नीति पर चलना ही श्रेष्ठ धर्म है

January 1958

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(महात्मा गाँधी)

हम लोगों के साधारण शास्त्र बतलाते हैं कि दुनिया कैसी है और नीति शास्त्र बतलाता है कि दुनिया कैसी होनी चाहिए। इसी से यह ज्ञान होता है कि मनुष्य को किस प्रकार का आचरण रखना चाहिए। मनुष्य के हृदय में दो खिड़कियाँ हैं। एक में से उसे दिखाई देता है कि वह खुद कैसा है और दूसरी में से दिखाई देता है कि उसे कैसा होना चाहिए।

मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने शरीर, मन और मस्तिष्क की अलग-अलग जाँच करे, पर उसे इतने पर ही ठहर न जाना चाहिए। यदि वह केवल जाँच करके ही रह जाय तो जो कुछ ज्ञान लाभ उसने किया है, उससे वह कुछ लाभ नहीं उठा सकता। उसे जानना चाहिए कि अन्याय, दुष्टता, अभिमान आदि के कैसे परिणाम होते हैं। पर इनको जानकर बैठ जाने से भी कोई लाभ नहीं। तदनुसार आचरण भी करना चाहिए। नीति का विचार मकान के नक्शे की तरह है। नक्शा बतलाता है कि घर किस प्रकार बनाना चाहिए। परन्तु यदि हम नक्शे के अनुसार मकान न बनवाये तो वह व्यर्थ जाता है। इसी प्रकार यदि हमारा आचरण नीति के विचारों के अनुसार न हो तो वे विचार भी व्यर्थ ही हैं। बहुत से मनुष्य नीति के वाक्य याद करते हैं, उन पर भाषण देते हैं और बड़ी बड़ी बाते करते हैं, परन्तु वे उसके अनुसार चलते नहीं और न चलने की इच्छा रखते हैं और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि नीति के विचार इस दुनिया में आचरण करने के लिए नहीं होते, वरन् मरने के बाद जिस दुनिया में हम जाते हैं, उसमें करने के लिए होते हैं। मगर उनका यह कथन प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। एक विचारक ने कहा है-हमें पूर्ण मनुष्य बनना है तो आज ही से चाहे जितना कष्ट आवे नीति के अनुसार आचरण करने लग जाना चाहिए। ऐसे विचारों से हमें भड़कना नहीं चाहिए वरन् अपना उत्तरदायित्व समझ कर उसके अनुसार चलने में प्रसन्नता माननी चाहिये।

ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सम्पूर्ण है। उसके स्नेह की, उसकी दया की और उसके न्याय की कोई सीमा नहीं है। यदि ऐसा है तो हम जो उसके बन्दे सेवक गिने जाते हैं, कैसे नीति का मार्ग छोड़ सकते हैं? नीति मार्ग पर चलने वालो को सफलता न भी प्राप्त हो , तो उसमें नीति का कोई दोष नहीं, किन्तु दोष उसी का है जिसने नीति को भंग किया है। नीति मार्ग पर चलकर जो नीति की रक्षा की जाती है वह इसलिए नहीं कि उसका बदला मिले, क्योंकि मनुष्य प्रशंसा पाने के लिए भलाई नहीं करता, बल्कि इसलिए करता है कि वह भलाई किये बिना रह नहीं सकता उसके लिए भोजन और कार्य की तुलना करने पर अच्छा कार्य ही उत्तम प्रकार का भोजन प्रमाणित होता है। उसको यदि कोई दूसरा मनुष्य भलाई करने का मौका देता, तो वह मौका देने वाले का उपकार मानता है, जिस प्रकार कि भूखा मनुष्य भोजन देने वाले को आशीर्वाद देता है।

जिस नीति मार्ग का हमने ऊपर वर्णन किया है वह मार्ग ऐसा नहीं है जिससे दिखावटी सज्जनता प्राप्त की जाय। उसका अर्थ यह भी नहीं है कि विशेष परिश्रमी बनना, विशेष शिक्षा प्राप्त करना, विशेष स्वच्छ रहना आदि। ये सब बातें तो उसमें आ ही जाती हैं। पर इसके सिवा भी इस मार्ग में मनुष्य के करने लायक बहुत सी बाते रह जाती हैं।

सच्ची नीति का नियम ही यह है कि हम जिस मार्ग को जाते हैं उसे ही ग्रहण करके न रह जायें। किन्तु जो मार्ग सच्चा है फिर चाहे हम उससे परिचित हो या न हों हमें उसे ग्रहण करना ही चाहिए। मतलब यह है कि जब हम यह जान जाये कि फलाँ मार्ग सच्चा है तब हमें उस पर जाने के लिए निर्भय होकर जी तोड़ परिश्रम करना चाहिए। जब इस प्रकार नीति का पालन किया जा सके तभी हम आगे बढ़ सकते हैं। इससे हम जान सकते हैं कि नीति, सच्चा सुधार और सच्ची उन्नति ये तीनों बातें हमेशा एक साथ ही देखी जाती है।

