मालिकों और मजदूरों में सद्भाव की स्थापना

January 1958

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(श्री. सन्तरामजी )

पश्चिम के मजदूरों और मालिकों के संघर्ष को देखकर तथा समाजवादियों की बातें सुनकर हमारे देश में भी मालिक और मजदूर का, श्रम तथा प्रबन्ध का झगड़ा चल रहा है। इसके कारण प्रायः अशान्ति उत्पन्न होती रहती है। हड़तालें होती हैं, दंगे-फसाद होते हैं, मार-काट की भी नौबत आ जाती है। इस झगड़े और अशान्ति को सबके लिये हितकारी रूप में मिटाना सच्चे जन-सेवकों का काम है।

एक मिल मालिक मजदूरों की माँगों से तंग आकर कह रहा था-”मजदूर को एक इंच जगह हो तो वह एक गज माँगने लगता है।”

उसकी शिकायत सुनकर एक परिचित जन-सेवक ने कहा-”आपने उसे -सवेतन छुट्टी, साफ मकान, शिक्षा, दवादारु सब कुछ दिया, पर आपने उसे अपने आपको नहीं दिया।”

मिल मालिक उछला पड़ा। बोला-”आप कही सनकी तो नहीं है। मैं उसके लिये और क्या करूं? क्या मैं मजदूरों के लिये नर्स बनकर उनके मुँह में दूध टपकाऊँ।” जन-सेवक ने उत्तर दिया-”आपको उनके लिये नर्स बनने की जरूरत नहीं हैं। आपको उनके सम्बन्ध में मनुष्य प्राणी बनने की आवश्यकता है। आप वास्तव में उनको नहीं जानते और वे आपको नहीं जानते। यदि लोगों को व्यक्ति समझकर व्यवहार न किया जाय तो वे बुरा मानते हैं। प्रत्येक मनुष्य प्राणी में गौरव का भाव है और प्रत्येक अपने साथ एक व्यक्ति के रूप में व्यवहार किया जाना पसन्द करता है। यदि आप उन लोगों में, जो आपके लिये काम करते हैं, सच्ची-अकृत्रिम दिलचस्पी लेने लगें तो यह निश्चय है कि आपके और उनके संबंधों में सुधार हो जायेगा।”

मिल मालिक बोला-”मित्रोचित दिलचस्पी-ये शब्द सुनते-सुनते मेरे कान पक गये। हम व्यापार चला रहे हैं, न कि उपदेशक विद्यालय।”

बस, ऐसी ही मनोवृत्ति के कारण मजदूरों और मालिकों के झगड़े खतम नहीं होते। यदि मालिक ऊपर लिखे परामर्श पर चले तो दोनों ओर न्याय के लिये मार्ग खुल जायें। इस उपाय से मजदूरों को जहाँ अच्छा वेतन और काम करने का अच्छा वातावरण मिलेगा, वहाँ दूसरी ओर मालिकों को हार्दिक सम्मान तथा पूरा काम मिलेगा। श्रम तथा पूँजी के वैमनस्य को दूर करने का यही उचित उपाय है। इसके विपरीत जैसा कुछ वर्गवादी कहते हैं, पूँजी और श्रम की समस्या के सुलझाने के लिये सारी सभ्यता को नष्ट कर डालना, कोई प्रशंसनीय समाधान नहीं है। एक वर्गहीन समाज बनाने के उद्देश्य से चारों ओर वर्ग युद्ध और वर्ग घृणा फैला देना, मनुष्य जाति के लिए हितकर बात नहीं है। इस समस्या का हल यही है कि मनुष्यों को हर प्रकार से ऐसी शिक्षा दी जाय कि सभी मनुष्य भगवान् की सन्तान हैं और किसी को एक दूसरे के प्रति घृणा रखना जघन्यता का परिचायक है। ऐसा होने से उनमें भ्रातृभाव का उदय होगा और वे परस्पर में सहानुभूति का व्यवहार करने लगेंगे। अमेरिका के प्रमुख उद्योगपति श्री हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि “बड़े-बड़े उद्योग मानवता के लिए एक बहुत बड़ी देन सिद्ध हो सकते हैं, यदि ये अपने मजदूरों पर उतना ही समय तथा ध्यान दें जितना कि वे मशीन, भवन तथा शिल्प पर देते हैं।”

अपनी ही कम्पनी को फटकार बतलाते हुये उन्होंने कहा- “ऐसा जान पड़ता है कि हमने मानवी सम्बन्ध के विकास को जारी नहीं रखा है। हम अपना उत्पादन बढ़ाने के लिये जितना ध्यान वैज्ञानिक साधनों पर देते हैं, उतना मानवी सम्बन्धों पर नहीं दे रहे हैं। जितना रुपया हमने शिल्प विज्ञान की वृद्धि पर खर्च किया है, उतना ही हमें मजदूरों के साथ मानवीय सम्बन्ध को अच्छा बनाने में व्यय करना चाहिए था।”

