भारतीय परम्परा और साहित्य का महत्व

January 1958

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(श्री. रामदास गौड़ा)

सब राष्ट्रों का जन्म और पालन पोषण अपनी-अपनी परम्परा में होता है। सभी प्राचीन राष्ट्रों में सृष्टि की कथा उसी परम्परा के अनुकूल है। धर्मानुकूल आचरण के लिये, सदाचार के लिये, प्रसिद्ध पूर्वजों का जीवन चरित सभी राष्ट्रों में आदर्श माना जाता है। परम्परा की यह विशेषता अँग्रेज जाति में नहीं मिल सकती, क्योंकि उनकी प्राचीन परम्परा नष्ट हो चुकी है और ईसाई धर्म उन्होंने बाद में ग्रहण किया है। मुसलमानों में भी भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न भिन्न जातियों के लोग शामिल हैं, जिनकी अपनी प्राचीन परम्परा धर्म परिवर्तन के कारण नष्ट हो गई है। बौद्ध चीन और बौद्ध जापान के धर्म परिवर्तन से भी उनकी प्राचीन परम्परा नष्ट नहीं हुई। जिन राष्ट्रों की परम्परा हाल की है (जैसे अमरीका, योरोप, आस्ट्रेलिया आदि) उनके पास इतिहास को छोड़कर और कुछ नहीं है, जिसमें सत्य की मात्रा कम भी हो सकती है और अधिक भी हो सकती है, पर इसका पूर्ण सत्य होना आवश्यक नहीं है। प्राचीन राष्ट्रों को जैसे अपनी परम्परा और उसका परिचय देने वाले पुराणों का गर्व है, उसी तरह इन नये राष्ट्रों को अपने कल के इतिहास का उससे भी अधिक अभिमान है। वे अपने इतिहास को सच्चा और पुराणों के रूप में लिखे इतिहास को उपेक्षा के योग्य मानते हैं। कुछ भी हो इसमें सन्देह नहीं कि अभी उनकी आयु इतनी नहीं हुई है कि वे अपनी कोई परम्परा बतला सके।

जिस इतिहास से राष्ट्र को लाभ न हो, वह राष्ट्र के लिये निरर्थक है। घटनाएं तो प्रकृति में एक ही प्रकार की बार-बार घटती रहती है, इतिहास बार-बार अपने को दोहराता है। इसलिये जो परिणाम एक प्रकार की एक घटना से निकलता है वही दूसरी से भी निकलेगा। जो परिणाम अनेक घटनाओं से निकलता है और अनुभव सिद्ध हो जाता है, वही नीति अथवा आचार शास्त्र का नियम बन जाता है। सब घटनाओं को बारम्बार दोहराने के बदले एक भारी महत्व की घटना को देकर एक सूत्र या नियम निर्धारित कर देना पर्याप्त है। भारतीय श्रुति, स्मृतियों में ऐसे असंख्य सूत्र हैं। पुराणों, इतिहासों आदि में वही सूत्र कथा के साथ समझाये गये हैं। उनमें उदाहरणों की कमी नहीं होती, सर्ग, प्रति सर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरितों द्वारा प्राचीन परम्परा का संकलन किया गया है यह किसी देश या किसी राज्य का इतिहास नहीं है। यह सारी सृष्टि का इतिहास है, और इतने लम्बे जमाने के इतिहास का निचोड़ है, जिसमें असंख्य राष्ट्रों का जन्म, यौवन, प्रौढ़ता, बुढ़ापा और नाश होता रहा है। यह इतिहास इतने विशाल भू भाग का है जिसमें सैकड़ों बार जल की जगह स्थल और स्थल की जगह जल, बस्ती की जगह जंगल और जंगल की जगह बस्ती, आँशिक सृष्टि और आँशिक प्रलय होते रहे हैं। देश के देश जल में विलीन हो गये और समुद्र सूख कर महाद्वीप बन गये। इतने लम्बे जमाने में और इतने विस्तृत देश में कितने प्रकार के प्राणी, कितनी तरह की वस्तुएँ उत्पन्न हुई और नष्ट हो गई, उनका संक्षिप्त वर्णन है। जितने प्रकार की कलाओं का आरम्भ और विकास हुआ, परम्परा में वह भी शामिल है। ज्ञान-विज्ञान के इस अथाह समुद्र को इस दीर्घकाल के भीतर कितने ही देवासुरों ने मथा, कितने ही रत्न निकाले, यह सब भी परम्परा के अंतर्गत है।

हिन्दू परम्परा में कई विशेषताएं हैं जो अन्य प्राचीन परम्पराओं से बिल्कुल भिन्न हैं। हिन्दू परम्परा की सृष्टि का वर्णन सबसे निराला है। उसमें मन्वन्तर और राजवंशों का वर्णन,जो कुछ है वह भारतवर्ष या आर्यावर्त के भीतर का है। यद्यपि किसी-किसी प्रसंग में नाम अन्य द्वीपों के भी आये हैं। महाभारत के युद्ध में तुर्किस्तान और चीन की सेनाओं के शामिल होने का भी वर्णन है, पाण्डवों और कौरवों की दिग्विजय में भारतवर्ष के बाहर के भी कई देशों के नाम हैं, परन्तु लीला क्षेत्र भारत की पुण्य भूमि ही है। वैदिक साहित्य में भी जो ऐतिहासिक अंश है वह इसी देश से सम्बन्ध रखने वाला है।

