देश-व्यापी दुर्दशा का सुधार कैसे हो ?

January 1958

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( श्री. भगवानदासजी केला )

भारतवर्ष को स्वाधीन हुये दस वर्ष हो गये, पर अभी यहाँ के जन-समूह की अवस्था में बहुत कम अन्तर पड़ा है। साधारण लोगों को इस विषय से कुछ भी अनुराग नहीं होता कि राष्ट्रपति के अधिकार क्या हैं-प्रधानमंत्री की सत्ता क्या है-गणराज्य का क्या स्वरूप है-ऐसी बातों में उन्हें कोई आनन्द नहीं आता, क्योंकि उनके सामने रोटी-कपड़े की समस्या सदा भीषण रूप में खड़ी रहती है। अगर हमारा नया शासन इन लोगों को जीवन-निर्वाह की सबसे आवश्यक इन वस्तुओं को नहीं दे सकता, तो वे परिस्थिति के बदलने में कैसे विश्वास कर सकते हैं।

इस समय हमारे देशवासियों का एक बड़ा भाग महँगाई, भुखमरी से परेशान है। समय-समय पर ऐसे लोगों की आत्म-हत्या की घटनाएँ भी सुनने में आती हैं। भारतीय राष्ट्र की इस दुर्दशा के कुछ कारण तो ऐसे हैं, जो विशेष परिस्थितियों से पैदा हुये हैं और उन पर एकदम काबू पा सकना किसी के वश की बात नहीं है। पर कुछ कारण ऐसे भी हैं, जो हमारे देशवासियों ने, अपने आपको भारत-संतान कहलाने वालों ने पैदा किये हैं। हमारे भाई ही मिलावट, चोरबाजारी, मुनाफाखोरी, घूसखोरी करके देश की हालत को खराब बना रहे हैं। जो देश आध्यात्मिकता और धर्ममय संस्कृति का अभिमान करने वाला हो और जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसा महान आदर्श-वाक्य प्रायः सुनने में आता हो, जहाँ के आदमी पशु-पक्षियों तक पर दया दिखाते हों, वहीं के आदमी इतने लोभी, इतने स्वार्थी बन जायें कि अपने लाभ के लिये अपने भाई-बहिनों की हत्या से भी बढ़कर कुकर्म करें, इससे अधिक शोचनीय बात और क्या होगी।

इस बात को सब कोई समझते हैं कि जो व्यक्ति खाने-पीने की चीजों में मिलावट करते हैं, वे अनेक आदमियों को रोगी बनाते हैं, कितने ही आदमी तो मिलावटी पदार्थ खाकर असाध्य रोगों के शिकार बन जाते हैं और घुल-घुलकर मरते हैं, क्या मिलावट का यह काम हत्या से भी बढ़कर क्रूरता का नहीं है? इसी प्रकार जो लोग चोरबाजारी या मुनाफाखोरी करते हैं, वे लाखों आदमियों को भूखा-नंगा रखने के जिम्मेदार होते हैं। प्रधानमंत्री नेहरू ने कई बार कहा है कि उनका वश चले तो चोरबाजारी करने वालों को खुले आम फाँसी दे दें। पर उनकी सरकार ने अभी तक इस ओर कोई खास कदम नहीं उठाया। बिहार सरकार ने एक बार लाखों गज कपड़ा और हजारों मन अन्न चोरबाजारी वालों के यहाँ से पकड़ कर उन पर मुकदमा चलाया था। पर इस अवसर पर भी सरकारी कर्मचारियों ने अपनी जेबें खूब भरी। कई बड़े-बड़े मुखिया छूट गये और अनेक साधारण व्यक्तियों को पीस डाला गया। आशा है कि सरकार फिर कभी ऐसे चोरबाजारी करने वाले व्यवसाइयों के विरुद्ध कार्यवाही करते समय अपने लोभी-बेईमान कर्मचारियों पर भी पूरी निगाह रखेगी।

अस्तु, मुनाफाखोरी अथवा घूसखोरी के रोकने के लिये सरकार जो भी नियम बनावेगी उससे तो हमारी सहानुभूति है ही, पर हमको यह विचार करना है कि क्या बीमार का ऐसा ऊपरी इलाज करने से उद्देश्य सिद्ध हो सकता है? जैसे फोड़े का आपरेशन या चीरा-फाड़ी और मरहम पट्टी होती है, पर उससे व्याधियों का अन्त नहीं होता। कुछ फोड़े मिटते हैं तो आस-पास में नये निकल आते हैं।