उनके इस शब्द को सुनकर अमरीका के सभी लोग प्रसन्न हुये थे, क्योंकि एक प्रधान पूँजीपति के मुख से ऐसी बात उन्होंने न कभी सुनी थी और न वे इसकी आशा करते थे। उनका कथन इसी विचार का समर्थन करने वाला था कि सब मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं और इस कारण भाई-भाई हैं। जब फोर्ड कम्पनी के एक मजदूर से पूछा गया तो उसने कहा- “श्री फोर्ड बिल्कुल ठीक कहते हैं। वे सच्चे व्यवस्थापक हैं।” उससे प्रश्न किया गया कि तुम किस आधार पर उनको अच्छा कहते हो? तो वह बोला- “फोर्ड साहब ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो दरवाजे से निकलते हुये मुझसे बातें करके जाते हैं। अन्य बड़े अफसरों में से तो अनेक मुझ पर ध्यान ही नहीं देते।” इससे प्रकट होता है कि लोग चाहते हैं कि अन्य लोग उनकी ओर ध्यान दें। वे भिखारी बन कर दान लेना नहीं चाहते। यह ठीक है कि प्रत्येक व्यक्ति आजीविका कमाना और अच्छा वेतन पाना चाहता है। परन्तु वह रुपये से भी बढ़कर कुछ और भी पाना चाहता है, वह अपने साथ इस रीति से व्यवहार किया जाना चाहता है, जिससे वह अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को बनाये रख सके। इस प्रतिष्ठा को प्राप्त करना उसका अधिकार है। इस बात को कहने का दूसरा तरीका है कि उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार किया जाय। एक ओर न्यायप्रिय और धर्माचरण पर विश्वास रखने वाले मजदूर का कर्तव्य है कि वह उन सब इकरारों को ईमानदारी के साथ पूरा करने का उद्योग करे, जो उसके और मालिक के बीच में न्याय-संगत रूप से , बिना किसी दबाव या गड़बड़ के किये गये हैं। मालिक को डराए धमकाये बिना उसे न्याय संगत तथा समुचित पारिश्रमिक स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे बहुत अधिक बढ़ाकर पारिश्रमिक की माँग नहीं करनी चाहिये, जिससे कि आगे चलकर वह कारोबार ही संकट में पड़ जाये और स्वामी तथा सेवक सब विपत्ति में फँस जायें। उधर न्यायशील का भी कर्तव्य है कि मजदूरों के साथ सब तरह से स्वतन्त्र मनुष्यों का सा व्यवहार करे और स्वामित्व, लाभ तथा प्रबन्ध में साझेदार समझे। मालिक को चाहिये कि कभी मजदूरों से उनकी शक्ति से अधिक काम न ले और न उनको ऐसे काम में लगाये जो उनकी आयु और शारीरिक दशा के अनुकूल हो। प्रबन्धक या मालिकों के हाथ में चूँकि शक्ति रहती है, इसलिये उनका उत्तरदायित्व भी अधिक है। जिस किसी देश के प्रबन्धकर्त्ता या मालिक लोग श्रमिकों की सुरक्षा नहीं कर सके, वहाँ उन्होंने अपने ही विनाश के लिये खाई खोद ली है। श्रम तथा पूँजी में शाँति तथा सद्भाव बनाये रखने के लिये कुछ सुझाव यहाँ दिये जाते हैं-

(1) गवर्नमेंट, सार्वजनिक कल्याण के रक्षक के रूप में, इस विषय में कम से कम हस्तक्षेप करे।

(2) काम करने वालों को समुचित मजदूरी मिले। उनको उत्तम भोजन, वस्त्र और मकान मिल सकें।

(3) बच्चों से हानिकारक मजदूरी न कराई जाय।

(4) काम करने वालों के स्वास्थ की रक्षा की जाय।

(5) लोगों को न्याय का विश्वास दिलाया जाय। राज्य औद्योगिक टक्करों के कारणों को दूर करे और झगड़ों को नियन्त्रण करे।

(6) काम के घंटे घटा दिये जायें। प्रत्येक मजदूर को कम से कम इतनी मजदूरी दी जाय, जिससे उसका जीवन निर्वाह भली प्रकार हो सके।

(7) उद्योग से जो आमदनी हो उसका बँटवारा न्याय संगत तरीके से हो।

(8) पूँजीपति अपने को सम्पत्ति का मालिक नहीं, रक्षक समझे। वह कारखाने की आय में से अपना व्यय निकाल कर शेष मजदूरों को न्यायानुकूल तरीके से बाँट दे।


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