मानवता की ओट में

January 1958

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(श्री स्वामी सदाशिवजी महाराज, अहमदाबाद)

आज विश्वव्यापी अशान्ति, घोर दावानल के रूप में परिणत होती दिखलाई पड़ रही है। ऐसा जान पड़ता है कि वह समस्त विश्व को स्वाहा करने की तैयारी में ही है। ऐसी अवस्था में आवश्यकता है कि संसार को मार्ग दिखलाने वाली महान आत्माएं मानवता के अमृत की वर्षा करके मनुष्यों में फिर ऐसा प्रेम-भाव प्रसारित करें जिससे इस अशान्ति-द्वेष भाव से मनुष्य की रक्षा हो सके।

इसमें सन्देह नहीं कि प्राकृतिक नियम के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति प्रायः अपने परम्परागत विचारों और रूढ़ियों के अनुसार ही अकेला अथवा अपने परिवार सहित जीवन व्यतीत करने के अभ्यस्त होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अगर अपने संस्कारों अथवा रूढ़ियों के अनुकूल देश, स्त्री, सन्तान, स्वजन, अन्न, वस्त्र आदि प्राप्त न हों तो वे अपने जीवन को व्यर्थ मानते हैं और यदि ये सब चीजें उसको अपनी रुचि के अनुसार मिल जायं तो जीवन को सार्थक समझते हैं। इस विवेचन के अनुसार कोई भी व्यक्ति कुटुम्ब, समाज, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, महादेश की सीमा के बिना नहीं रह सकता, जीवन धारण नहीं कर सकता। जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए स्थूल देहधारी प्राणियों को देह, धर्म निर्वाह और विश्राम के लिए किसी न किसी लघु या विशाल सीमा की आवश्यकता रहती है, पर इसके कारण कूप-मंडूक बन जाना, अथवा यह धारणा बना लेना कि हमारी सीमा के बाहर और किसी का अस्तित्व ही नहीं है, यह घोर अज्ञान अथवा अदूरदर्शिता का चिह्न है। उच्चकोटि के मनुष्यों की दृष्टि से तो यह सर्वथा उपहासास्पद बात है।

इस दृष्टि से विचार किया जाय तो संसार भर के मनुष्यों को चार हिस्सों में बाँटा जा सकता है-लघु मानव, मानव, महामानव और अतिमानव। जिस युग में अपना वैदिक धर्म केवल भारत देश में ही सीमित था , उस काल में अपने वैदिक ऋषियों ने इस गुण-धर्म का अनुशीलन करके भारतीय मनुष्यों को शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण इन चार विभागों में बाँट दिया था। सनातन वैदिक धर्म विज्ञान से अपरिचित अन्य देशवासियों को वे यवन आदि नामों से अभिहित करते थे। पर अब प्राकृतिक क्रम-विकास के स्वाभाविक वेग के फलस्वरूप कुछ अपवादों को छोड़कर संसार के प्रायः सभी मनुष्य बौद्धिक विज्ञानवाद की चरम सीमा तक पहुँच चुके हैं और भौतिक-विज्ञान की वृद्धि के कारण संसार के समस्त देश, महादेश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, नदी, पर्वत तक एक दूसरे से इस तरह से शृंखलाबद्ध हो गये हैं कि प्रत्येक देश, जाति, धर्म इत्यादि के कार्यों और विचारों का प्रभाव तत्काल अन्य देशों, जातियों और धर्मों पर पड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है। इसलिये आज भारतीय मनुष्य, भारतीय ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि अथवा भारतीय संन्यासी, ब्रह्मचारी आदि अथवा भारतीय हिन्दु, मुसलमान, ईसाई आदि किसी तरह से केवल अपने ही वर्ग का हित-साधन नहीं कर सकते। कहने के लिये वे अपने कार्य को विश्व-सेवा या सार्वजनिक सेवा का नाम देते हैं, पर जो लोग तरह-तरह की सीमाओं में बँधे हैं, अपनी सीमा के बाहर वालों को गैर समझते हैं-अनेक तो उनको मनुष्य भी मानने को तैयार नहीं होते-ऐसे लोग किसी की सच्ची सेवा नहीं कर सकते-”वास्तविक सेवा तो अति गहन हैं।”

विश्व की सेवा वे ही कर सकते हैं, जो अपने को विश्व का अधिवासी समझते हैं। इसके विपरीत जो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी अथवा भारतीय, योरोपियन, अमरीकन आदि की सीमाओं से आबद्ध है, वे विश्व-सेवा का नाम झूँठ-मूँठ ही लेते हैं। समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड में जितने असंख्य प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देहधारी प्राणी हैं, उसी प्रकार उनकी सीमायें भी असंख्यों हैं। इन असंख्यों प्राणियों में से जो सारासार कल्पना करने की शक्ति रखते हैं उनको मनुष्य श्रेणी में मानकर नीचे लिखे विभागों में बाँटा जा सकता है :-

