जन्माष्टमी का उत्सव आदर्शमय हो।

August 1959

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मनुष्य के जैसे विचार होते हैं, वैसे ही उसके कार्य होते हैं। यह उसकी स्वाभाविक वृति है। यदि ऐसा नहीं होता है तो उसके विचारों और कार्यों में असमानता समझनी चाहिए। जीवन को उत्तम बनाने वाले विचार हमें अनेकों धर्म ग्रन्थों और वेद शास्त्रों से उपलब्ध हो जाते हैं। यदि इन सद्विचारों का ज्ञान भण्डार हमारे पास पर्याप्त मात्रा में हो और हम उनको व्यवहार रूप में न ला सकें तो हमारे उस स्वाध्याय का कोई विशेष लाभ न होगा। उन्नति के मार्ग पर तभी हम शीघ्रता से अग्रसर हो सकते हैं जब हम बुरे काम को बुरा समझ कर उसे छोड़ दें और अच्छे कार्य को अच्छा समझ कर उसे ग्रहण करें।

पुराणों की कथाओं का साधारण स्तर के मनुष्यों पर इसलिए अधिक प्रभाव पड़ता है कि उसमें विचारों के साथ-साथ क्रिया भी दिखाई जाती है कि अमुक व्यक्ति ने इस प्रकार का व्यवहार किया। महापुरुषों की आदर्श जीवन घटनाएं इस लिए हमारे मन पर स्थाई छाप छोड़ जाती हैं कि उनमें क्रिया का विशेष अंश होता है। उनको पढ़ने या सुनने से वह चित्र हमारी आँखों के सामने तैरने लगता है और हमें यह भाव होता है कि जिस कार्य को एक मनुष्य ने किया है। उसे दूसरा मनुष्य भी अवश्य कर सकता है। महापुरुषों की जयन्तियाँ इस लिए मनाई जाती हैं कि हम उनके जीवन का मंथन करके आदर्श विचारों और क्रियाओं को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें। जिस प्रकार से अपने इष्ट देव के साकार रूप का ध्यान करना सरल होता है। उसी प्रकार से सद्विचारों के साकार रूप घटनाओं को पढ़ सुन मनन करके उन्हें आचरण में लाना सरल होता है।

भगवान श्री कृष्ण, जिनको हम परमात्मा का अवतार मानते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में ऐसे महान् कार्य किये हैं कि उनका अनुकरण करके हम भी क्षुद्रता से महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं। किन्तु धर्म में उनकी इतनी लोक प्रियता है कि लाखों व्यक्ति उनको अपना आदर्श मानकर पूजते हैं। सच्चे अर्थों में उनकी पूजा यही है कि हम भी उनके व्यवहार रूप में बताए हुए मार्ग पर चलें।

जिस समय भगवान कृष्ण ने अवतार लिया था उस समय कंस अपने राज्य में जनता पर बहुत अत्याचार कर रहा था, अन्याय और अधर्म करता था। सन्त, महात्मा और ब्राह्मणों को बहुत कष्ट देता था, यज्ञों को विध्वंस करता था। जनता उससे बहुत दुःखी थी। वह समस्त ग्रामों से दूध और दही मंगवा लिया करता था ताकि लोगों को दूध, दही और घी आदि पौष्टिक पदार्थ न मिले तो उनके शरीर शिथिल ही रहेंगे और उसका मुकाबला न कर पायेंगे। उस समय लोग गौओं के महत्ता को भूल गये थे। भगवान कृष्ण ने गौओं की महत्व को बढ़ाने के लिए उनको स्वयं चराया और उनके दूध दही की ओर प्रेम प्रकट किया। जो ग्वालिनें दूध और दही कंस को देने के लिए जाया करती थीं। उनको वह वहाँ जाने नहीं देते थे और उनका दूध, दही लूट लिया करते थे और कहते थे कि कंस को कहना कि कृष्ण ने उन्हें मना किया था। कंस इतना जालिम था कि बड़े-बड़े राजा भी उसका मुकाबला करने का साहस न कर सकते थे, परन्तु भगवान कृष्ण ने उसके विरोध में जन क्रान्ति खड़ी कर दी और जनता को उसके खिलाफ भड़काया। जनता तो चाहती ही थी कि कोई जन नायक आगे बढ़े और वह उसके पीछे चलकर कंस के राज्य को उलट दें। आतताई तो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ा मारता है, उसके स्वयं के दुष्कर्म उसे खा जाते हैं। सार यह कि कंस के साथ भी वैसा हुआ जैसा कि संसार में ऐसे व्यक्तियों के साथ होता आया है।

