दिन दिन ऊँचे चढ़ो—आगे बढ़ो

August 1959

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

डडडड व्या अहमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्।

डडडड वो नाकस्य पृष्ठात स्वर्ज्योतिरगामहम॥

यजु. 17।67

अर्थात्—पार्थिव बल से ऊंचा उठकर मुझे मनोबल प्राप्त हो, मनोबल से ऊँचा उठकर मुझे आत्मबल प्राप्त हो और आत्मबल से ऊंचा उठकर मुझे आनन्द स्वरूप ज्योति (परमात्मा) के दर्शन हों।

स्थूल और सूक्ष्म दो शक्तियाँ संसार में होती हैं स्थूल में स्वयं क्रियाशीलता नहीं होती बल्कि सूक्ष्म के साथ मिलने से उसमें शक्ति का संचार होता है या यों कहना चाहिए कि स्थूल का आधार सूक्ष्म है। जितनी-जितनी कोई वस्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ती है, उतनी ही उसकी शक्ति बढ़ती जाती है। शरीर से विषय सूक्ष्म होते हैं इसलिए वह अपने बल से उसे अपनी ओर मोड़ ले जाते हैं। विषयों से इन्द्रियाँ सूक्ष्म तथा बलवान होती हैं इसलिए वह उन्हें मनमानी दिशा में खींच ले जाती हैं। इन्द्रियों से मन सूक्ष्म और शक्ति शाली है इसलिए उन्हें अपने काबू में रखने की क्षमता रखता है। मन मनुष्य की एक ऐसी अद्भुत शक्ति है जिस पर उसका सुख, दुःख, शान्ति अशान्ति, उन्नति अवनति निर्भर है। कहा भी है।

मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्धमोक्षयो।

बन्धाय विषयासंगि मोक्षे निर्विषयं स्मतम्॥

(मैत्रुयु 6। 34, अमृतबिन्दु 2, व्रतबिन्दु 2। 3)

“मनुष्य के (कर्म के) बन्धन और मोक्ष का मन ही कारण है। मन के विषयासक्त होने से बन्धन और निष्काम या निर्विषय अर्थात् निसंग होने से मोक्ष होता है।

जैसा मन होता है वैसे ही कार्यों में शरीर प्रवृत्त होता है क्योंकि शरीर जड़ और स्थूल है और मन उससे सूक्ष्म। मन के इशारे पर ही शरीर नाचता है। शरीर से मन की शक्ति अत्यधिक है। मन जिधर भी एकाग्रता से लग जाता है। उधर ही सफलता के दर्शन होते हैं। मनन शक्ति की महत्ता को प्रकट करने वाले यजुर्वेद में कई मन्त्र आते हैं।

“मनन शक्ति से संसार की उत्पत्ति हुई है”(17। 25)

“वह मनन शक्ति हमें पुनः अच्छे कामों के लिए, उत्तम जीवन और ईश्वर दर्शन के लिए प्राप्त हों” (3। 54)। “हे विद्या दान करने वाले विद्वानों! आप दिव्य गुणों से युक्त श्रेष्ठ पुरुष हैं, हमें मनन शक्ति का वरदान दें ताकि अपने जीवन में हम सत्य व्रतों का आचरण कर सकें।”

बृहदारण्यकोपनिषद् में मन को अन्तरिक्ष लोक, यजुर्वेद, पितृगण कहा है। जनक के यज्ञ में याज्ञवलक्य और अश्वल के संवाद में याज्ञवलक्य कहते हैं “ब्रह्म यज्ञ का मन है और यह जो मन है वही यह चन्द्रमा, वही ब्रह्म और वही मुक्ति है और अति मुक्ति है।” इसी संवाद में आगे कहा है “मन ही देवता है, मन अनन्त है और विश्वेदेव भी अनन्त हैं अतः उस मन से यजमान अनन्त लोक को जीत लेता है।” गीता में भगवान ने कहा है “इन्द्रियों में मन मैं हूँ (10/22)” तैत्तिरीयोपनिषद् में भी मन को ब्रह्म कहा है और कहा है कि “मन से ही प्राणी मात्र की उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति के पश्चात् मन से ही वह जीते हैं तथा इस लोक को छोड़ते हुए मन में सब मिल जाते हैं।

उपरोक्त वेद व उपनिषद् के वाक्यों से स्पष्ट है कि मन में अपार शक्ति है। यदि अपनी मनन शक्ति को हम जीवन में सत्य व्रतों के धारण करने में लगा दें तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, चिन्ता, कलह, क्लेश, दुःख, ईर्ष्या, द्वेष, राग आदि शत्रुओं से दूर होकर सुख शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं। मन चाहे तो हमें देवता बना सकता है, आत्मा का साक्षात्कार करा सकता है, भवसागर से पार उतार सकता है। पृथ्वी लोक से द्यौलोक में पहुँचा सकता है अर्थात् निकृष्ट पशुवत् जीवन से उठाकर श्रेष्ठ मार्ग की ओर मोड़ सकता है। नरक से निकाल कर स्वर्ग का अधिकारी बना सकता है। इस लोक को ब्रह्मलोक में बदल सकता है। वह आदित्य है, अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करके ज्ञान रूपी प्रकाश ला सकता है। वह चन्द्रमा है, दुःखों के धधकते हुए अंगारों को शीतलता प्रदान कर सुख शान्ति का अमृत पिला सकता है।

