(श्री. बैजनाथ बी. ए.)
विदेशी धर्म प्रचारक हिन्दू धर्म पर प्रायः यह आक्षेप किया करते हैं कि यह एक ईश्वर अथवा परमात्मा के बजाय 33 करोड़ देवताओं को मानने वाला और पशु, पंडों, पत्थरों, नदियों आदि की पूजा करने वाला नीचे दर्जे का धर्म है। पर वास्तव में यह आरोप मिथ्या है। जिसे वे लोग या तो अज्ञान के कारण समझ नहीं पाते अथवा जान-बूझकर झूठा प्रचार करने की चेष्टा करते हैं। अन्य धर्मों की भाँति हिन्दू धर्म को भी मालूम है कि परमात्मा अथवा ईश्वर एक ही हो सकता है, चाहे उसकी शक्ति का आविर्भाव असंख्यों रूपों में क्यों न हुआ हो। सत्य बात यह है कि किसी धर्म वाले चाहे, एकेश्वरवाद की जितनी भी डींग क्यों न मारें निर्गुण परब्रह्म के स्वरूप को समझ सकना अथवा उसकी वास्तविकता को अपनी बुद्धि द्वारा ग्रहण कर सकना बड़े से बड़े विद्वान के लिये भी महा कठिन है। भगवान बुद्ध अपने चेलों से कहा करते थे “कि ऐसी भारी बातों के विषय में उन्हें कुछ विचार न करना चाहिये, क्योंकि इस विषय में किसी भी प्रकार का निर्णय कर सकना असंभव है और उससे कुछ लाभ नहीं निकलेगा।” इसीलिये भारतवर्ष और व्यावहारिक रूप दिया है, जिससे वे क्रमशः आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होते जायें और समय आने पर आत्मा और परमात्मा के सत्य स्वरूप को भी समझने की योग्यता प्राप्त कर सकें। इस सम्बन्ध में एक विदेशी विद्वान् ने जो स्वयं ईसाई धर्म के आचार्य थे और आध्यात्मिक विषयों में बड़ी रुचि रखते थे, हिन्दू मन्दिरों, तीर्थ स्थानों और उनमें प्रतिष्ठित मूर्तियों की वास्तविकता पर बहुत विवेकपूर्ण और तर्क संगत विवेचना की है। नीचे उन्हीं के लेख की कुछ बातें दी जाती हैं।
हिन्दू देवताओं की मूर्तियों में बहुधा ओजस् शक्ति भरी रहती है। उत्सवों के अवसर पर जब इन मूर्तियों को जुलूस के रूप में निकाला जाता है तो दर्शकों पर उनके दर्शन का अच्छा प्रभाव पड़ता है। बहुत से मन्दिरों और तीर्थों से अब भी आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न करने वाली धार्मिक क्रियाएँ हुआ करती हैं और वहाँ जाने से और उनका प्रसाद ग्रहण करने से मनुष्य के हृदय में अवश्य ही श्रेष्ठ भावों की उत्पत्ति होती है।
भारतवर्ष वास्तव में क्रियाकाण्ड और विधियों का देश है। यहाँ का धर्म इनसे भरा हुआ है और अनेकों विधियाँ तो युगों से चली आई हैं। यह भी निश्चय है कि बहुत सी क्रियाएँ पीछे से जोड़ी गई हैं। इनमें से कितनी ही ऐसी क्रियाएँ है, जो जाति के आरम्भ में अति आवश्यक होती हैं, पर आर्य जाति के पूरी तरह से विकसित हो जाने पर अब उनका कोई काम नहीं रहा। बहुत सी क्रियाओं को होते समय उन्हें देखने से स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है कि असल में उनका क्या अर्थ रहा होगा, हालाँकि परिस्थिति के बदल जाने से अब वे अर्थशून्य हो गई हैं और उनसे कोई फल उत्पन्न नहीं होता। ये विधियाँ नये मनुष्यों के लिये तो उपयोगी होती हैं और बहुत को उन से आनन्द तथा लाभ भी मिलता है। पर वास्तव में उन क्रियाओं अथवा विधियों के बिना काम न चल सके ऐसी बात नहीं। उन्नति प्राप्त पुरुष को ये बन्धन नहीं रहते, चाहे वह लोक रीति के कारण उनका पालन करता भी रहे।
