मुँह द्वारा साँस लेने की आदत स्वास्थ्य-नाशक है।

January 1958

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(योगी रामचारक जी)

मनुष्य जीवन में श्वास-प्रश्वास का बड़ा महत्व है। संक्षेप में कहा जाय तो श्वास-प्रश्वास ही जीवन है। कितने ही लोगों का मत है कि मनुष्य के श्वास गिने हुये होते हैं, अर्थात् प्रत्येक मनुष्य के जन्म होते ही यह निश्चय रहता है कि यह अपने जीवन भर में कितने करोड़ साँस लेगा। अगर वह अनुचित ढंग से रहकर साँस जल्दी-जल्दी लेगा तो उसकी आयु कम हो जायगी और यदि वह प्राणायाम आदि द्वारा प्रतिदिन ली जाने वाली सांसों की संख्या को घटा सकेगा तो उसकी उम्र बढ़ जायगी।

हम निश्चय रूप से इस तथ्य की सचाई के सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते। पर इतना निश्चित है कि जीवन और साँस लेने में घनिष्ठ सम्बन्ध है, और अगर हम बेढंगेपन से साँस लेते हैं तो उससे हमारे स्वास्थ्य पर अवश्य बुरा प्रभाव पड़ेगा। श्वास लेने के अवयव शरीर में ऐसे ढंग से बने हैं कि वह नाक और मुँह दोनों द्वारों से साँस ले सकता है। पर एक द्वार से साँस लेने से तो स्वास्थ्य और बल का लाभ होता है और दूसरे द्वार से साँस लेने पर रोग और निर्बलता मिलती है। इसलिये इस बात को भली प्रकार समझ लेना अत्यावश्यक है कि हम वास्तव में किस तरीके से साँस लें।

मनुष्य के लिये साँस लेने का ठीक तरीका नाक द्वारा साँस लेना ही है। इस बात की शिक्षा देना अनावश्यक सा जान पड़ता है, परंतु खेद है कि हमारे अनेक भाई इस सीधी बात में भी मूर्खता प्रदर्शित करते हैं। सभी श्रेणियों के मनुष्यों में हमको ऐसे बहुसंख्यक व्यक्ति मिलते हैं जिनको मुँह से साँस लेने की आदत है, और जो अपने बच्चों को भी मुँह से साँस लेते देखकर उसमें कोई बुराई की बात नहीं समझते।

सभ्य मनुष्यों की बहुत सी बीमारियाँ इसी मुँह से साँस लेने की आदत के कारण उत्पन्न हो जाती है। जिन बच्चों को छोटी अवस्था से इस प्रकार साँस लेने की आदत पड़ जाती है वे क्षीण जीवन और निर्बल शारीरिक संगठन के बन जाते हैं। यौवनावस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनका स्वास्थ्य गिर जाता है और उनका शरीर जीर्ण दिखाई पड़ने लगता है। इससे अच्छा नियम तो असभ्य जातियों में दिखलाई पड़ता है, जो स्वाभाविक प्रवृत्ति का अनुसरण करती हैं। इन जातियों में मातायें अपने बच्चों को शैशवावस्था से ही ऐसे ढंग से रखती है जिससे वे अपने होठों को बन्द रखे और नाक द्वारा ही साँस लें। जब बच्चा सो जाता है तो वे उसके सिर को आगे की ओर थोड़ा झुका देती है, जिससे बच्चे का मुँह बन्द हो जाता है और उसे नथुनों से ही साँस लेना आवश्यक हो जाता है।

मुँह से साँस लेने की बुरी आदत के कारण बहुत सी छोटी-बड़ी बीमारियाँ हो जाती हैं, इसी कारण से जुकाम और फेफड़े सम्बन्धी बीमारियाँ होती पाई गई हैं। बहुत से मनुष्य जो दिखावट के लिये दिन को मुँह बन्द किये रहते हैं रात को मुँह ही से साँस लेते हैं और इस तरह बहुधा कोई बीमारी पैदा कर लेते हैं। सावधानी के साथ की गई परीक्षाओं द्वारा जाना गया है कि जल सेना के जो सिपाही और जहाज चलाने वाले सोते समय मुँह से साँस लेते है, साम्पर्किक (एक से दूसरे को लगने वाली ) बीमारियों के अधिक शिकार बनते हैं, बनिस्बत उन लोगों के जो नाक से उचित रीति से साँस लेते हैं। एक उदाहरण में यह बतलाया गया था कि एक बार एक जंगी जहाज में, जो विदेश में था, शीतला की बीमारी संक्रामक रूप में फैली। इस बीमारी से जितनी मौतें हुई सब उन्हीं मनुष्यों की हुई जो मुँह से साँस लेने वाले थे, नाक से साँस लेने वाला एक भी मनुष्य न मरा।

नाक में ही प्रकृति ने छन्ना और ऐसे धूल निवारक यन्त्र बनाये हैं जो हवा में मिली गन्दगी को साफ कर देते हैं। इसके विपरीत मुँह से साँस लेने में हवा में मिली धूल और गन्दगी को रोकने का ऐसा कोई साधन नहीं रहता जो फेफड़े में शुद्ध वायु पहुँचाने में सहायक हो और हानिकारक वस्तुओं से श्वास यन्त्र की रक्षा कर सके। इतना ही नहीं इस प्रकार अनुचित तरीके से साँस लेने से बहुत सी सर्द हवा भी फेफड़े तक पहुँच जाती है और उनको हानि पहुँचाती है। श्वास लेने के अवयवों का सूज जाना प्रायः मुँह से ठंडी हवा की साँस लेने से ही होती है। जो मनुष्य रात में मुँह से साँस लेता है वह सबेरे उठते ही मुँह में जलन और गले में सूखेपन का अनुभव करता है। वह प्रकृति के नियमों में से एक प्रधान नियम का उल्लंघन कर रहा है और बीमारी का बीज बो रहा है।