हमारा पापी या पवित्र, भोगी या संयमी स्वार्थी डाकू या संत, दुःखी या सुखी बनना मन पर ही निर्भर है इसलिए उपरोक्त वेद मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि पार्थिव बल से ऊँचा उठाकर मुझे मनोबल प्राप्त हो।

पहिले हम बता चुके हैं कि जितनी कोई वस्तु, सूक्ष्म होती जाती है, उतनी ही वह बलवान होती जाती है। जिस तरह से शरीर से मन सूक्ष्म और बलवान है उसी तरह से मन से आत्मा सूक्ष्म है, इसलिए शक्तिशाली है। आत्मा की शक्ति द्वारा ही सभी मानसिक क्रियाओं का संचालन होता है। यदि शरीर में आत्मा न हो तो मन की शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। मन की शक्तियों की महत्ता आत्मा के कारण है। आत्मा परमात्मा का अंश है। उसमें परमात्मा की सभी शक्तियाँ विद्यमान हैं परन्तु मनुष्य उसकी उपेक्षा करके उन शक्तियों से वंचित रहता है। वह अपनी स्थूल बुद्धि के आधार पर भौतिक शक्तियों से प्रेम करता है। इसलिए उनको प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है और अपने सारे समय और शक्ति को उन्हीं की प्राप्ति में लगा देता है। इसके लिए उचित या अनुचित सभी उपायों को अपनाता है, पाप कर्म करता है। इससे जिस तरह अग्नि पर पपड़ी रहने से उसकी शक्ति दबी रहती है, उसी तरह से आत्मा पर मल विक्षेप की पर्तें जमे रहने से उसकी शक्तियाँ सोई रहती हैं। इसके फलस्वरूप मनुष्य अन्धकार में भटकता रहता है और संसार रूपी बीहड़ बन में ठोकरें खाकर दुखी और अशान्त रहता है।

जो श्रेष्ठ पुरुष आत्मा को पहिचान लेते हैं, वे प्राणिमात्र को आत्मवत् देखते हैं, उनको अपने और अपने को उनमें देखते हैं। इस दृष्टिकोण से व्यवहार करने वाला मनुष्य किसी से छल, कपट, बेईमानी, ईर्ष्या, द्वेष और दुर्व्यवहार नहीं कर सकता। वह दूसरों से ऐसा व्यवहार करता है जैसी उनसे आशा करता है। आत्म-बल प्राप्त मनुष्य को दुःख छू नहीं सकता। अन्य लोगों की तरह आपत्तियाँ और कठिनाइयाँ तो उसके जीवन में भी आती हैं, परन्तु वह दुःख उसे दुःख प्रतीत नहीं होते। प्रसन्नता का स्रोत जिसके भीतर उमड़ रहा वहाँ दुःख की थोड़ी सी लहरों का प्रभाव पड़ सकता है? वह पार्थिव शरीर से ऊँचा उठ जाता है, शरीर के कष्ट उसे अनुभव नहीं होते। इसलिए निश्चय ही आत्म-बल मनोबल से श्रेष्ठ है। मनोबल से ऊपर उठ कर आत्म-बल प्राप्त करने की प्रार्थना का यही अभिप्राय है।

आत्म-बल सम्पन्न मनुष्य जिधर भी देखता है, उसे अपना ही स्वरूप बिखरा हुआ दिखाई पड़ता है। वह दूसरों के स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझने लगता है। अपने शरीर को समाज और राष्ट्र के हित में घुला देता है। दूसरों के हित के लिए वह अपने को भूल जाता है। अन्य प्राणियों के साथ उसकी भिन्नता नष्ट हो जाती है अर्थात् उनसे वह ऐक्य प्राप्त कर लेता है। एकता का अनुभव करना ही संसार भर की सुख-शान्ति को केन्द्रित करके अपने पास बुलाना है। जब ऐसी स्थिति आ जाती है तो वह संसार में रहता हुआ भी कमल के फूल की तरह इससे अलग रहता है। संसार के सुख दुःख स्पर्श नहीं कर सकते। वह एक अद्भुत मस्ती में रहता है। इसी मस्ती को आनन्द स्वरूप ज्योति (परमात्मा) के दर्शन हुए कहे जाते हैं।

वेद भगवान की शिक्षा है कि हमें शरीर के भोगों में रत रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त नहीं कर देनी है। इससे ऊँचा उठकर मनोबल प्राप्त करना है और फिर आत्म-बल की ओर बढ़ते हुए परम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति करना है। यही परम शान्ति का मार्ग है।


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