हिन्दू संस्कृति में प्रतीकों का महत्व और प्रभाव

January 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री. सुदर्शन )

मनुष्य के लिए सब समय पूरी बात कहना या लिखना सम्भव नहीं होता। हमारे जीवन में बहुत से भाव इस प्रकार सूचित करने आवश्यक होते हैं, जिन्हें दूर से देखकर समझा जा सके। बहुत समय और स्थल ऐसे होते हैं जहाँ अपने और दूसरों के लिए पहिचानने का चिन्ह निश्चित करना पड़ता है। यही चिन्ह उस भाव या वस्तु के प्रतीक कहलाते हैं, जिसके लिए वे निश्चित किये गये हों। जैसे किसी व्यक्ति का नाम उसका प्रतीक होता है, नाम के द्वारा उसका सम्मान और अपमान होता है, वही बात अन्य प्रतीकों के सम्बन्ध में है।

प्राचीन काल के प्रसिद्ध योद्धा अपने-अपने पृथक ध्वज रखते थे। महाभारत में श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोण, कर्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि के विभिन्न आकृतियों वाले रथ ध्वजों का वर्णन मिलता है। ये ध्वज दूर से ही उस योद्धा को सूचित कर देते थे। बड़े आदमियों के भवनों पर भी अपने पारिवारिक ध्वज लगाये जाते थे। मन्दिरों पर और पण्डों के स्थानों पर अब भी ध्वज लगाने का नियम है, जिनसे उनकी पहिचान हो सकती है। संस्थाओं के ध्वज तथा राष्ट्र ध्वज का जो सम्मान है वह सभी जानते हैं। इनके अपमान के कारण कभी-कभी बड़े संग्राम तक हो जाते हैं।

व्यक्ति या संस्थाओं के अतिरिक्त भावों, क्रियाओं तथा घटनाओं के सूचक प्रतीक भी आज व्यवहृत होते हैं। कुछ प्रतीक हैं जो उस वस्तु के वास्तविक लक्षणों के अनुसार होते हैं और दूसरे कल्पित प्रतीक होते हैं। व्यक्तियों के नाम, राष्ट्र की ध्वजाएं तथा दूसरे चिन्ह कल्पित माने जाते हैं। जबकि राष्ट्र को किसी पदक, सिक्के या ध्वज आदि के लिए कोई प्रतीक निश्चित करना पड़ता है तो उसके विशेषज्ञों की बैठक होती है, क्योंकि ऐसा चिन्ह निश्चित करना जो भाव को ठीक-ठीक सूचित करे और उससे भ्रम न हो, सरल काम नहीं है।

विश्व की सम्पूर्ण मानव जाति नित्य प्रतीकों को एक ही अर्थ के व्यवहार में लाती है। श्वेत ध्वज सब कहीं शान्ति का सूचक है, जैसे किसी अज्ञात शक्ति ने सबको उन प्रतीकों के चिन्ह बतला दिये हैं। यह प्रतीकों की एकता भी सिद्ध करती है कि मनुष्य जाति किसी एक ही देश से विश्व में फैली है और वह देश वही हो सकता है, जहाँ नित्य प्रतीक अब भी अपने भूल और अविकृत रूप में मिल सकें। खोज करने पर मालूम पड़ता है कि भारत के प्राचीन प्रतीक ही विश्वव्यापी हो गए हैं।

भाषा का विवेचन करते समय यह बताया गया है कि किस प्रकार मूल शब्दों का उच्चारण भेद से असावधानी से, रूप बदलता गया है, ठीक वही बात प्रतीकों के सम्बन्ध में है। प्रतीकों की धारणा में भी बराबर कल्पना और लाक्षणिकता आती गई इसके कारण कल्पित प्रतीकों की संख्या बढ़ती गई। उदाहरण के लिए देवता का प्रतीक लीजिए। मनुष्य की आकृति के साथ मुख के चारों और तेजोमण्डल बना देना देवत्व का प्रतीक है। देवताओं के शरीर तेजस तत्व के बने हैं, वे पार्थिव नहीं है, यही बात तेजोमण्डल से प्रकट की जाती है। भारत से बाहर जाने पर जब लोग परिस्थितिवश शिक्षा से दूर होकर असभ्य हो गये तो वे देव शक्ति को ही भूल गये। जब दूसरों के संसर्ग से उन्होंने देवताओं का वर्णन पाया तो देवताओं और उनके वाहनों में भेद न कर सके। इससे देवताओं की आकृति में उनके वाहनों के आकार भी मिल गये। साथ ही देवत्व को सूचित करने के लिए उड़ने के प्रतीक पंख आकृतियों में लगाये गये। विदेशों की परियों और फरिश्तों की धारणा इसी आधार पर उत्पन्न हुई है।