पर सबसे बड़ी बात यह है कि आजकल की धर्म क्रियाएँ कराने वाले पुरोहितों में उस शक्ति का अभाव होता जा रहा है जिसके आधार पर पूर्वकाल में ये क्रियाएँ साक्षात फल देने वाली होती थी। इन दिनों ये लोग अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग नहीं करते। वे मंत्र तो पढ़ते है- “ऊँ भूःर्भुवः स्वः” पर इसके उच्चारण से कोई फल उत्पन्न नहीं होता। पूर्व काल में आचार्य लोग इस मन्त्र का उच्चारण करते समय तथा उपस्थित प्रभावग्राही या कोमल प्रकृति वाले लोगों की चेतना मन्त्र उच्चारण करते संयम एक लोक से दूसरे लोक तक पहुँचा देते थे। यह बात ठीक है कि इस प्रकार का अवसर थोड़ी देर के लिए ही रहता था और क्रिया समाप्त हो जाने के बाद उसमें भाग लेने वालों की ऊँचे लोकों की चेतना भी जीती रहती थी। परन्तु उनके लिये यह एक महत्वपूर्ण अनुभव होता था और दूसरी बार जब कभी ऐसी क्रिया की जाती थी तो उनमें ऊँची दर्जे की चेतना जागृत होती थी। इस प्रकार उपासकों की आत्मिक शक्ति का निरन्तर विकास होता रहता था। परन्तु आजकल ऐसा कार्य शायद ही कहीं होता हो। आजकल आचार्य हवन कुण्ड में समिधा रखता है और अग्नि आवाहन के लिए मंत्र पढ़ता है और फिर दियासलाई से अग्नि प्रज्वलित कर देता है। प्राचीन काल में अग्नि के अधिष्ठाता देव यथार्थ में आते थे, जैसा कि पुरानी कथाओं में बतलाया गया है। कारण यही था कि उस समय सब लोग अपनी इच्छा शक्ति का भी प्रयोग साथ-साथ करते थे। अब उन क्रियाओं का बाहरी रूप ही रह गया है, जिससे फल भी नाम मात्र को ही प्राप्त होता है।
तीर्थ यात्रा की प्रथा भी बिल्कुल तर्क और विज्ञान से सिद्ध है। जहाँ किसी पवित्र मनुष्य का आश्रम रहा हो अथवा जहाँ दीक्षा के समान कोई महत्व का कार्य हुआ हो, वहीं पर प्रायः बड़े-बड़े मन्दिर बनाये जाते थे। ये मन्दिर कभी-कभी किसी महापुरुष की अस्थियों पर भी बनाये गये है। इस प्रकार का मन्दिर, चाहे वह किसी भी उद्देश्य से बनाया का गया हो, दृढ़ ओजस् का केन्द्र हो जाता है। जो सैकड़ों हजारों वर्षों तक भी स्थिर रह सकता है। जब कोई प्रभावग्राही या कोमल प्रकृति का व्यक्ति ऐसे स्थान पर पहुँचता है तो उसको इस असर का ज्ञान होता है और इस असर से निस्सन्देह उसको लाभ पहुँचता है। जहाँ कहीं बहुत ऊँचे दर्जे का कम्पन होता है, तो वह अपने क्षेत्र के भीतर आने वाले मनुष्य के कम्पों अथवा चेतना को अपनी ऊँचाई तक उठा लेता है। यदि कोई यात्री ऐसे स्थान पर कोई दिन तक रहे और उस पर वहाँ के ओजस का असर पड़े तो अवश्य ही उसे आत्मिक लाभ होगा। पर यह भिन्न-भिन्न लोगों को अपनी प्रभाव ग्रहण करने की योग्यता या स्वभाव के अनुसार ही कम या ज्यादा मिल सकता है।