‘ओउम्’ शब्द की प्रचण्ड शक्ति

August 1959

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( प्रो. मोहनलाल वर्मा बी.ए. एल-एल. बी)

हिन्दू मनोवैज्ञानिकों और तत्ववेत्ताओं को स्वर विज्ञान का बड़ा अनुभव और अध्ययन था। उन्होंने एक-एक स्वर की बड़ी खोजबीन की थी। इन अनुसन्धानों का नवरीत वेद के आदि का “ओम्” शब्द है। इस शब्द को बड़े आध्यात्मिक अर्थ गाँभीर्य से बनाया गया है। प्रत्येक हिन्दू किसी न किसी रूप में इस शब्द को दैनिक पूजा आराधना या दैनिक जीवन में प्रयोग में लाता है। कुछ साधक इसके पूर्व ‘हरिः’ शब्द का प्रयोग करते हैं और “हरिः ओम्” उच्चारण किया करते हैं।

“ओम्” शक्ति, सामर्थ्य और ईश्वरीय संपदाओं का रूप है। एक बार असुरों ने इन्द्रपुरी को घेर लिया। इन्द्र को भय हुआ कि यों तो मेरी इन्द्रपुरी ही छिन जायगी। किसी बाह्य दैवी शक्ति से सहायता लेनी चाहिए। अपनी सीमित शक्तियों से तो इन्द्रपुरी की रक्षा होती नहीं दीखती। आसुरी कैसे मारे जाएं? उन्हें “ओम्” मिला!

इन्द्र ने कहा “हे शक्ति रूप! हम आपको प्रमुख बनाकर असुरों को जीतना चाहते हैं। आप ईश्वर की शक्ति और सामर्थ्य के रूप हैं। आपकी सहायता से हम देवताओं में नई शक्ति , नई स्फूर्ति आयेगी। आपके साथ रहने से हम में साहस का प्रादुर्भाव होगा। इस संकट के समय में हमारे नेत्र आप पर लगे हैं। हे देवशक्ति सम्पन्न महात्मन्! हमारी रक्षा कीजिए।”

“ओम्” सोचते रहे। यह निश्चय था कि उनकी अध्यक्षता में देव असुरों को जीत सकते थे। वे सब ऋद्धि सिद्धियों के पुँज थे। देवता उनसे अनुपम विनय कर रहे थे।

ओम् एक शर्त पर सहायता देने को तैयार हो गए।

“ओम्” ने कहा—”मैं इस शर्त पर आपकी सहायता करने को तैयार हूँ “न मामनीरयित्वा ब्राह्मणा ब्रह्म वदेयुः। यदि वदेयुः अब्रह्म तत् स्यादिति (गोपथब्रा. 1। 1। 23) अर्थात् मुझ ‘ओम्’ को पहले पढ़े बिना ब्राह्मण वेदोच्चारण न करें। मेरे नाम का उच्चारण सब से पहले किया जाया करे। यदि कोई ब्राह्मण मेरा नाम लिये बिना वेदपाठ कर दे, तो वह देवताओं द्वारा स्वीकार न किया जाये।”

“ओम्” के बिना असुर जीते नहीं जा सकते थे अतः देवताओं ने यह शर्त मान ली।

“ओम्” ने देवताओं का सैन्य संचालन किया। पूरी देवसेना के सामने वह बोले, “देवताओं! मेरा नाम लेकर आगे बढ़िये। आप सिन्धु की थाह नाम लेंगे। तिमिर दूर होगा और अपनी दिव्य शक्तियों का ज्ञान होगा। शिथिल पदों में अटल विश्वास की शक्ति आयेगी। आज आप अपनी शक्ति को पहचान लीजिए। मेरा नाम उच्चारण कर बढ़िये, विजय आपकी है।”

देवता “ओम्”, ‘ओम्” शब्द का उच्चारण कर युद्ध करते रहे। आश्चर्य! उस शब्द की शक्ति से उनमें नया उत्साह और नव प्रेरणा उत्पन्न हुई। नई ताकत का संचार हुआ। जैसे-जैसे वे “ओम्” का उच्चारण करते थे, वैसे-वैसे थके हारे सैनिकों में खोई हुई ताकत फिर आ जाती थी। उनकी ताकत जैसे अक्षय हो गई थी। इस शब्द का चमत्कार संजीवनी शक्ति के समान था।

“ओम्” की सहायता से असुर हार गये।

तब से “ओम्” अमर हो गया। थके हारे, जीवन में निराश, उत्साहहीन व्यक्तियों को नव जीवन, नई प्रेरणा और शक्ति देने के लिए ओम् का प्रयोग प्रचलित हुआ।