जैसे एक ही शब्द उपयोग भेद से अनेक अर्थ रखता है- ‘राम-राम’ का अर्थ प्रणाम भी होता है और घृणा भी। वैसे ही प्रतीकों से भी अनेक भाव सूचित होते हैं। जब कोई जाति श्रेष्ठ प्रतीक को अपना चिन्ह बनाकर अत्याचार करती है तो वह प्रतीक उसके अत्याचार का द्योतक हो जाता है तो वह अपने नित्य अर्थ में नहीं रहता। जैसे हिटलर के अत्याचार से स्वस्तिक का चिन्ह अत्याचारों का स्मारक बन गया। अग्नि की लपटों के समान लाल रंग का झण्डा वैदिक हिन्दू ध्वज होने पर भी, रूस में लाल पताका के रूप में नास्तिकता तथा जड़ साम्यवाद का प्रतीक हो गया है।

हिन्दू समाज के सर्वज्ञ ऋषियों ने आरम्भ में ध्वज तथा दूसरे प्रतीकों को आजकल की भाँति कल्पित नहीं बनाया था। हमें कोई एक गुण अभीष्ट है इसलिए हम उसी को अपना प्रतीक बना लें ऐसी बात नहीं थी। उस समय के प्रतीक नित्य प्रतीक हैं, जो किसी व्यक्ति या भाव के पूर्णरूप से सूचक होते थे। नित्य प्रतीक का अर्थ क्या है उनमें से कुछ तो विशेषता के कारण निश्चित किये जाते हैं। किस जाति, देश या पदार्थ की वह विशेषता जो दूसरों में हो, उसका प्रतीक हो जाता है। जैसे हाथी का प्रतीक सूँड के रूप में बनाया जा सकता है। इसी प्रकार जिन देशों में कोई विशेष पशु या पदार्थ होते हैं, उन देशों को उन पदार्थों से लक्षित किया जाता है। प्रतीक वे हैं जो भाव जगत से सम्बन्ध रखते हैं कौन सा भाव किस पदार्थ से सम्बन्धित है यह बात वही जान सकता है, जिसने स्थूल के बन्धन से मन को पृथक करके जाग्रत दशा में ही भाव जगत को साक्षात कर लिया हो।

नित्य प्रतीकों का श्रेणी विभाजन करते समय हमको कई प्रकार के प्रतीक मिलते हैं। (1) चिह्न प्रतीक, जैसे अक्षराकृतियाँ, स्वास्तिक, त्रिभुज, चतुर्भुज आदि (2) रंगों के प्रतीक, जैसे श्वेत, लाल आदि रंग भाव सूचक हैं। (3) पदार्थ प्रतीक, जैसे शंख स्वर्ण, पाषाणादि। (4)प्राणी प्रतीक गाय, वृषभ, मयूर, हंस आदि। (5) पुष्प प्रतीक कमल आदि। (6)शस्त्र प्रतीक चक्र, त्रिशूल, गदा आदि। (7) वाद्य प्रतीक शंख डमरू, भेरी, वंशी आदि। (8) वृक्ष प्रतीक आँवला, पीपल, तुलसी आदि (9) वेश प्रतीक शिखा, यज्ञोपवीत, कण्ठी, माला, गेरुआ वस्त्र, दण्ड, तिलक आदि-आदि। (1) संकेत प्रतीक-मुद्राएं।