लघु-मानव- जिनमें पाशव-धर्म की प्रधानता होती है, पशु जिस प्रकार दूसरे मनुष्यों के सुख-दुख का विचार किये बिना केवल प्रधान रूप से अपनी देह के सुख-दुख और हानि-लाभ का विचार करता है और गौण रूप से अपने स्वार्थ से अविरोधी और अनुकूल व्यवहार करने वाले स्वजनों, मित्रों के सुख-दुख में सहानुभूति रखता है, वैसे ही इस श्रेणी के मनुष्य होते हैं। सच पूछा जाय तो उनमें जो ऐसी सहानुभूति होती है, उसी के कारण वे मनुष्य कहे जाते हैं, अन्यथा उनमें सब बातें पशुता की ही होती हैं। ऐसे लोगों को अपनी वैदिक-संस्कृति में शूद्र कहा गया था। यह लघुता, शूद्रता, क्षुद्रता या पशुता किसी देश, जाति या कुल की विशेषता नहीं है, पर सभी देशों, जातियों और धर्मों के व्यक्तियों में न्यूनाधिक परिमाण में पाई जाती हैं। हम मनुष्य का आदर अवश्य करें पर ऐसी लघुता या शूद्रता को प्रोत्साहन कभी न दें, चाहे वह अपने प्रिय सम्बन्धी या गुरुजन में ही क्यों न हो।

मानव- जिनकी “अभिमान” या अपनत्व की मर्यादा देहमात्र को अतिक्रम करके स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, अनुचर, पशु, गृह, सम्पत्ति आदि तक प्रसारित हो गई है और जो प्रधानतः अपने स्त्री-पुत्र-कुटुम्बीजनों का और गौणतः मित्र, स्वजन, परिजन आदि अनुकूल व्यवहार करने वालों के सुख-दुख का विचार करते हैं, वे मानव श्रेणी में है। ऐसे लोग उपयुक्त सम्बन्धों के सिवाय अन्य मनुष्यों के साथ मानवता का कर्तव्य पालन करने की परवाह नहीं करते। वे अपनी विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दूसरों के हक पर अपना अधिकार जमाने के लिये विद्या, बुद्धि और शारीरिक बल का उपयोग सुधरी हुई रीति से करते हैं। ऐसे लोगों में पशुता प्रच्छन्न (ढकी हुई ) होती है और इस दृष्टि से अति भयंकर होती है। ऐसे लोगों को वैदिक संस्कृति में वैश्य का नाम दिया गया था। ऐसे स्व समाज प्रेमी वैश्य सब देशों में दिखलाई पड़ते हैं। अपने समाज के भीतर ऐसे वैश्य भले ही समाज सेवी मानकर आदरणीय हो सकें, पर जहाँ समस्त देशों के अथवा विश्व मानव के हित का विचार किया जाय, वहाँ ये केवल अपनी जाति के ही हितैषी वैश्य निरुपयोगी हैं।

महामानव- जिनकी “अभिमान” (अपनत्व) की मर्यादा शरीर, स्वजन, कुटुम्ब, जाति और स्वसमाज का अतिक्रम करके समग्र देश, देशबन्धु और देशवासियों तक प्रसारित हो जाती है, वे महामानव की कोटी के व्यक्ति हैं। वे प्रकट में चाहे बड़े वैभव सम्पन्न दिखलाई पड़ें पर उनका मुख्य उद्देश्य देशवासियों की हित सेवा के लिये जीवित रहना ही होता है। इस दृष्टि से उनका बाहरी आचरण, उनका ठाठ बाट साधारण मनुष्य के लिए बड़ा दुर्बोध्य होता है। जब तक किसी मानव में राग द्वेष रहित विवेक बुद्धि का उदय नहीं होता, तब तक वह महामानव की श्रेणी में कदापि नहीं समझा जा सकता।

पर जिस पशुता का ऊपर उल्लेख किया गया है, वह बहुत ढके हुये रूप में महामानव में भी शेष रहती है। वे अपने देशवासियों के सिवाय अन्य देशवासियों के साथ विषमता का व्यवहार करते हैं। ऐसे विषम व्यवहार मानवता की दृष्टि से तो अनुचित माना जाता है, पर महामानव, की दृष्टि से उसमें कोई दोष नहीं होता। वही उनका मुख्य धर्म है। वैदिक संस्कृति में ऐसे महामानवों को क्षत्रिय श्रेणी में गिना गया था। संसार की वर्तमान दशा में ऐसे महामानवों की विशेष रूप से आवश्यकता भी है।

अतिमानव- जो अभिमान की परीक्षा में स्वजन, मित्र, परिजन, जाति, धर्म और देश को अतिक्रम करके समग्र मानव जाति को अपना लेते हैं वे अतिमानव हैं वे किसी भी प्राणी को कष्ट दिये बिना मनुष्य मात्र का हित साधन, हित चिन्तन करने में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। यद्यपि ऐसे अति मानवों में राग द्वेष का अभाव हो जाने से इच्छा और क्रिया की शक्तियाँ शिथिल पड़ जाती हैं और वे प्रकट में साँसारिक व्यवहारों से यथा संभव कम से कम सम्बन्ध रखते हैं, पर वे मनोवैज्ञानिक रीति से समग्र जाति का मार्गदर्शन का कार्य करके बिना भेद भाव के सबकी महान सेवा करते हैं। वैदिक संस्कृति में ऐसे अतिमानवों को ब्राह्मण की श्रेणी में गिना गया था। अनेक सम्प्रदाय ऐसे ही व्यक्तियों को ईशावतार की श्रेणी में गिनते हैं। ऐसा अति मानवपन अथवा ब्राह्मणत्व सिद्धान्त रूप से सबके लिये खुला है, पर वास्तव में उसका प्राप्त कर सकना अत्यन्त दुःसाध्य है।

इस प्रकार मानवता अत्यन्त उच्चकोटि की स्थिति है, जिसे मनुष्य स्वार्थ को त्याग कर और कर्तव्य का वास्तविक रूप से पालन करके ही प्राप्त कर सकता है। वास्तव में मानवता का निर्णय मनुष्य के निस्वार्थ और निष्काम भाव से ही किया जाना चाहिये।


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