहिये।
“यदि जप करते समय एक शब्द का उच्चारण हो जाय तो एक बार प्रणव का उच्चारण कर लेना चाहिये। यदि कहीं बहुत बात कर ली जाय तो आचमन तथा अंगन्यास करके पुनः माला प्रारम्भ करना चाहिये। छींक और अस्पर्श्य स्थानों का स्पर्श हो जाने पर भी यही विधान है। जप करते समय यदि शौच, लघुशंका आदि का वेग हो तो उसका निरोध नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसी अवस्था में इष्ट और मंत्र का चिन्तन तो होता नहीं, मल-मूत्र का चिन्तन होने लगता है। मलिन वस्त्र, केश और मुख से जप करना शास्त्र विरुद्ध है। जप करते समय इतने कर्म निषिद्ध हैं—आलस्य, जँभाई, नींद, छींक, थूकना, डरना, अपवित्र अंगों का स्पर्श और क्रोध। जप में बहुत जल्दबाजी न करनी चाहिये, न बहुत विलम्ब। गाकर जपना, सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ना, अर्थ न जानना, बीच-बीच में भूल जाना—ये सब मन्त्रसिद्धि के प्रतिबन्धक हैं। मन्त्र सिद्धि के लिए बारह नियम हैं- (1) भूमि शयन, (2) ब्रह्मचर्य, (3) मौन, (4) गुरु सेवन, (5) त्रिकाल स्नान, (6) पाप कर्म परित्याग, (7) नित्य पूजा, (8) नित्य दान, (9) देवता की स्तुति, (10) नैमित्तिक पूजा, (11) इष्टदेव और गुरु में विश्वास, (12) जप निष्ठा। जो इन नियमों का पालन करता है उसको मंत्र सिद्ध ही समझना चाहिये। किसी भी अनुष्ठान के समय सौगन्ध खाने से सब फल नष्ट हो जाता है। किसी का गाना, बजाना, नाचना, न सुनना चाहिये और न देखना। जूता पहने हुए अथवा पैर फैलाकर जप करना निषिद्ध है। इस प्रकार जप के बहुत से नियम हैं, जिन्हें समझ कर यथाशक्ति उनका पालन करना चाहिये। ये सब नियम नियमित जप के (अनुष्ठान) लिये हैं। मानस-जप के लिये कोई नियम नहीं। उसे आदमी सदैव कर सकता है। शास्त्र में कहा गया है—
अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छस्तिष्ठत् स्वपन्नपि मन्त्रैक शरणो विद्वान् मनसैव सदाभ्यसेत्। न दोषो मानसो जाप्ये सर्वदेशेऽपि सर्वदा॥
अर्थात् “मन्त्र के रहस्य को जानने वाला जो साधक एक मात्र मन्त्र की ही शरण हो गया है, वह चाहे पवित्र हो या अपवित्र सब समय चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते मन्त्र का अभ्यास कर सकता है। मानस जप में किसी भी समय और स्थान को दोषयुक्त नहीं समझा जाता।”
इस प्रकार शास्त्रों में मंत्र-जप की बड़ी महिमा बतलाई गई है और धार्मिक व्यक्तियों के मतानुसार मंत्रों की शक्ति से अनेक असम्भव कार्यों का संपन्न होना भी संभव है। आधिदैविक जगत के रहस्य को जानने वाले कहते हैं कि स्थूल जगत की प्रत्येक वस्तु का एक-एक अधिष्ठाता देवता होता है जिनको मन्त्र द्वारा जागृत कर लेने पर उस विषय में आश्चर्यजनक परिणाम दिखलाई पड़ सकते हैं। इनकी सहायता से परमार्थ के साथ ही स्वार्थ की भी पूर्ति हो सकती है। सब प्रकार की सम्पत्ति और वैभव, सुसन्तान और अन्य प्रकार के साँसारिक सुख बहुत बड़ी मात्रा में इन देवताओं की कृपा से मिल सकते हैं। इन्हीं बातों को साधारण लोग सिद्धि के नाम से पुकारते हैं। इस समय संसार के नैतिक और सामाजिक वातावरण के बदल जाने तथा आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से यद्यपि ये बातें लोगों को कल्पना मात्र जान पड़ती हैं, पर अब भी समय-समय पर मन्त्र-शक्ति के चमत्कार दिखलाई पड़ा करते हैं। मन्त्र-जप के द्वारा व्यक्तिगत कल्याण की बात तो हजारों लोग स्वयं कहते हैं और उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त तथा बुद्धिमान समझे जाने वाले लोगों में से भी बहु-संख्यक व्यक्ति मन्त्र-शक्ति की सत्यता को स्वीकार करते हैं। यह सत्य है कि केवल किसी मन्त्र के उच्चारण मात्र से अथवा उसका उल्टा-सीधा जप कर लेने से कोई सुपरिणाम दिखलाई नहीं पड़ सकता और ऐसे ही पढ़कर या सुनकर मन्त्र-शक्ति की परीक्षा लेने वाले अर्द्ध-दग्ध व्यक्ति मन्त्रों की बदनामी के कारण बनते हैं। मन्त्रानुष्ठान में सब से पहली बात अपना सत्य-संकल्प है। जो आन्तरिक इच्छा से विधिपूर्वक किसी मंत्र का अनुष्ठान करेगा और श्रद्धापूर्वक उसमें संलग्न रहेगा वह अवश्य अपनी योग्यतानुसार सुपरिणाम प्राप्त कर सकेगा इसमें सन्देह नहीं।