धर्म ही संसार में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है।

August 1959

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(श्री भारतीय योगी)

धर्म के सम्बन्ध में संसार में जितना मतभेद देखने में आता है, उतना शायद ही और किसी विषय के सम्बन्ध में देखा जाता होगा। भिन्न-भिन्न प्राँतों और सम्प्रदायों के मतभेद की बात तो सभी जानते हैं। ऐसे स्वमताभिमानी व्यक्तियों में से प्रत्येक अपने धार्मिक विश्वासों का सोलह आना सत्य मानता है और दूसरों को मिथ्यामार्गी बतलाता है। दुनिया में ऐसे मजहब और मुख्य सम्प्रदायों की संख्या हजारों नहीं तो सैंकड़ों अवश्य है। अब कल्पना कीजिये कि इन सबका धार्मिक मतभेद कितना विस्तृत होगा? इस सम्बन्ध में जो खंडन-मंडन के ग्रंथ लिखे गये हैं उन सबका कोई अध्ययन करना चाहे तो पूरे जीवन भर में भी वह उनको भली प्रकार नहीं पढ़ सकता।

पर मतभेद का एक यही रूप नहीं है। प्रत्येक धर्म जब स्थापित किया जाता है तो समयानुकूल आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसमें उपयोगी और लाभदायक तत्वों तथा नियमों का समावेश किया जाता है। उस समय जो लोग उसके अनुयायी बनते हैं वे उसकी सचाई और उपयोगिता से प्रभावित होते हैं और अधिकाँश में हृदय से उसके आदेशों का पालन करते हैं। पर धीरे-धीरे सामयिक परिस्थितियों के बदल जाने और लोगों की रुचि तथा स्वभाव में अन्तर आ जाने के कारण धर्म अपने मूल उद्देश्य से अलग होता जाता है और अंत में ऊपरी कर्मकाण्डों में ही उलझकर अन्तरंग सिद्धान्तों को भुला देता है। इसका प्रभाव यह होता है कि उसकी प्रेरणा शक्ति कम पड़ जाती है और अधिकाँश समझदार लोग उस पर श्रद्धा रखनी छोड़ देते हैं तथा केवल दुनिया दिखावे के लिये ऊपरी बातों को मानते रहते हैं। इसके साथ साधारण श्रेणी के अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति धर्म के स्वरूप को बिलकुल भूल जाते हैं और वे केवल सामाजिक रूढ़ियों और सरकारी कानून द्वारा स्वीकार कर लिये गये नियमों का पालन करने में ही धर्म की इतिश्री समझ लेते हैं इस दृष्टि से भी समाज के विभिन्न वर्गों में धर्म के सम्बन्ध में बहुत सा मतभेद उत्पन्न हो जाता है।

इन दो बातों के सिवाय अब एक तीसरे प्रकार का मतभेद और पैदा हो गया है। जब से संसार में कलाकौशल विज्ञान और उद्योग धंधों की विशेष रूप से वृद्धि हुई है और मनुष्य ने उन अनेक प्राकृतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जिनसे पूर्व समय में वह डरा करता था, तब से शिक्षित और वैभवशाली लोगों का एक ऐसा दल बन गया है जो धर्म को स्वीकार ही नहीं करता। उसका कहना है कि जब मनुष्य अज्ञान, असंयत, असंगठित अवस्था में था उस पर नियंत्रण रखने के लिये “धर्म” जैसी चीज की आवश्यकता थी। उस समय प्राकृतिक शक्तियों के अज्ञात रहस्य और पूर्वजों की आत्मा से भयभीत होकर लोग धर्म के अंकुश में रहते थे और समाज विरोधी आचरणों से दूर रखे जाते थे। इस प्रकार इन “विद्याभिमानी” लोगों का मत है कि धार्मिक-युग वास्तव में अज्ञान का युग था। यह सच है कि अब भी पिछड़े हुये देशों का जन-समुदाय उसी अवस्था में है, पर शिक्षित और सभ्य वर्ग के लोग नवीन विज्ञान-युग के सिद्धान्तों को भली प्रकार जान गये हैं। ऐसे ही एक विज्ञान-धर्मी विद्वान् ने सन् 1901 में पेरिस में व्याख्यान देते हुये कहा था कि “धर्म का जमाना गुजर चुका है। अब धर्म के स्थान पर विज्ञान को बिठा देना चाहिये। प्राचीन काल में मनुष्य जाति को प्रेरित करने वाली दो चीजें थीं—एक शक्ति और दूसरा धर्म। लेकिन अब ये दोनों शक्तियाँ अनावश्यक हो गई हैं, क्योंकि इन दोनों का स्थान विज्ञान ने ले लिया है। इस विज्ञान में एकरूपता है, सजातीयता है और वह ऐसे साधनों का स्वामी है कि उसके निष्कर्ष सदैव पूर्ण रूप से सत्य होते हैं। इस प्रकार के कथन अब से पचास साठ वर्ष पहले आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोगों के मुख से प्रायः सुनने में आया करते थे, क्योंकि उस समय उनको अपने कुछ ही समय पूर्व प्राप्त अधकचरे ज्ञान का बड़ा अभिमान था और वे मौके, बे-मौके धर्म तथा अध्यात्म पर इसी प्रकार के आक्षेप करते थे। पर अब विज्ञान के ही नये सिद्धान्तों ने अनेक पुरानी धारणाओं को असत्य अथवा भ्रमपूर्ण सिद्ध कर दिया है और अब विज्ञान के अनेक प्रसिद्ध पंडित भी ईश्वर और आत्मा की सत्ता का अनुमान करने लगे हैं।