प्रकृति ने नथुनों और नाक के भीतर की नलियों में बड़ी सावधानी के साथ ऐसा इन्तजाम किया है जिससे सर्द हवा, धूल-धक्कड़, कीटाणु आदि फेफड़े तक नहीं पहुँच सकते। नथने बहुत संकीर्ण हुआ करते हैं और घूम-घुमाव के साथ नालियों द्वारा बने हैं। उनके द्वार पर ऐसे खड़े-खड़े बहुत से बाल होते हैं जो हवा के कूड़े-कर्कट को साफ करने के लिए छन्ने और चलनी का काम देते हैं। जब श्वास की हवा बाहर निकलती है तब इस कूड़े-कर्कट को फिर बारह निकाल देती है। नथने केवल इसी काम को नहीं करते, किन्तु वे श्वास में ली गई हवा को गरम कर देने का भी काम करते हैं। लम्बी, तंग और टेढ़ी-मेढ़ी नालियाँ गरम और लसलसी झिल्ली से मढ़ी होती हैं और जब हवा इनमें आती है तो गरम हो जाती है, जिससे वह गले और फेफड़ों के नाजुक अवयवों को हानि न पहुँचावे।

मनुष्य को छोड़कर और कोई जानवर मुँह खोलकर नहीं सोता और न मुँह से साँस लेता है। असल में केवल सभ्य मनुष्यों ने ही प्रकृति के नियमों की अवहेलना की है। असभ्य जातियों के मनुष्य अब भी सदा इसी तरीके से साँस लिया करते हैं। सम्भव है सभ्य कहलाने वाले मनुष्यों ने यह अस्वाभाविक आदत अपने अस्वाभाविक रहन-सहन, निर्बल करने वाले विलास और अधिक उष्णता के कारण प्राप्त की हो।

नथुनों के साफ करने और छानने वाले यन्त्र के कारण हवा गले और फेफड़े के नाजुक अवयवों में जाने योग्य हो जाती है, क्योंकि जब तक वह प्रकृति के साफ करने के यन्त्र द्वारा शुद्ध नहीं की जाती, तब तक वह इन अवयवों में पहुँचने योग्य नहीं समझी जाती। यदि हवा में गन्दगी ज्यादा हो और नाक के छन्ने और चलनी से बचकर कुछ भीतर चली जाय तो प्रकृति छींक पैदा कर देती है, जिसके धक्के से वह खराब पदार्थ बाहर निकाल दिया जाता है। इस प्रकार की शुद्ध हवा और बाहर की हवा में उतना ही अन्तर होता है, जितना भभके द्वारा शुद्ध किये हुए जल तथा किसी हौज में भरे पानी में होता है। जिस प्रकार मुँह स्वयं ही फलों के बीजों या भोजन में मिले कंकड़ आदि को पकड़कर आमाशय में ले जाने से रोक देता है, उसी प्रकार नाक में ऐसी कारीगरी रखी गई है जो हवा में मिले कूड़े कर्कट को रोक सकती है।

मुँह से श्वाँस लेने में एक और दोष यह भी है कि नथुनों की नालियाँ कम व्यवहार में आने के कारण साफ और निष्कंटक नहीं रह सकती। वे मैली होकर बन्द पड़ जाती हैं और उनमें बीमारियों का सूत्रपात हो जाता है। जैसे आवागमन न होने से मार्ग में घास और झाड़ झंखाड़ उग जाते हैं, वैसे ही व्यवहार में न लाये जाने से नथने भी कूड़े करकट से भर जाते हैं।

जिन लोगों को दुर्भाग्यवश मुँह से कम या ज्यादा साँस लेने की आदत पड़ गई है और जो स्वाभाविक और सही तरीके से साँस लेने की इच्छा रखते हैं, सबसे पहले उन्हें नाक के मार्ग को साफ करना चाहिए। इसके लिए एक गिलास या प्याले में एक पाव से दो पाव तक जल भरकर नाक से खींच कर मुँह से निकालने का अभ्यास करना चाहिये। यह विधि ज्यादा कठिन नहीं है और दो चार दिन सुबह मुँह धोते समय प्रयत्न करने से इसका अभ्यास किया जा सकता है। संभव है आरम्भ में नाक से खींचा हुआ पानी मुँह से निकलने के बजाय पेट के अन्दर चला जाय। अगर नाक पहले खूब साफ कर ली जाय तो इसमें कोई खास नुकसान भी नहीं है और बहुत से लोग सुबह नाक द्वारा उषापान किया भी करते हैं। बाद में गले की माँस-पेशियों पर जोर डालकर जल को बाहर निकाला जा सकता है। दूसरी तरकीब यह भी है कि सुबह खिड़की खोलकर उसके सामने बैठकर खूब स्वच्छता से साँस ली जाय। पहले एक नथने को दबाकर दूसरे से हवा भीतर खींचें। इस प्रकार नथुनों को बदलते हुये देर तक गहरी साँस लेते रहें। इससे नाक के भीतरी का मार्ग साफ हो जायगा।


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