नीति के कार्य हमारी आन्तरिक इच्छा से किये जाने चाहिए। जब तक हम मशीन की तरह काम करते हैं तब तक हमारे कार्य में नीति नहीं आती। यह ठीक है कि मनुष्य को मशीन की तरह काम करना चाहिए, क्योंकि इसमें हम अपनी विवेक बुद्धि का व्यवहार करते हैं। पर जो मनुष्य अपनी बुद्धि और मस्तिष्क का उपयोग न करके नदी के बहाव में जैसे लकड़ी बही जाती है वैसे बहे जाता है, वह नीति को कैसे समझ सकता है? इसलिये प्रत्येक मनुष्य को स्वयं विचार करना, उसे प्रकट करना तथा उसके अनुसार काम करना सीखना चाहिये। तभी यह कहा जा सकता है कि हम नीति की सीढ़ी पर पहुँचे हैं। इस प्रकार का कार्य स्वतः अच्छा है, इतना ही समझना बस नहीं है, साथ ही वह कार्य भलाई की इच्छा से किया हुआ होना चाहिए। अर्थात् इस बात का आधार काम करने वाले की नियत पर है कि अमुक काम में नीति की रक्षा हुई या नहीं।

दो मनुष्य एक ही काम को करते हैं, परन्तु उनमें से एक का काम नीति युक्त हो सकता है और दूसरे का नीति रहित। जैसे एक मनुष्य अत्यन्त दयार्द्र होकर गरीबों को भोजन देता है और दूसरा मान, प्रतिष्ठा या बड़ाई के लिए या किसी ऐसे ही अन्य स्वार्थपूर्ण विचार से बड़ा काम करता है दोनों काम एक से होने पर भी एक का काम नीति युक्त है और दूसरे का नीति रहित समझा जाता है। यह भी देखा जाता है कि नीति के कार्य का अच्छा प्रभाव हमेशा दृष्टिगत नहीं होता। इसलिए नीति का विचार करते समय हमको केवल यही विचार करना चाहिए कि जो कार्य किया गया है वह शुभ है और शुद्ध भावों से किया गया है। उसके परिणाम पर हमारा कुछ अधिकार नहीं है। फल देने वाला तो केवल एक ईश्वर ही है। सम्राट सिकन्दर (अलेक्जैंडर) को इतिहासकारों ने महान बतलाया है। वह जहाँ गया वही उसने यूनान के कला कौशल, शिक्षा, उद्योग और रीति-रिवाज चलाये, जिनके फलों का हम आज भी आनन्द से आस्वादन कर रहे हैं। परन्तु इन सब कामों के करने में सिकन्दर का उद्देश्य अधिकतर अपना बड़प्पन दिखलाना और विजयी बनना ही था। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि उसके कामों में नीति भी थी। वह भले ही बड़ा माना गया हो, पर नीतिमान नहीं कहा जा सकता।

इस प्रकार नैतिक नियमों में बड़ा अन्तर है, क्योंकि नीति का काम हमारे हृदय में है। अनीति का आचरण करता हुआ मनुष्य स्वयं भी यह अनुमान करता रहता है कि मैं अनीति कर रहा हूँ। झूँठ कभी सत्य नहीं हो सकता। जहाँ के मनुष्य बहुत दुष्ट होते हैं और जो कभी नीति के नियमों का पालन नहीं करते, वे भी नीतिमान होने का ढोंग रचते हैं। ऐसे मनुष्यों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि नीति का पालन करना ही श्रेष्ठ है। यह नीति की महिमा है। नीति, रीति-रिवाज या प्रजामत की कभी परवाह नहीं करती। जब तक प्रजामत या रीति रिवाज, नीति के नियमों के अनुसार चलाये जाते हैं तभी तक नीतिमान पुरुष के लिए वे शिरोधार्य हैं। इन नियमों को राजा नहीं बनाते, क्योंकि भिन्न-भिन्न राज्यों में अनेक परस्पर विरोधी नियम देखे जाते हैं। किसी विद्वान ने सत्य कहा है कि “यदि कोई शैतान आकर दुनिया में द्वेष और झूँठ को सिंहासन पर बैठा दे तो भी न्याय, भलाई और सत्य ही ईश्वरीय नियम रहेंगे।” इससे यही सिद्ध होता है कि नीति के नियम ही सर्वोपरि, ईश्वरीय और मानने योग्य हैं।


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