वास्तविक बात यह है कि विज्ञान अथवा कला कौशल की चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न हो जाय पर वे धर्म का स्थान ग्रहण नहीं कर सकते। धर्म मनुष्य के अन्तर की वस्तु है और उसके बिना न तो पहले और न अब कोई भी विवेकशील व्यक्ति जिन्दा रह सकता है। “विवेकशील” का प्रयोग इसीलिये किया गया है—क्योंकि पशु सदृश्य जीवन बिताने वाले व्यक्तियों का काम बिना धर्म के भी चल सकता है। वे अपने दैनिक कार्य उसी प्रकार स्वाभाविक बुद्धि से करते रहते हैं, जिस प्रकार शहद की मक्खी बिना भूत-भविष्य का ख्याल किये शहद इकट्ठा करती रहती है, अथवा पक्षी अपना सुन्दर सा घोंसला बना लेते हैं। पर ये इन बातों के सिवाय न तो कोई बात जानते हैं और न जान सकते हैं। विवेकशील मनुष्य प्रत्येक काम में ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ का विचार करता है। इस सम्बन्ध में एक जगत् प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा है—

“जिन लोगों में उच्चकोटि की अर्थात् धार्मिक चेतना रही है, उन्होंने धर्म को हमेशा इसी भाँति समझा है। यह उच्चकोटि की चेतना ही मनुष्यों को पशुओं से पृथक करती है। स्वयं धर्म शब्द की उत्पत्ति के मूल में देवताओं की पूजा का भाव सन्निहित है, अथवा जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और धर्म का अर्थ अदृश्य शक्तियों के प्रति अपने कर्तव्य का एक बन्धन है। धर्म की अत्यन्त प्राचीन और अभी तक प्रचलित व्याख्या यह है कि “धर्म ईश्वर मनुष्य के बीच सम्बन्ध जोड़ने वाली शृंखला है।” एक अन्य विद्वान का कथन है कि “ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य का नाम धर्म है।” धर्म का आधार मनुष्य की वह आत्मानुभूति है जिसके द्वारा वह अपने आपको ईश्वर पर निर्भर अनुभव करता है।

“मनुष्य अपने पर जिस अनन्त परमात्मा अथवा आत्माओं की सत्ता अनुभव करता है और उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, वही धर्म का तत्व है। धर्म ही मनुष्य समाज की प्रधान प्रेरक शक्ति है। उसके बिना मनुष्य-जीवन उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार हृदय के बिना शक्ति का कायम रहना। ईश्वर अथवा देवताओं के साथ मनुष्य के सम्बन्ध को प्रकट करने को अनेक धर्म हो चुके हैं और आज भी प्रचलित हैं। जिस समय से मनुष्य विवेकवान प्राणी बना है तब से मनुष्यों का कोई समाज ऐसा नहीं हुआ, जिसमें मनुष्य धर्म के बिना जीवित रह सके हों या जीवित रहे हों।”

इसमें सन्देह नहीं कि संसार में सब से बड़ी शक्ति धर्म की ही है। जो लोग धन अथवा बल को सब से बड़ा मानते हैं, वे नीची श्रेणी के हैं और मनुष्यत्व की परिभाषा के अनुसार उनमें पाशविकता का अंश ही अधिक है। यह सत्य है कि सामयिक परिस्थितियों के अनुसार धर्म के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है और एक समय ऐसा आता है जबकि उसका अन्त होकर दूसरा नवीन धर्म उसके स्थान को ग्रहण कर लेता है। पर यह बात धर्म के कर्मकाण्ड और पूजा उपासना सम्बन्धी नियमों के लिये है। धर्म के नित्य अथवा शाश्वत सिद्धान्तों में विशेष अन्तर नहीं पड़ता। भारतीय ऋषि-मुनियों ने इन सिद्धान्तों की विवेचना हजारों वर्ष पूर्व ऐसे स्पष्ट और पूर्णरूप से की है कि मनुष्य का कितना ही विकास हो जाय वे सदैव उसे प्रेरणा देते रहेंगे। इसीलिये भारतीय धर्म को सनातन धर्म के नाम से भी पुकारा जाता है। ऋषियों ने इस धर्म का चरम निरूपण योग के रूप में किया है, जिस पर चलकर मनुष्य इस जीवन में ही परमात्मा के दर्जे को भी प्राप्त कर सकने में समर्थ हो सकता है। इस दृष्टि से धर्म ही मनुष्य के कल्याण के लिये सर्वप्रथम और अधिक आवश्यक है।


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