भगवान् कृष्ण के जीवन में “गोवर्धन” के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण घटना आती है। उन्होंने जनता को समझाया था कि गौ का गोबर एक प्रकार का धन है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इसके द्वारा खेती में उन्नति होती है। खेती में उन्नति धन की उन्नति ही मानी जायगी। पुराणों की एक कथा में बताया गया है कि लक्ष्मी का निवास गोबर है।

जब कंस मारा गया और उसके पिता उग्रसेन को जेल से निकाला गया तो महाराज उग्रसेन (कृष्ण के नाना) ने यह चाहा कि वह अब वृद्ध हो चुके हैं और कृष्ण को ही वह राजगद्दी सौंपना चाहते हैं परन्तु उन्होंने स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया कि यदि मैं राजा बन गया तो मुझ से समाज कल्याण का कार्य छूट जायगा। उन्होंने इतने बड़े राज्य को समाज हित के लिए ठुकरा दिया।

माता रुक्मणी ने एक बार पुत्र की इच्छा प्रकट की थी तो उन्होंने उत्तर दिया “अभी हम सन्तान के योग्य नहीं हैं। हमें 12 वर्ष तक बद्रिका आश्रम में बेर खा कर तपश्चर्या करनी चाहिए तब हम उत्तम सन्तान उत्पन्न करने के योग्य होंगे।” तब उन दोनों ने 12 वर्ष तक गायत्री माता की आराधना की थी और उन जैसे गुणों का पुत्र प्राप्त हुआ था। भागवत में उनकी दिनचर्या के सम्बन्ध में आता है कि वह नित्य प्रति गायत्री जाप व हवन किया करते थे। हमें भी उनका अनुकरण करना चाहिए।

महान आत्माओं की महानता इसी में होती है कि वह मान और अपमान एक समान समझते हैं और समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करते हुए भी छोटे से छोटे काम को करने में संकोच नहीं करते। जब उन्होंने अनुभव किया कि जब तक अर्जुन का चतुर सारथी न हो तब तक उसका विजय होना कठिन है और बड़े योद्धाओं में से कोई इस छोटे पद को ग्रहण करने के लिए तैयार न होगा तो उन्होंने स्वयं इस कार्य को करना स्वीकार कर लिया। महाभारत के बाद जब राजसूय यज्ञ हुआ तो उसमें सभी को उच्च पद देकर स्वयं ब्राह्मणों के पैर धोने और उनकी झूठी पत्तलें उठाने का कार्य अपने जिम्मे लिया। निरहंकारिता का इतिहास में ऐसा उज्ज्वल उदाहरण मिलना कठिन है। सुदामा जी जब उनके पास आये थे तो उन्होंने इस नम्रता का व्यवहार किया था कि वह देखकर दंग रह गये। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगा तेली। कहाँ राजा कृष्ण और कहाँ रंक ब्राह्मण सुदामा। परन्तु फिर भी इस बात का ध्यान न रख कर उन्होंने अपने समान आसन दिया। उनका चरणामृत पिया। उनके कच्चे चावल प्रेम से खाये और गुप्त रूप में धन से सहायता की। इस प्रकार से उन्होंने संसार के सामने एक आदर्श मित्र का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनका जीवन यज्ञमय था। वह निरन्तर परोपकार में लगे रहते थे और दूसरों को भी इसी मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा देते रहते थे। महाभारत के पश्चात् उन्होंने पाण्डवों से एक बड़ा विश्व कल्याणार्थ यज्ञ कराया था ताकि महाभारत में जो लाखों मनुष्यों की मार काट हुई थी उससे आकाश में व्याप्त आसुरी तत्वों का निवारण हो जाय। कौरव अनीति की राह पर चल रहे थे, ऐसे पापी व अत्याचारियों का नाश करने के लिए पाण्डवों को युद्ध करने की प्रेरणा दी और उनके विजय प्राप्त करने के पश्चात् अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा। जरासन्ध ने अनेकों राजाओं को जेल में बन्द करके उनके राज्यों को अपने काबू में कर लिया था। भगवान कृष्ण ने जरासन्ध को भीम से मरवा कर उन राजाओं के राज्य वापिस दिलवा दिये थे।