1- चिह्न प्रतीकों में हिन्दू समाज में ‘स्वास्तिक’ सर्व प्रधान है। जैसे समस्त अक्षर ‘कार’ से उत्पन्न हुए हैं। वैसे ही समस्त रेखाकृतियाँ स्वास्तिक के ही अंतर्गत आ जाती हैं। प्रणव की आकृति नाद रहित होने पर स्वास्तिक ही मानी जाती है। केन्द्र के चारों ओर प्रगति और रक्षा, चारों तरफ उन्मुक्त द्वार यह स्वास्तिक में स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। स्वास्तिक (कल्याण) के लिए यही आवश्यक है। स्वास्तिक प्रथम पूज्य श्री गणेशजी का चिन्ह है। इसका अर्थ है कि स्वास्तिक द्वारा हम गणेशजी की शक्ति का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रधान मंगल चिन्ह को पारसी धर्म ने उलटा कर लिया और नाम अपस्तिक रखा। इसी प्रकार ईसाइयों का क्रास भी इसी का संक्षिप्त रूप है। प्रणव का यह रूप न लेकर जिन्होंने नाद को प्रतीक माना उनकी परम्परा में वह काल व क्रम से चाँद और तारे के रूप में आ गया, जैसे कि मुसलमानों में। पर खोज करने से इन सबका उद्गम स्वास्तिक ही सिद्ध होता है।

(2) रंग प्रतीक हिन्दू धर्म में पूजा में तो प्रयुक्त किये ही जाते हैं, उनके प्रभाव का सर्वत्र लाभ उठाया गया है। थोड़ी ही भेद से लाल रंग उष्णता, अनुराग या क्रोध का सूचक है। क्रिया से उष्णता और उसका रंग लाल होगा वह स्पष्ट जान पड़ता है। इसी प्रकार कुछ अन्तर से श्वेत रंग सात्विकता, प्रतिभा, यश, शान्ति, सत्य, धर्म का प्रतीक है। अर्थात् रजोगुण के जो विशुद्ध कार्य हैं उन्हें लाल रंग और सत्वगुण के जो विशुद्ध कार्य हैं उन्हें श्वेत रंग सूचित करता है। तमोगुण का सूचक काला रंग है। वह अभाव, अन्धकार, मृत्युँ आदि का सूचक है जो तमोगुण के स्वरूप हैं।

(3) पदार्थ प्रतीकों में शंख मंगल का प्रतीक हैं। शंख में जो शक्ति है वह हम में पवित्रता का संचार करता है। इसी प्रकार स्वर्ग दृढ़ता, बहुमूल्यता और परीक्षण में स्थिरता का प्रतीक माना जाता है। अस्थि (हड्डी) को अपवित्रता का प्रतीक बताया गया है।

(4) प्राणी प्रतीकों में गौ, पृथ्वी क्षमा का प्रतीक है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। हंस, ज्ञान और निर्णय का प्रतीक है तथा सर्प बल और प्राण का प्रतीक है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि जिनका अर्थ स्पष्ट है जैसे हंस के शुभ्रता, तीव्रगति, नीर-क्षीर विवेक आदि गुण ज्ञान और विवेक को प्रकट करते हैं। इसी प्रकार गाय भी पृथ्वी के समान मनुष्यमात्र की पालक, धारक और क्षमा की मूर्ति है।

(5) पुष्प प्रतीकों में कमल भारतवर्ष का सबसे अधिक सुन्दर पुष्प है जिसकी उपमा आदर्श सौंदर्य वाले नर नारियों के लिए दी जाती है।

(6) शस्त्र प्रतीक में चक्र और त्रिशूल सबसे महत्वपूर्ण हैं जो विष्णु और शिव के मुख्य शस्त्र हैं। इनसे इन देवताओं की शक्ति का बोध होता है।

इस प्रकार वाद्य प्रतीक, वृक्ष प्रतीक, वेश प्रतीक के द्वारा भी अनेक प्रकार के भावों और उद्देश्यों को प्रकट किया जाता है। इनसे प्रकट होता है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृति में प्रतीकों का पर्याप्त प्रचार था और उनके द्वारा पठित-अपठित सभी थोड़े से संकेत से ही धार्मिक सिद्धान्तों के मर्म और आदेशों के समझने में समर्थ हो सकते थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118