संकट में, विपत्ति में, युग-युग मैंने “ओम्” शब्द के उच्चारण से आत्म-विश्वास प्राप्त किया। नये सिरे से वे जीवन के मोर्चों पर आरुढ़ हुए। हर एक विपत्ति में मनुष्य का साहस देने वाला ओम् है। “ओम्” ब्रह्मबीज है! त्रिविद ओंकार रूपी ब्रह्म का संक्षिप्त रूप है। अतः इसे धारण कर लेने से नई दैवी शक्ति का प्रादुर्भाव होना साधारण सी बात है। प्रत्येक बुद्धिवादी इसे आसानी से समझ सकता है।

गहराई से “ओम्” शब्द को परख लीजिए अ, उ, म् के संयोग से यह शब्द बना हुआ है। “ओम्” परमात्मा का सर्वोत्तम नाम है। वेदादि शास्त्रों में परमात्मा का मुख्य नाम “ओम्” ही बताया गया है।

माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है—

“ओमित्येतदक्षरम् इदं सर्व तस्योपाख्यानं भूतं भवद्

भविष्यदिति सर्वमोंकार एव।”

“ओउम्” वह अक्षर है जिसमें सम्पूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ओंकार का छोटा सा व्याख्यान है। सभी शक्तियाँ, ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ इस ओंकार में भरी हुई हैं।

छान्दोग्य-उपनिषद् में “ओ3म्” की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा गया है :—

“ओम् इत्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्, ओम् इति ह्यद्गायति तस्योपाख्यानम् ॥ 1 ॥ एषाँ भूतानाँ पृथिवी

रसः, पृथिव्याः आपो रसः, आपामोषधयो रसः, ओषधीनाँ पुरुषो रसः, पुरुषस्य वाग्रसः, वाचः ऋग रसः, ऋचः साम रसः, साम्नः उद्गीथो रसः ॥ 2॥ स एष रसनाँ रसातमः परमः परार्ध्याऽष्टमोयदुद्गीथः ॥ 3॥ (1-1-1-3)

अर्थात् ‘ओम्’ अक्षर उद्गीथ है। अतः उसकी उपासना करनी चाहिए। सब भूतों का रस सार पृथ्वी है। पृथ्वी का रस जल है। जल का सार औषधियाँ हैं। औषधियों का सार मानव देह है। मानव देह का सार वाणी है। वाणी का ऋचा—वेद है। ऋचा का सार सामवेद द्वारा भगवान् का यशोगान है। सामवेद का सार उद्गीथ है। यह जो उद्गीथ है, वह सब रसों में से रसतम-सारतम, सर्वोत्कृष्ट है।

कठोपनिषद् में यमराज ने नचिकेता को ओंकार की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है—

“सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति,

तत्ते पदं सं ग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ (1।2।15)

सारे वेद जिस भगवान् का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के लिए साधक करते हैं, जिसकी इच्छा से मुमुक्षु जन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं संक्षेप में कहता हूँ। ‘ओम्’ यही पद है। और भी कहा गया है—

“एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्। एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥

यही “ओम्” सब का श्रेष्ठ अवलम्बन है। यही सर्वोत्कृष्ट आलम्बन है। इसी शक्ति पूर्ण शब्द का सहारा लेकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।

“ओम्” की शक्ति अपार है। इसके उच्चारण से मनुष्य में शुद्ध सात्विक दैवी भाव उत्पन्न होते हैं क्योंकि ओम् परमब्रह्म का शक्ति दायक नाम है। विराट्, अग्नि, विश्व आदि परमात्मा के नाम ‘अ’ के अंतर्गत हैं, हिरण्यगर्भ, वायु, तेजस आदि ‘उ’ के अंतर्गत हैं तथा ईश्वर, आदित्य और अज्ञादि परमात्मा के नाम मकार से जाने जाते हैं।

जिसके पास ‘ओम्’ है, उसके पास अनन्त दैवी शक्तियाँ हैं। बल है, बुद्धि है, जीवन है। इन्द्रियों का संयम है।

भगवान् श्री कृष्ण ने “ओ3म्” की महिमा का वर्णन करते हुए गीता के आठवें अध्याय में लिखा है-

“ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मानुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमाँ गतिम्॥

अर्थात् जो साधक मन और इन्द्रियों को वश में कर ‘ओम्’ अक्षर ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है। इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।


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