जब वह पाण्डवों के दूत बनकर दोनों पक्षों में सन्धि कराने के लिए हस्तिनापुर गये थे और जब उन्होंने दुर्योधन का रुख बदला हुआ देखा तो वह महलों में न रह कर विदुर की कुटिया में चले गये। दुर्योधन के अन्याय से कमाये हुए धन के द्वारा बनाए गये पकवानों को छोड़कर उन्होंने विदुर के रूखे सूखे भोजन को स्वीकार किया।

भगवान कृष्ण का गीता का संदेश संसार में अद्वितीय है। इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्तों पर चलने वाला मनुष्य कभी दुःखी नहीं रह सकता। जिस अनासक्त कर्मयोग का—फल की इच्छा न करके अपने कर्तव्य कर्मों को करते रहना और साँसारिक कर्मों को करते हुए भी उनमें लिप्त न रहने का उन्होंने गीता में उपदेश दिया है उसे अपना कर हम सब प्रकार की सुख शान्ति को प्राप्त करके पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकते हैं। जो विचार उन्होंने गीता के द्वारा संसार में फैलाये हैं। उनको अपने जीवन में करके दिखाया था।

गीता न केवल महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ है बल्कि उच्च कोटि का समाज विज्ञान शास्त्र है। समाज को सुखी बनाने के लिए आज साम्यवाद अथवा समाजवाद की ध्वनि सुनाई दे रही है। परन्तु यह दोनों ही भौतिकवाद के आधार पर केवल भोग पदार्थों के समान बंटवारे पर जोर देते हैं परन्तु गीता का ‘समत्व योग‘ सबकी मौलिक एकता के आध्यात्मिक सिद्धान्त पर आधारित है। स्थान-स्थान पर गीता में “समः सर्वेषु भूतेषु” और पंडिताः समदर्शनः के आदर्श विचार उपस्थित किये गये हैं। भौतिकवादी समाजवाद अस्थिर है परन्तु आध्यात्मिक समाजवाद शाश्वत है।

जन्म अष्टमी का उत्सव, जो भगवान श्री कृष्ण के जन्मदिवस की स्मृति में इस वर्ष भाद्रपद वदी अष्टमी बुधवार 26 अगस्त को मनाया जा रहा है। गायत्री परिवार शाखाओं को शान से मनाना चाहिएं। हवन तो सभी स्थानों पर होने ही चाहिएं। इसके साथ-साथ सत्संग और सम्मेलन भी करने चाहिएं जिसमें अपने क्षेत्र के अपने अनुकूल विचारों के विद्वानों को निमंत्रित करके उनके प्रवचन करने चाहिए जिसमें भगवान कृष्ण के आदर्श व्यवहार का प्रतिपादन होता हो। जहाँ प्रवचन कर्ताओं का प्रबन्ध न हो सके वहाँ भजन कीर्तन आदि अन्य कार्यक्रम के पश्चात् इस लेख को ही सुना देना चाहिए।

यदि हम अपने त्यौहारों को इस प्रकार से आदर्श रूप में मनाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब कि हमारा समाज उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच कर पहले जैसा गौरव प्राप्त कर सकेगा।


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