हमारी सबसे बड़ी परम्परा देश की सर्वांगीण पवित्रता की भावना है। यहाँ के पहाड़, जंगल, नदी नाले, पेड़, पल्लव, ग्राम, नगर, मैदान, यहाँ तक कि टीले और मिटे भी पवित्र तीर्थ हैं। द्वारका से लेकर काम रूप कामक्षा तक और बद्री केदार से लेकर कन्या कुमारी या धनुष कोटी तक तीर्थ और देव स्थान हैं। यहाँ के जलचर, स्थलचर, गमनचर सबमें पूज्य और पवित्र भावना का अस्तित्व माना गया है। और लोग अपने देश से प्रेम करते हैं, पर हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजता है, चाहे वह मूर्खता से ऐसा करता हो और चाहे समझ बूझकर, पर वह भक्ति भाव से अपने देश के एक-एक अंग और एक एक पदार्थ की पूजा करता है, उसके सामने मस्तक नवाता है। विष्णु पुराण में सत्य ही कहा है।

अत्रापि भारते श्रेष्ठं जम्बूद्वीप महामुने। यतोहि कर्म्मभूरेषा ततोऽन्या भोग भूमयः॥ कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्य संचयात्।

यहाँ के निवासियों की धारणा थी कि ‘मनुष्य’ तो भारतवर्ष में ही जन्म लेते हैं। इसी कारणवश वे बाहर के लोगों को किन्नर, गंधर्व, नाग, असुर, राक्षस, देवता आदि कहते थे। उनके मत से मनुष्य का जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि वह कर्म करके मुक्ति को प्राप्त करने की सामर्थ्य रखता है जबकि अन्य लोग केवल कर्मानुसार भोग ही करते रहते हैं। इस दृष्टि से देश का प्रत्येक अंग तीर्थ की तरह सदा से पवित्र समझा जाता है।

इस प्रकार हमारे यहाँ सात बार नौ त्यौहार की कहावत भी सत्य सिद्ध होती दिखलाई पड़ती है। यहाँ की तिथि, दिन, मुहूर्त सभी पवित्र माने जाते हैं। विशेष अवसरों पर सनातन काल से विशेष काम होते आये हैं। यह भी प्राचीन परम्परा है। इनके लिये ज्योतिष शास्त्र का उच्चकोटि का ज्ञान भी हमारे यहाँ के ऋषियों ने दीर्घकालीन परिशीलन द्वारा प्राप्त किया था।

अनेक विद्याओं का लोप हो जाने पर भी साहित्य में यत्र-तत्र उसकी चर्चा मौजूद है, जिससे परम्परा के नष्ट हो जाने पर भी उनके अस्तित्व का पता लगता है। धनुर्वेद इसका अच्छा उदाहरण है, जिसके कई बड़े-बड़े ग्रन्थ हाल ही में विशेष खोज करने पर मिल गये हैं। कभी-कभी परम्परा के नष्ट हो जाने पर आवश्यकतानुसार उसका पुनरारम्भ भी हो जाता है। जैसे कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-

एवं परम्परा प्राप्तं इमं राजर्षयो विदः। स काले नेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

जो राज योग प्राचीन काल में विद्वान् राजर्षियों को ज्ञात था और काल चक्र के प्रभाव से बीच में जिसकी परम्परा नष्ट हो गई थी, उसका पुनरुद्धार भगवान कृष्ण ने गीता द्वारा फिर से किया और भागवत-धर्म के नाम से उसकी फिर से स्थापना कर दी।

परम्परा से प्राप्त यह अमूल्य धन हिन्दू धर्म के साहित्य में निहित है। ज्ञान, सदाचार, कलाएँ जो कुछ साहित्य के विविध रूपों में विद्यमान है, उनके लिये हम प्राचीन विद्वानों और ऋषि मुनियों के कृतज्ञ हैं। उन्हीं की कृपा से आज हमको श्रुति, स्मृति, वेदाँग, चौसठ महाविद्या और कलाओं के मूल तथ्यों का ज्ञान हो सकता है अथवा कम से कम उनके अस्तित्व का पता लग सकता है। यह समस्त साहित्य देव वाणी अथवा संस्कृत में प्रकट किया गया है। परन्तु ज्ञान की परम्परा में किसी विशेष भाषा या उसके विशेष रूप का बन्धन नहीं है। भगवान बुद्ध और जैन आचार्यों ने पाली, मगधी आदि प्राकृत भाषाओं का आश्रय लिया और उनकी परम्परा भी आज तक चली आ रही है। हिन्दी, बँगला, मराठी, गुजराती, उड़िया तैलंगी, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, पंजाब, आसमी आदि आजकल की प्रचलित प्राकृत भाषाएँ हैं, जिनमें संत, महात्मा, सुधारकों ने सदाचार की शिक्षाएँ देकर अपनी परम्परा को स्थिर रखा है। इन सबकी परम्परागत शिक्षाएँ अधिकाँश में लेखबद्ध हैं। वह सब की सब हिन्दू परम्परा के ही अंग हैं और हिन्दू धर्म तथा हिन्दू संस्कृति की पोषक हैं।


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