इसलिये जब तक रक्त को स्वच्छ नहीं किया जाता तब तक बीमारी जड़ से अच्छी नहीं होती। इसी प्रकार ‘चोर’ या ‘व्यापारी’ बड़ा चतुर होता है। वह आगे-पीछे की बात सोच-समझ कर काम करता है और सरकारी धमकी से जल्दी अपना पेशा बन्द करने वाला नहीं होता।

जब हम इस परिस्थिति के मूल कारणों पर विचार करते हैं तो विदित होता है कि वर्तमान वातावरण में प्रत्येक आदमी जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक धनवान बन जाना चाहता है। हम कोई भी धन्धा करते हों हमारा लक्ष्य यही रहता है। हाँ, कुछ धन्धों में इसकी गुंजाइश अधिक रहती है और कुछ में कम। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि तात्कालिक उपायों के साथ-साथ ही बाल्यावस्था से ही लोगों के मन पर अच्छे संस्कार डाले जायें। आजकल घरों में माता-पिता अपनी सन्तानों में ऊँची भावना भरने की और से प्रायः उपेक्षा ही करते हैं। इसलिये आजकल शिक्षा संस्थाओं और शिक्षकों का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया है। वे ही विद्यार्थी अवस्था में लड़कों की मनोवृत्ति को मोड़ सकते हैं। लड़कों की पूरी शिक्षा-पद्धति पर विचार करना तो बहुत लम्बा विषय होगा। यहाँ हम एक बात का ही उल्लेख करना चाहते हैं कि विद्यार्थियों की नैतिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाय और उन्हें जो अर्थ-शास्त्र पढ़ाया जाय वह पूर्णतया नीति के अनुकूल हो।

हमारे देश में अर्थ-शास्त्र का पठन-पाठन बढ़ता जा रहा है। यह स्कूलों और कालेजों की शिक्षा में सम्मिलित है। पहले यह अंग्रेजी में ही पढ़ाया जाता था, पर अब हिन्दी में पढ़ाया जाने लगा है और मैट्रिक तक में पढ़ाया जाता है। हमको इस विषय की पढ़ाई में कोई आपत्ति नहीं, पर हमारा ऐतराज पाठ्य-पुस्तकों के सम्बन्ध में है। आजकल इस विषय की जो पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं, वे अंग्रेजी पुस्तकों के आदर्श पर ही लिखी गई हैं और उनमें इस विषय का विवेचन पूँजीवादी दृष्टिकोण से ही किया है। उसमें यहीं सिखाया जाता है कि हमारी सभी आर्थिक क्रियाओं का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ या मुनाफा है। हम कोई चीज बनावें, पैदा करें, खरीदें, बेचें तो हमें ऐसे तरीके काम में लाने चाहिये कि हमें अधिक लाभ हो। समाज के दूसरे लोगों पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा, वे बेकार हो जायेंगे या भूखों मरने लगेंगे, इससे हमको कोई सरोकार नहीं रखना चाहिये। हमें अपने रहन-सहन का दर्जा बढ़ाना है, इसके लिये हमारी आवश्यकताएं दिन पर दिन बढ़ती जायें तो कोई चिन्ता की बात नहीं। ज्यों-ज्यों आवश्यकताएं बढ़ेगी, हम अपनी पूर्ति का प्रयत्न करेंगे। हम ईमानदार रहने का उसी सीमा तक विचार करते हैं, जहाँ तक कानून की पकड़ में नहीं आते। मनुष्य में कुछ ऐसी भावनाएं स्वाभाविक रूप से भी होती हैं। फिर जब यह पूँजीवादी अर्थ-शास्त्र उन्हें प्रोत्साहन देता है, समर्थन करता है तो उसका परिणाम व्यापार में अनैतिकता के सिवाय क्या होगा। अतएव हम इस प्रकार की पाठ्य-पुस्तकों को रोककर नैतिक अर्थ-शास्त्र की शिक्षा दें जो महात्मा गाँधी का लक्ष्य था और जिसका प्रचार वे निरन्तर करते रहें। कोई कानूनी प्रतिबन्ध हो या न हो, पर हमें कोई ऐसा काम न करना चाहिए, जिसमें दूसरों को गरीब बनाकर स्वयं धनवान बनाने की बात हो।


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